
चलेंगे साथ-साथ?
भारत अमेरिका के रिश्तों में पहले भी ऐसे लम्हें आए हैं। जवाहर लाल नेहरू- जॉन कैनेडी, इंदिरा गांधी-लिंडन जॉनसन, राजीव गांधी- रौनल्ड रीगन, अटल बिहारी वाजपेयी-बिल क्लिंटन, मनमोहन सिंह- जार्ज बुश, जब लगा था कि दोनों देश एक नए दोस्ताना सफर पर चल निकलेंगे पर दुनिया के यथार्थ ने इन प्रयासों को सफल नहीं होने दिया। उनकी अपनी जरूरत है, हमारी अपनी मजबूरियां हैं इसलिए बहुत कुछ सांझा होने के बावजूद रिश्तों ने अधिक सकरात्मक मोड़ नहीं लिया। जुलाई 2005 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद एक बार फिर लगा कि भारत-अमेरिका के बीच नया युग शुरू हो रहा है लेकिन दो ही सालों में मामला ठप्प हो गया। चाहे उनके कमरे में महात्मा गांधी की तस्वीर लटकी है पर बराक ओबामा को भारत में अधिक दिलचस्पी नहीं थी। वे तो चाहते थे कि अमेरिका-चीन मिल कर दुनिया को संभालें। दूसरी तरफ भारत में मनमोहन सिंह की सरकार भी लडख़ड़ाने लगी थी। परिणाम था कि बातें अच्छी अच्छी की जाती थी पर दोनों दूर होते गए। अब फिर नरेंद्र मोदी-बराक ओबामा नज़दीक आए हैं। वायदा किया गया कि दोनों भारत तथा अमेरिका चलेंगे साथ-साथ। भारत के नए प्रधानमंत्री का वाशिंगटन में खूब स्वागत किया गया। जिस वक्त संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन के कारण न्यूयार्क में दुनिया भर से राष्ट्राध्यक्ष आए हुए हैं जो व्हाईट हाऊस से निमंत्रण के लिए तरस रहे हैं, वहां ओबामा ने दो बार मोदी के लिए समय निकाला। प्रधानमंत्री ने भी वीज़ा प्रकरण की कड़वाहट को एक तरफ रख भारत-अमेरिका के बीच मज़बूत रिश्तों की नींव रखने का प्रयास किया। सवाल यह है कि नेक इरादों के बावजूद क्या नरेंद्र मोदी तथा बराक ओबामा आपसी रिश्तों की नई इबारत लिखने में सफल रहेंगे?
इस संदर्भ में कुछ बातें ज़हन में रखने की जरूरत है। तीस साल के बाद भारत को ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जिसके पास अपना बहुमत है और जो अपने वायदों को निभाने की स्थिति में हैं। ऐसा ही उन्होंने गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर किया था मनमोहन सिंह से अमेरिका इसलिए भी निराश था क्योंकि वह अपने वायदे पूरे नहीं कर सके। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आशा जगी है। मैडिसन स्क्वेयर गार्डन में माहौल जादुई था। पर हमारे रिश्ते का यह यथार्थ भी है कि आपसी असंतुलन है। अमेरिका एक महाशक्ति है जबकि हम तो अभी एशिया में भी पूरी शक्ति नहीं बन सके। अमेरिका के अपने हित हैं। ओबामा इस वक्त उक्रेन तथा पश्चिमी ऐशिया में फंसे हुए हैं। भारत की उक्रेन या सीरिया में दखल देने की कोई मंशा नहीं है। रूस हमारा सहयोगी है और हमारी अपनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या है। भारत और अमेरिका ने कहा है कि हम आतंकवाद के खिलाफ मिल कर संघर्ष करेंगे लेकिन इसका मतलब भी क्या है? हमारी चिंता हमारा पड़ोस है जहां पाकिस्तान में आतंकवाद का कारखाना चल रहा है। अगले साल अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता है। ऐसा करते वक्त अमेरिका ने हमारे हितों की अनदेखी की है। न ही पाकिस्तान पर इतना दबाव डाला कि वह अपना जेहादी कारखाना बंद करे। मुंबई पर 26/11 के हमले के बावजूद अमेरिका ने पाकिस्तान पर कारगर कार्रवाई नहीं की। जैश-ए-मुहम्मद, लश्करे तोयबा, जमात-उद-दावा पर प्रतिबंध अवश्य लगा दिया गया पर हाफिज़ सईद वहां खुला फिर रहा है। अमेरिका ने उसका वह हाल नहीं किया जो ओसामा बिन लादेन का किया था।
