अगर नेहरू न होते?
हम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती मना कर हटे हैं पर अफसोस है कि जैसा अकसर इस देश में होता है, मामला विवादों में फंस गया है। कांग्रेस पार्टी दो दिन का जो आयोजन कर रही है उसमें कुछ नेताओं को बुलाया गया है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निमंत्रण नहीं दिया गया। ऐसा कर कांग्रेस का नेतृत्व (सोनिया परिवार) अनावश्यक चिड़चिड़ापन तथा अहंकार प्रकट कर रहा है। जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे केवल कांग्रेस पार्टी के नहीं इसी तरह नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं केवल भाजपा के नहीं। कांग्रेस पार्टी तुच्छ राजनीति कर रही है।
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल वह तीन नेता थे जिन्होंने मिल कर आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया और देश को आजाद करवाया। दुर्भाग्यपूर्ण इन नेताओं की विरासत पर अपना-अपना हक जमाने का प्रयास हो रहा है। भाजपा, विशेषतौर पर नरेन्द्र मोदी सरकार पटेल की विरासत को उभारने की कोशिश कर रही है तथा नेहरू को उतना महत्व नहीं दिया जा रहा दूसरी तरफ दशकों पटेल की उपेक्षा करने के बाद कांग्रेस को अचानक याद आ गया कि वह ‘कांग्रेसी’ थे। सच्चाई यह है कि दोनों नेहरू तथा पटेल का इस कांग्रेस के साथ कोई रिश्ता नहीं जो इंदिरा गांधी के समय तथा उनके बाद यह संस्था बन गई है।
राष्ट्रीय ‘आईकॉन’ पूरे देश के हैं। नेहरू के 125वें जन्मदिवस पर प्रचार तथा पूर्वाग्रहों से दूर रह कर उस व्यक्ति के योगदान को याद करने की जरूरत है जिनकी शानदार उपलब्धियां थीं पर जिन्होंने साथ विशाल गलतियां भी की थीं जिसकी देश को आज तक कीमत चुकानी पड़ रही है। लेकिन कौन सा ऐसा नेता है जिसकी गलतियां नहीं रहीं? अगर उनके योगदान का आंकलन करना है तो खुद से पहला यह सवाल करना होगा कि अगर जवाहरलाल नेहरू न होते तो देश की हालत क्या होती?
देश जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से जुड़ा नहीं रह सकता। इसमें कोई शक नहीं कि नेहरू और पटेल में कई मामलों में गंभीर मतभेद थे जिनका विस्फोट होता रहता था, पर देश हित में दोनों कंधे से कंधा मिला कर चलते रहे। मतभेदों के बावजूद एक दूसरे का पूरा सम्मान किया। दोनों किस तरह राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानते थे यह गांधीजी की हत्या के बाद स्पष्ट हो गया जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पटेल को पत्र लिख उस संकट की घड़ी में उनसे सहयोग मांगा। नेहरू ने लिखा, ‘बापू की मौत के बाद सब कुछ बदल गया है…मुझे आपके तथा मेरे बारे उड़ रही अफवाहों से बहुत कष्ट पहुंचा है। हमारे बीच जो कुछ मतभेद हैं उन्हें बहुत बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया है…हमें इस शरारत को तत्काल खत्म करना है।’ इस पत्र का पटेल ने बराबर सद्भावना के साथ जवाब दिया, ‘हम दोनों एक लक्ष्य के लिए जीवनभर साथी रहें हैं। हमारे देश का परम हित तथा हमारा आपसी प्रेम तथा सम्मान उन मतभेदों से बहुत ऊपर है जो नजरिए तथा स्वभाव को लेकर हमारे बीच रहे हैं…।’ इस पत्र से एक दिन पहले कांग्रेस पार्टी को सम्बोधित करते हुए पटेल ने नेहरू के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की और पहली बार उन्हें ‘मेरा नेता’ कह सम्बोधित किया।
गांधी ने नेहरू को बताया था कि किसी प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नाम नहीं रखा इसके बावजूद गांधी ने पटेल को दौड़ से हटने के लिए कहा जिसके लिए पटेल तत्काल तैयार हो गए। पटेल की जीवनी में राजमोहन गांधी ने लिखा है, ‘यह कुछ नया नहीं था। पटेल 1929 में पीछे हट गए थे…1939…।’ आज का कोई नेता होता तो विद्रोह कर जाता जैसे नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने भी किया था पर पटेल शांत रहे तथा राष्ट्रीय हित के लिए अपनी महत्वाकांक्षा की कुर्बानी दे दी। राजेन्द्र प्रसाद जैसे बहुत लोगों ने शिकायत की थी कि ‘‘गांधी ने एक बार फिर अपने वफादार साथी की ‘ग्लैमरस नेहरू’ के लिए कुर्बानी दे दी।’’
