
पंजाब में धर्मसंकट
कांग्रेस तथा इनैलो के अलावा हरियाणा के परिणामों तथा वहां भारतीय जनता पार्टी के शानदार प्रदर्शन से बड़ा झटका पंजाब में गठबंधन साथी शिरोमणि अकाली दल को पहुंचा है। अपने गठबंधन साथी के ऐतराज़ की परवाह किए बिना अकाली नेतृत्व ने चौटाला परिवार के साथ अपने पारिवारिक सम्बन्धों को तरजीह दी थी। परिणाम है कि अब पंजाब में यह गठबंधन डांवाडोल हो रहा है। हालत इतने गंभीर बन गए कि हरसिमरत कौर बादल को अरुण जेतली से मिलने भेजा गया और उनसे आश्वासन लिया गया कि अकाली-भाजपा गठबंधन को कोई खतरा नहीं लेकिन भाजपा के रवैये में अधिक बदलाव नहीं आया जो इस बात से पता चलता है कि जहां नवजोत सिंह सिद्धू अकाली नेतृत्व को खुली बहस की चुनौती दे रहे हैं वहीं करतारपुर में शहीदी स्मारक के शिलान्यास के समय अकाली नेतृत्व की मौजूदगी में बलरामजी दास टंडन, शांता कुमार तथा कमल शर्मा ने नशे का मुद्दा उठा कर अकालियों की दुखती रग पर हाथ रख दिया।
पंजाब में रेत बजरी की कमी, प्रापर्टी टैक्स, वैट, नशे आदि के मुद्दों को लेकर जो आपसी तलखी थी वह हरियाणा चुनाव में चरम पर पहुंच गई। जिस तरह नवजोत सिंह सिद्धू ने अकालियों पर हमला किया उससे पता चलता कि पीछे से हाईकमान का आशीर्वाद था नहीं तो सिद्धू इस सीमा तक न जाते। नवम्बर के अंत में एक सौ नगर कौंसिल तथा आधा दर्जन नगर निगमों के चुनाव हैं जिसमें भाजपा अकालियों के साथ सौदेबाजी करेगी। देश का मूड पढ़ने में अकाली नेतृत्व अर्थात् बादल परिवार भी गफलत कर गया। उन्होंने समझा नहीं कि नरेन्द्र मोदी की जीत के बाद राजनीति बदल गई है। एक परिवार पर आधारित राजनीति का अंत हो रहा है। लोकसभा के चुनाव में पंजाब की जनता ने भाजपा हाईकमान को अपना संदेश भेज दिया था। लेकिन क्या इस संदेश पर अमल हो सकता है? क्या इस पर अमल होना भी चाहिए? पंजाब का संदर्भ दूसरे प्रदेशों से अलग है। इसके बारे मुझे यह कहना है,
एक, अकाली दल कोई मामूली पार्टी नहीं है। यह कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनता कांग्रेस नहीं, यह शिवसेना भी नहीं, जिसे एक तरफ फैंक कर आप आगे बढ़ सकते हैं। अकाली दल का अपना इतिहास है और अपना आधार है चाहे यह लगातार कम हो रहा है। पंजाब की राजनीति भी दूसरे प्रदेशों से अलग है। यहां जाति के आधार पर राजनीति नहीं होती यहां धर्म के नाम पर राजनीति होती है। यहां अकालियों को सिखों का तथा भाजपा को हिन्दुओं का प्रतिनिधि समझा जाता है। दोनों ने मिल कर जब अच्छी सरकार दी तो पंजाब में आतंकवाद को खत्म किया गया। भाजपा के साथ भी एकमात्र अल्पसंख्यक समुदाय सिख ही जुड़े हैं नहीं तो मुसलमान तथा ईसाई अभी भी दूर हैं। असली सवाल यह है कि पंजाब में अकालियों को खत्म कर कहीं कट्टरवादियों को जमीन तो नहीं मिल जाएगी? पाकिस्तान भी फिर शरारत कर सकता है और अकाली दल की अपनी शरारत करवाने की क्षमता को भी कम नहीं आंका जाना चाहिए। आखिर बादल साहिब ने स्वर्ण मंदिर में भिंडरांवाला का स्मारक बनवा ही दिया है। जब यह बन रहा था तो मुख्यमंत्री बादल आंखें बंद कर बैठे रहे फिर कह दिया कि मुझे तो मालूम नहीं कि यह कैसे हो गया? आतंकवाद के दौरान सरदार प्रकाश सिंह बादल की भूमिका को याद करिए तो आपको पता चल जाएगा कि वह तो शिकार तथा शिकारी दोनों के साथ भाग सकते हैं। इसलिए अकाली दल के साथ सम्बन्ध तोडऩा आसान नहीं होगा लेकिन अगर भाजपा अकाली दल के साथ गठबंधन रखती है तो खुद मटियामेट हो जाएगी।
पंजाब में शासन की हालत शोचनीय है जो भाजपा के लिए दूसरी समस्या है। इसमें भाजपा के मंत्रियों का भी योगदान है जो खामोशी से अकाली नेतृत्व के निर्णयों पर मोहर लगाते रहे। विकास रुक गया है। समाचार छपा है कि सचिवालय में बिस्कुट सप्लाई करने वाले दुकानदार का एक लाख रुपए का बिल भी नहीं चुकाया गया। शिक्षा संस्थाओं की महीनों से ग्रांट रुकी हुई है। एशियाई खेलों में कांस्य पदक पाने वाली खिलाड़ी खुशबीर कौर का कहना है कि पंजाब की खिलाड़ी होने पर शर्म आती है क्योंकि सरकार ने मैडल जीतने पर जो वायदे किए थे उन्हें वह पूरा नहीं कर रही। प्रति व्यक्ति आय हरियाणा में पंजाब से बहुत अधिक है। पुडा की ज़मीन जगह-जगह गिरवी रख कर्ज़ लिया जा रहा है। पर कब तक इस तरह आप समय निकालते जाओगे?