कई लोगों का सवाल होगा कि मोदी अमेरिका से लेकर क्या आए हैं? ऐसा प्रभाव है कि जैसे ओबामा को मोदी के झोले में कुछ डाल देना चाहिए था। न वह हमारे झोले में कुछ डालेंगे, न हम उनके झोले में कुछ डालेंगे पर इस यात्रा के बाद संभावनाएं जरूर बढ़ जाएंगी। इस वक्त रिश्ता ढुलमुल है। 1998-99 में अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साथी था। हमारे व्यापार का 14 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका के साथ था। 2013-14 में यह 8 प्रतिशत रह गया जबकि चीन का हिस्सा 2 प्रतिशत से बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया। अर्थात् हमारा यह शैतान पड़ोसी हमारा सबसे बड़ा बिसनेस पार्टनर है। 2001 के बाद अमेरिका के साथ हमारा व्यापार 400 प्रतिशत बढ़ा है, पर चीन के साथ यह हैरान करने वाला 2750 प्रतिशत बढ़ा है। रक्षा मामले में अवश्य अमेरिका रूस को पछाड़ कर हमारा सबसे बड़ा पार्टनर बन गया है लेकिन अमेरिका संतुष्ट नहीं है। तकनीकी ट्रांसफर के मामले में अमेरिका बहुत नखरे करता है। सैनिक मामलों में उस वक्त भारत-रूस सहयोग का कारण भी यही था कि अमेरिका तकनीक सांझी करने के मामले में बिल्कुल उदार नहीं है। उन्हें हमारे परमाणु जिम्मेवारी प्रावधान भी पसंद नहीं जबकि भारत 1984 की भोपाल गैस त्रासदी को नहीं भूला जो लाखों लोगों को उजाड़ गई थी। यूनियन कारबाईड का प्रमुख वॉरन एंडरसन मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सहयोग से यहां से भागने में सफल रहा था और अमेरिका जाकर वह लापता हो गया। अमेरिकी सरकार ने उसे हमारे हवाले करने में कोई सहयोग नहीं किया, ठीक जिस तरह पाकिस्तान कह रहा है कि उसे मालूम नहीं कि दाऊद इब्राहिम किधर है!
अमेरिका हमारे प्रोफैशनल्ज़ को वीज़ा देने पर रुकावटें खड़ी कर रहा है। उनकी संसद में एक विधेयक लम्बित है जो अगर पारित हो गया तो अमेरिका के साथ हमारी सर्विस ट्रेड को बहुत प्रभावित करेगा। अमेरिका की दुनिया का थानेदार बनने की दिलचस्पी लगातार कम होती जा रही है। ऐसा उस वक्त हो रहा है जब एक तरफ जेहादी बाढ़ फैलती जा रही है तो दूसरी तरफ चीन अपनी सीमा से बाहर फैलना चाहता है। दोनों ही हमें प्रभावित करते हैं। उधर चीन अपने प्रभाव का जबरदस्ती विस्तार करने का प्रयास कर रहा है। उनके राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान हम इसका ट्रेलर देख कर हटे हैं। पर यह तो साफ है कि अमेरिका में दुनिया के सामने चुनौतियों का सामना करने की भूख लगातार कम होती जा रही है।
इस बीच प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा सम्पन्न हुई है। दोनों देश एक बार फिर आपसी रिश्तों पर गौर कर रहे हैं यह समझते हुए कि इनका अपने सामर्थ्य के अनुरूप दोहन नहीं हुआ। इस संर्दभ में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। एक, चाहे अमेरिका का प्रभाव कम हो रहा है पर वह अभी भी दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। उसकी सैनिक तथा आर्थिक क्षमता का कोई मुकाबला नहीं। चीन भी कहीं नहीं खड़ा। अमेरिका की कम्पनियां नए-नए आविष्कार तथा खोज करती रहती है जिस कारण अमेरिका बाकी दुनिया से आगे रहता है। दूसरा, नरेन्द्र मोदी के रूप में भारत को ऐसे प्रधानमंत्री मिले हैं जो अपने वादे पर खरा उतर सकते हैं। वाशिंगटन पोस्ट ने भी लिखा है कि मोदी की यात्रा ओबामा के लिए मौका है और वह उनके सहयोग से चीन की बढ़ती ताकत को रोकने में मदद ले सकते हैं। न्यूयार्क टाइम्स तथा दूसरे अमेरिकी अखबारों ने भी लिखा है कि इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। भारत के प्रति वहां वह सद्भावना है जो चीन कभी प्राप्त नहीं कर सकता। तीसरा, और यह सबसे महत्वपूर्ण है कि अगर साथ-साथ चलना है तो पहले हमें अपने को दुरुस्त करना होगा। 5 प्रतिशत से कम की विकास दर पर कोई हमें गंभीरता से नहीं लेगा। चीन का अमेरिका के साथ व्यापार हमसे पांच गुणा है। अगर हमने कुछ मुकाबला करना है तो अपनी अर्थव्यवस्था को और मज़बूत करना होगा तब ही दुनिया हमें गंभीरता से लेगी। वर्तमान हालत में तो प्रवासी भारतीय जो मोदी की यात्रा से गद्गद् हैं भी अपने डालर यहां निवेश करने के लिए तैयार नहीं होंगे। उन्हें मातृभूमि प्यारी है, पर अपने डॉलर उससे भी अधिक प्यारे हैं।