इंदिरा गांधी की विरासत
31 अक्तूबर को सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती तथा इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि कुछ विवाद छोड़ गई है। सरकारी तौर पर पटेल की जयंती को धूमधाम से मनाया गया जबकि इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि की उपेक्षा कर दी गई लेकिन मेरा इस विवाद में पडऩे का मकसद नहीं है। आज मैं इंदिरा गांधी की विरासत पर लिखने जा रहा हूं। वह एक सामान्य महिला थी जो जिम्मेवारी मिलने तथा चुनौती का सामना करने के लिए असामान्य बन गईं। बचपन सुखद नहीं था। पिता जवाहरलाल अधिकतर समय जेल में या आजादी के आंदोलन में व्यस्त थे। मां या बीमार थी या बाकी नेहरू परिवार की उपेक्षा की शिकार थी। विशेषतौर पर जवाहरलालजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित से उन्हें अच्छा व्यवहार नहीं मिला जिसके लिए इंदिरा ने अपनी फूफी को कभी माफ नहीं किया और आखिर में उन्हें एक कोने में लगा दिया। इंदिरा गांधी को जिम्मेवारी बहुत जल्द मिल गई। यह तो स्पष्ट है कि जवाहरलालजी चाहते थे कि उनकी बेटी एक दिन देश की प्रधानमंत्री बने। नेहरू परिवार बहुत महत्वाकांक्षी है। मोतीलाल नेहरू ने गांधी जी पर दबाव डाल कर अपने बाद अपने पुत्र जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया था जबकि अधिकार पटेल का बनता था। जवाहरलाल भी यही परम्परा जारी रखना चाहते थे लेकिन उस वक्त इंदिरा अनुभवहीन थी इसलिए लाल बहादुर शास्त्री को उत्तराधिकारी बनाया गया ताकि बाद में इंदिरा उनकी जगह ले सके पर शास्त्रीजी की ताशकंद में मौत हो गई जिस कारण इंदिरा गांधी के कंधे पर जल्द जिम्मेदारी आ गई जिसे संभालने में उन्होंने कई गलतियां भी कीं।
शुरू में ही उन्हें ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहा गया। सिंडीकेट की तरफ से उन्हें चुनौती मिली जिसे आखिर में इंदिरा ने कुचल दिया। राष्ट्रपति पद के लिए संजीवा रेड्डी के समर्थन की घोषणा कर वह पलट गई और वीवी गिरि को राष्ट्रपति बनवा दिया। इंदिरा गांधी में यह विशेषता थी कि जब भी उन्हें चुनौती मिली उसे उन्होंने सख्ती से कुचल दिया। अकेला बचपन, पति के साथ असुखद विवाह, फिर नेहरूजी की मौत के बाद अलग-थलग, इन सब घटनाओं ने इंदिरा में असुरक्षा की भावना भर दी थी जो बार-बार प्रकट होती रही। नेहरू जी की मौत के बाद तो एक बार वह इंगलैंड में बसना चाहती थी जहां उनके दोनों बेटे पढ़ रहे थे। लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था।
इस असुरक्षा की भावना के कारण ही इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र को मसल दिया जिसकी बड़ी कीमत पार्टी आज चुका रही है। इतनी बड़ी पार्टी में उन्हें अपने दो पुत्रों के अलावा कोई नज़र नहीं आया। पहले वह संजय को आगे लाईं तो उनकी मौत के बाद राजीव को। यही प्रवृत्ति आज सोनिया गांधी दिखा रही हैं जिन्हें राहुल के सिवाय कांग्रेस पार्टी में और कोई नज़र नहीं आ रहा। इससे पार्टी की आंतरिक ऊर्जा समाप्त हो गई और आज हम देख रहे हैं कि कांग्रेस इधर उधर भटक रही है। इसी असुरक्षा की भावना के कारण इंदिरा गांधी ने बहुत से संदिग्ध लोगों को बर्दाश्त किया।
अगर आप इंदिरा गांधी के वफादार थे या चम्मचे थे तो आपका हर खून माफ था। संजय गांधी को संविधानोत्तर ताकत बनने दिया गया जिसके पास मंत्री फाइल लेकर जाते थे। इसी असुरक्षा की भावना के कारण 1975 में देश पर एमरजेंसी लाद दी गई और लगभग 21 महीने देश को कैदखाने में परिवर्तित कर दिया। संजय के हाथ देश सौंप दिया। आखिर में अचानक एमरजेंसी वापिस ले ली गई। बहुत बार यह सवाल किया गया कि इसे वापिस क्यों लिया गया वह चाहती तो कुछ साल इसे और चला सकती थी? इसका जवाब है कि इंदिरा समझ गई थी कि अब इसका दुष्प्रभाव हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी आलोचना हो रही है और पिता के सारे योगदान पर मिट्टी पड़ रही है इसलिए कदम वापिस ले लिया लेकिन शायद उन्हें भी यह एहसास नहीं था कि चुनाव में दोनों वह तथा संजय हार जाएंगे।