पंजाब वह प्रदेश बन रहा है जहां सबसे अधिक टैक्स है। पेट्रोल हरियाणा से 7 रुपए महंगा है। बार-बार कर्मचारियों को वेतन देना मुश्किल पड़ रहा है। पंजाब सरकार इस हालत के लिए आतंकवाद को जिम्मेदार ठहरा रही है लेकिन मार्च 1997 में पंजाब का कर्जा 15,000 करोड़ रुपए था। तब तक आतंकवाद खत्म हो चुका था। अब यह बढ़ कर 1,13,000 करोड़ रुपए हो गया है। बादल साहिब खर्चा कम करने को तैयार नहीं। विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त बिजली-पानी सप्लाई करना वह बंद करने को तैयार नहीं। इसके कारण गठबंधन में भी तनाव है क्योंकि भाजपा शिकायत कर रही है कि अपने ग्रामीण समर्थन को खुश रखने के लिए अकाली नेतृत्व शहरी पर टैक्स थोप रहा है। विशेषतौर पर शहरी वर्ग सोच बैठा है कि यह सरकार शहरी विरोधी है। वास्तव में कई बार तो यह भी समझ नहीं आता कि यह सरकार कायम क्यों है? इसका मकसद क्या है? आखिर कोई सरकार इसलिए ही कायम नहीं रहनी चाहिए कि वह कायम है। हर सरकार का पहला उद्देश्य लोक कल्याण है लेकिन यही नहीं हो रहा। न शिक्षा व्यवस्था सही है, न स्वास्थ्य सेवाएं सही हैं, हर सड़क टूटी हुई है। लोक कल्याण की स्कीमें झटके खाती चल रही हैं। नशे के व्यापार में कई अकाली नेताओं के नाम लिए जा रहे हैं। एक मंत्री सरवन सिंह फिल्लौर इस्तीफा दे चुके हैं। अब भी ईडी उनसे तथा सीपीएस अविनाश चंद्र से पूछताछ कर रही है।
भाजपा मंत्रिमंडल में खुद को असहज महसूस कर रही है। पंजाब में बहुत देर से यह मांग उठ रही है कि उन लोगों के लिए स्मारक बनाया जाए जो आतंकवाद के दौर में मारे गए लेकिन बादल साहिब, जिन्हें स्मारक बनाने का बहुत शौक है, इन बेकसूरों की याद में स्मारक बनाने के लिए बिलकुल तैयार नहीं। पंजाब में उस दौर में 25,000 लोग मारे गए जिनमें हिन्दू सिख दोनों थे। यह कैसी मानसिकता है कि आपने उग्रवादियों की याद में तो स्मारक बनाने की इज़ाजत तो दे दी पर आप बेकसूरों की याद में स्मारक बनाने में बिलकुल रुचि नहीं रखते?
अगर इस स्थिति में भाजपा अकालियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है तो मुझे नहीं लगता कि वह एक सीट भी हासिल कर सकेगी। भाजपा के लिए तीसरी समस्या है कि वह पंजाब में कमजोर है। एक चुनाव में उसकी सीटें 19 से गिरकर 12 रह गई थीं। अकालियों की चमचागिरी के कारण आधार खिसक चुका है। अकालियों के बिना भाजपा सत्ता का हिस्सा नहीं बन सकती पर अगर अकालियों के साथ मिलकर चलती है तो बिलकुल साफ हो जाएगी। यही धर्मसंकट है। अगर अपने को बचाना है तो (1) प्रदेश नेतृत्व में परिवर्तन चाहिए। नवजोत सिंह सिद्धू जैसे किसी प्रभावी नेता को बागडोर संभालनी चाहिए। (2) मंत्री ऐसे होने चाहिए जो अकाली दबाव में कुम्हला न जाएं। (3) दोनों पार्टियां मिलकर साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाएं लेकिन बादल परिवार इसके लिए तैयार नहीं होगा। इसलिए अगर इस सरकार की दिशा नहीं बदलती तो भाजपा को बाहर आ जाना चाहिए। आखिर में पंजाब में भाजपा के लिए शायद यही रास्ता रह गया है।
पंजाब के बद से बदतर हालात का बहुत सटीक विश्लेषण किया है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में उत्तम प्रदर्शन भाजपा के बढ़ते जनाधार का प्रतीक है
पंजाब में लगता है भाजपा के अच्छे दिन आ सकते हैं अगर वो अकाली दाल की तानाशाही के आगे झुके नहीं और लोगों की समस्यायों को लेकर आवाज़ उठाये
नवजोत सिद्धू को हरी झंडी मिली लगती है ..तभी वह आकलिओं की मुखालफत कर रहे हैं.
सत्ता का मोह त्याग …….एक बड़ी शक्ति उभरने की लिए …………लोगों की साथ जुड़ने की आवश्यकता है