पंजाब में भी मरहम की जरूरत है
केन्द्रीय सरकार ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए दंगों के पीडि़तों को पांच-पांच लाख रुपए देने की घोषणा की है। चाहे कोई पक्का आंकड़ा नहीं है पर अनुमान है कि इन दंगों में 3225 सिख बेरहमी के साथ मारे गए थे। दो हजार से अधिक तो दिल्ली में ही मारे गए थे। कइयों को उनके परिजनों के सामने गले में टायर डाल कर जला दिया गया था। किसी तरफ से कोई मदद नहीं आई। हिंसा सरकारी व्यवस्था द्वारा करवाई गई। जिन्होंने करवाई वह बच गए क्योंकि व्यवस्था ने उन्हें सजा दिलवाने की ईमानदारी से कोशिश नहीं की। सरकार की घोषणा से दंगा पीडि़तों के जख्मों पर कुछ मरहम लगेगी। यह भी शर्म की बात है कि अधिकतर सिख देश की राजधानी में सरकार की नाक के नीचे मारे गए थे। तीन हजार से अधिक लोगों के मारे जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह लापरवाह टिप्पणी की थी कि ‘जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन में हलचल होती है।’ इस घटना की जांच के लिए कम से कम 10 जांच आयोग बैठाए गए। अंतिम नानावती आयोग ने पाया कि कानून तथा व्यवस्था कायम करने में भारी कोताही की गई। आयोग ने उपराज्यपाल तथा पुलिस कमिश्नर के कामकाज पर भी असंतोष व्यक्त किया था। जहां सरकार की ताज़ा घोषणा का स्वागत है वहां इस मामले के कुछ और पहलू भी हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। एक, 30 वर्ष गुज़र गए इस मामले में न्याय नहीं हुआ। कुछ छोटे अपराधियों को सजा दी गई है पर जो बड़े अपराधी हैं उन्हें हाथ तक नहीं लगाया गया। कांग्रेस की सरकारें तो उन्हें बचाती रही हैं पर हैरानी है कि अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने भी इस मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि यह दंगे देश की छाती में खंजर घोंपने के बराबर थे लेकिन सवाल तो यह है कि जिन्होंने खंजर घोंपा उनके खिलाफ कार्रवाई कब होगी?
दूसरा, यह इंसानी मामला है। इंसाफ से सम्बन्धित है इससे राजनीति नहीं होनी चाहिए। अभी से चर्चा है कि क्योंकि दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं इसलिए इसकी 6 प्रतिशत सिख आबादी को प्रसन्न करने का प्रयास किया जा रहा है। कई सीटों पर सिख प्रभावी हैं। दिल्ली में 2013 का चुनाव भाजपा तथा अकाली दल ने मिल कर लड़ा था। अब क्योंकि दोनों के रिश्तों में हरियाणा के चुनावों के बाद खटास आ गई है इसलिए अगर दिल्ली में फिर चुनाव होते हैं तो शायद दोनों पार्टियां इकट्ठी चुनाव न लड़ें इसलिए सिखों की हमदर्दी लेने के लिए भी यह कदम उठाया गया है। लेकिन मैं समझता हूं कि एक नज़र पंजाब के 2017 के चुनाव पर भी है। भाजपा पंजाब में अपनी जमीन तैयार कर रही है ताकि जरूरत पडऩे पर वह अकाली दल के बिना चुनाव लड़ सके। अभी तक सिखों तक भाजपा अकालियों की मार्फत पहुंचती रही है। अब रिश्तों में तनाव है। भाजपा को समझ आ रही है कि उसका कल्याण अकाली दल के साथ मिल कर चुनाव लडऩे में नहीं है। अगर 2017 में भाजपा अकेले चुनाव लड़ती है तो सिख समर्थन बहुत जरूरी होगा। इसी की कोशिश हो रही है। सिखों को अपनी तरफ करने में भाजपा कितनी सफल रहती है यह देखने की बात होगी लेकिन भाजपा उपयुक्त समय पर इस गठबंधन से निकलने की रणनीति पर जरूर चलती नज़र आ रही है।