इंदिरा गांधी का स्वर्णिम क्षण 1971 में आया जब उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बंगलादेश बनवा दिया। उस वक्त उन्होंने अमरिका के दबाव की परवाह नहीं की। उनके राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन विशेषतौर पर ‘उस महिला’ से नफरत करते थे और उन्होंने बंगाल की खाड़ी में अपना सातवां बेड़ा भेज दिया था लेकिन इंदिरा चट्टान की तरह खड़ी रही और पूर्व पाकिस्तान में उनकी सेना को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। उनकी इस हिम्मत के कारण उनका नाम इतिहास में लिखा जाएगा। लेकिन यह सवाल जरूर उठता है कि क्या उस वक्त जब पाकिस्तान पकड़ में आया हुआ था, उसका मनोबल गिरा हुआ था तथा उसके 90,000 सैनिक हमारे कब्जे में थे, इंदिरा गांधी ने कश्मीर का मसला हल किए बिना पाकिस्तान को जाने दिया? शिमला समझौता किया गया लेकिन यह कुछ तय नहीं कर सका। भारतीय पक्ष के लोग बताते हैं कि इंदिरा तथा भुट्टो के बीच यह मौखिक तय हो गया था कि नियंत्रण रेखा को सीमा में परिवर्तित कर दिया जाएगा लेकिन क्योंकि यह मौखिक था इसलिए पाकिस्तान मुकर गया। वह समय था जब सारे भारत-पाक मसले तय किए जा सकते थे लेकिन इंदिरा भुट्टो पर मेहरबान रही।
इंदिरा गांधी के समय की एक और विवादास्पद घटना पंजाब में उग्रवाद था। यह साफ है कि कांग्रेस पार्टी ने ही अकालियों से एमरजेंसी के विरोध का बदला लेने के लिए भिंडरांवाला को खड़ा किया था। सलाह ज्ञानी जैल सिंह की थी। एक गुमनाम सिख प्रचारक भिंडरांवाला को दानव बना दिया गया। जब पंजाब में कट्टरवाद बढ़ रहा था तो केन्द्रीय सरकार मूकदर्शक बनी रही। शायद सोचा होगा कि भिंडरांवाला हमारी पैदायश है हम उसे नियंत्रण में कर लेंगे लेकिन वह नियंत्रण से बाहर चला गया और घटनाक्रम इंदिरा गांधी के हाथ से निकल गया। संभावना बन गई कि स्वर्ण मंदिर से वह खालिस्तान की स्थापना की घोषणा कर दे इस कारण ब्लू स्टार आप्रेशन करना पड़ा जिसके लिए सैनिक अधिकारी बिलकुल तैयार नहीं थे। स्वर्ण मंदिर के अंदर टैंक भेजे गए। सेना का बहुत नुकसान हुआ और सिख भड़क गए। खुद इंदिरा गांधी अपने सिख बाडीगार्ड के हाथों मारी गई। उसके बाद देशभर में सिख विरोधी दंगे हो गए और हजारों सिख मारे गए।
कहा गया है कि छोटे लोगों की गलतियों की चिंता नहीं क्योंकि इनका परिणाम भी छोटा होता है समस्या बड़े लोगों की गलतियों की है क्योंकि इनके नतीजे बड़े होते हैं। हमारे बड़े लोगों ने बड़ी गलतियां की हैं। जवाहरलाल नेहरू कश्मीर तथा चीन का मसला छोड़ गए। राजीव गांधी की बदनामी बोफोर्स के कारण हुई। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की नाकामी थी कि वह पाकिस्तान के साथ जफ्फियां डालते रहे जिस बीच कारगिल हो गया और इन्हें पता नहीं चला। 500 अफसर तथा जवान मरवाने के बाद ‘विजय दिवस’ मनाया गया। डा. मनमोहन सिंह ने अपना तथा अपनी सरकार का समर्पण 10 जनपथ के आगे कर दिया। इसी प्रकार इंदिरा गांधी को जहां बंगलादेश बनवाने के लिए याद किया जाएगा वहीं इसके लिए भी याद रखा जाएगा कि उन्होंने कांग्रेस के अंत की नींव रख दी, देश पर अनावश्यक एमरजेंसी लगा दी और पंजाब में वह घटनाक्रम शुरू कर दिया जिसका उनकी मौत के 30 वर्ष के बाद भी समापन नहीं हो रहा।