गांधी ने अपना वारिस पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना जबकि पटेल उनके अधिक नजदीक थे तथा गांधी जानते थे कि कांग्रेस पार्टी नेहरू को नहीं पटेल को नेता चाहती है? यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का बहुत दिलचस्प अध्याय है। 15 जनवरी 1942 के कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की थी, ‘पंडित जवाहरलाल तथा मेरे बीच उस समय से कई मतभेद हैं जबसे हमने एक साथ काम करना शुरू किया है इसके बावजूद मैं कई वर्षों से कहता आ रहा हूं और आज भी कह रहा हूं कि न राजाजी, न सरदार वल्लभभाई पर जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे… जब मैं नहीं रहूंगा तो वह मेरी भाषा बोलेंगे।’ गांधीजी न केवल नेहरू को अपना वारिस घोषित कर रहे थे पर साथ ही पटेल तथा राजाजी का नाम लेकर उन्हें रद्द भी कर रहे थे। गांधी को पटेल के महत्व का एहसास था फिर उन्होंने ‘ग्लैमरस’ नेहरू को क्यों चुना? एक बड़ा कारण था कि पटेल मुसलमानों में कम लोकप्रिय थे। युवा तथा वामपंथी भी नेहरू की तरफ आकर्षित थे। पटेल नेहरू से 14 वर्ष बड़े थे तथा उनकी सेहत भी अच्छी नहीं थी। पटेल राष्ट्रीय हित में चुपचाप बर्दाश्त भी कर गए। जो जिम्मेवारी उन्हें मिली उसे उन्होंने बढिय़ा ढंग से निभाया और जैसे इतिहास गवाह है जवाहरलाल नेहरू से बेहतर निभाया। गांधी जी के निर्णय के बारे बाद में भी सी. राजगोपालाचारी का कहना था, ‘यह बेहतर होता कि नेहरू को विदेश मंत्री बना दिया जाता और पटेल को प्रधानमंत्री।’
राजमोहन गांधी की किताब ‘पटेल-ए लाईफ’ इस जटिल रिश्ते पर कुछ प्रकाश डालती है, ‘‘गांधी-वल्लभभाई रिश्ता भी भावना के बिना नहीं था लेकिन यह गांधी-नेहरू रिश्ते से गुणात्मक अलग था।’’ यह किशोर मशरुवाला के शब्दों में सही व्यक्त होता है, ‘मैं गांधी-पटेल रिश्ते को भाइयों का रिश्ता कहूंगा जिसमें गांधी ज्येष्ठ भाई थे पर गांधी-नेहरू रिश्ता एक बाप और बेटे का रिश्ता था।’ इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ जैसे राजमोहन गांधी ने भी लिखा है, ‘छोटा भाई राजाधिकारी तो बन सकता है पर पुत्र ही उत्तराधिकारी बनता है।’ तीनों की आयु ने भी इस रिश्ते को तय किया था। जवाहरलाल सबसे युवा थे। गांधीजी की हत्या 1948 में हो गई थी। पटेल दो साल बाद 1950 में चले गए। जवाहरलाल उनके जाने के 14 वर्ष बाद 1964 तक रहे।
आजादी हासिल करने के तीन वर्षों में गांधी तथा पटेल के प्रस्थान से देश तथा नेहरू का नुकसान हुआ क्योंकि अब उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद या सी. राजगोपालाचारी जैसे दूसरे बड़े नेता थे लेकिन कोई नेहरू के बराबर नहीं था। रियासतों को भारत संघ में मिलाने की जिम्मेवारी पटेल की थी जो उन्होंने बखूबी निभाई। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में सही कहा था, ‘आज अगर एक भारत है जिसके बारे हम सोच या बात कर सकते हैं तो यह सरदार पटेल के नेतृत्व तथा सख्त प्रशासन के कारण है।’ एक रियासत जम्मू कश्मीर, का विलय जवाहरलाल नेहरू ने खुद अपने पास रख लिया था यह ही आज तक हल नहीं हुआ। पंचशील के साथ चीन के साथ दोस्ती का प्रयास किया और 1962 में चीन से वह मार खाई जिसे आज तक हम नहीं भूले। जवाहरलाल नेहरू ने देश के अंदर वंशवाद की नींव भी रखी। वास्तव में यह शुरुआत तो मोतीलाल नेहरू ने की थी जिन्होंने गांधीजी पर दबाव डाल पटेल को एक तरफ कर 1929 में लाहौर अधिवेशन में युवा नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री को अपना उत्तराधिकारी जरूर बनाया पर याद रखना चाहिए कि 1959 में नौसिखिया इंदिरा गांधी को उन्होंने पार्टी अध्यक्ष बना कर अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था कि आगे वह क्या चाहते हैं। नेहरू-गांधी में परिवार के प्रति इस लगाव की देश ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है।
नेहरू ने 17 वर्ष शासन किया पर उनकी हर कमजोरी/असफलता/गलती पर उनका एक योगदान भारी पड़ता है। उन्होंने देश को विभाजन की त्रासदी के बाद संभाला और भविष्य की नींव रखी। कल्पना कीजिए 1947 के वह दिन जब 2 लाख लोग मारे गए। 50 लाख हिन्दू-सिख रिफ्यूजी उधर से इधर आए और इतनी ही संख्या में इधर से उधर मुसलमान गए। खुली मार-काट हुई। उस रक्त रंजित आजादी को अगर कोई संभाल गया तो वह जवाहरलाल नेहरू ही थे। अगर हम भारत की तुलना उन देशों के साथ करें जो उस अवधि में आजाद हुए तो नेहरू का योगदान स्पष्ट हो जाता है। पाकिस्तान बर्बाद हो चुका है। चीन में माओ त्सी तुंग ने अपनी तानाशाही चलाई और लाखों लोग मारे गए। युगोस्लाविया, मिस्र, श्रीलंका, इंडोनेशिया, घाना, म्यांमार जैसे देश भटक गए। अगर भारत पाकिस्तान नहीं बना और आज दुनिया के प्रमुख देशों की कतार में अपना स्थान प्राप्त कर रहा है तो बहुत श्रेय जवाहरलाल नेहरू को जाता है जिन्होंने शुरू में सही नींव रखी थी। इसलिए चाहे उन्होंने विशाल गलतियां भी कीं पर उनकी 125वीं जयंती पर सोचने का यह समय जरूर है कि अगर नेहरू न होते तो भारत का क्या बनता?