लेकिन इस मुद्दे पर तीसरा सवाल बराबर अहम है। अगर दंगा पीडि़तों को सरकारी मदद दी जा सकती है तो पंजाब में जो 25,000 लोग आतंकवाद के दौर में मारे गए थे उनके परिवारों की मदद क्यों नहीं की जा रही? पंजाब भयानक आतंकवाद के दौर से गुजरा था जिस दौरान लोगों को बसों से निकाल कर, ट्रेनों से निकाल कर, घरों में, दुकानों में, स्कूलों में, सबके सामने गोली से उड़ा दिया गया था। कश्मीर की तरह यहां भी अल्पसंख्यकों को निकालने की साजिश तैयार की गई थी। ऐसे परिवारों को कब राहत मिलेगी? हमारे अपने वीरप्रताप के कार्यालय में पार्सल बम से दो लोग मारे गए थे। पंजाब केसरी के सम्मानित संपादक लाला जगत नारायण तथा रमेशजी मारे गए।
अब मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का कहना है कि आतंकवाद के दौर में मारे गए हिन्दुओं को भी मुआवजा मिलना चाहिए पर क्या बादल साहिब यह बतलाने की तकलीफ करेंगे कि इन 30-35 वर्षों में उन्होंने इस बावत क्या किया? कई बार वह सत्ता में आए, आज भी हैं, पर मारे गए हिन्दुओं के प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण क्यों रहा? पंजाब में आतंकवाद के पीडि़तों के प्रति अकाली या कांग्रेस सभी सरकारें अजब एमनीशिया अर्थात् स्मृतिहीनता दिखाती रही हैं कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं था लेकिन जो उससे गुजरे हैं वह लोग तो उस दौर को नहीं भूले। यह भी देश की छाती में बड़ा खंजर घोंपने से कम नहीं था। केन्द्र सरकार भी ऐसे लोगों की शहादत को मान्यता क्यों न दे क्योंकि पंजाब सरकार तो यह करेगी नहीं। उनके प्रति संवेदना व्यक्त क्यों नहीं की जाती? पंजाब में यह एक काला अध्याय था जो आंखें मूंदने से अदृश्य नहीं हो जाएगा। बादल सरकार से कोई आशा नहीं। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल तथा उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब में 1984 के दंगों में मारे गए सिखों की याद में बनाए जाने वाले स्मारक की नींव रखी है। अच्छी बात है। ऐसा स्मारक बनना चाहिए पर यही बादल साहिब पंजाब में आतंकवाद के दौरान मारे गए बेकसूर लोगों की याद में स्मारक बनाने के लिए बात ही सुनने को तैयार नहीं। स्वर्ण मंदिर में भिंडरांवाला का स्मारक तो उन्हें स्वीकार है लेकिन न बेकसूरों की याद में स्मारक बनाया जाएगा न ही उन्हें मुआवजा दिया जाएगा इसलिए इस मामले में केन्द्रीय सरकार तथा भारतीय जनता पार्टी को दखल देना चाहिए। केन्द्र सरकार को तत्काल आतंकवाद के दौर में पंजाब में मारे गए लोगों की सहायता की घोषणा करनी चाहिए और अगर अकाली नेतृत्व दिलचस्पी नहीं दिखाता तो बेकसूरों की याद में स्मारक बनाने का बीड़ा पंजाब भाजपा को उठाना चाहिए। पंजाब भाजपा को समझना चाहिए कि अकर्मण्यता और निठल्लेपन के कारण वह भी कटघरे में है। अगर उसने सही प्रायश्चित करना है तो यह मांग मंत्रिमंडल में उठानी चाहिए। और अगर इस पीढ़ादायक अध्याय का समापन होना है तो केवल दिल्ली में ही नहीं, पंजाब में भी इसका समापन होना चाहिए। मरहम लगाने की जरूरत केवल पंजाब के बाहर ही नहीं है मरहम लगाने की बराबर जरूरत पंजाब में भी है।
क्योंकि यहां के बेकसूर भी कह रहे हैं,
जब लिखो तारीख गुलशन की हमें भी याद कर लेना
कि हमने भी लुटाया है गुलिस्तान के लिए आशियां अपना।
पंजाब में भी मरहम की जरूरत है ,