इंडिया इज़ बैक!
इतिहासकार रामचंद्र गुहा को नरेन्द्र मोदी में जवाहरलाल नेहरू की झलक नज़र आती है। वह लिखते हैं, ‘‘वह नेहरू जैकेट पहनते हैं, अपने कार्यालय में नेहरू की तस्वीर लगाते हैं और विदेश नीति पर नेहरू की तरह ही प्रत्यक्ष नियंत्रण रखते हैं।’’ यह तीनों बातें सही हैं। जवाहरलाल नेहरू की ही तरह नरेन्द्र मोदी अपने विदेश मंत्री भी हैं। लेकिन मोदी नेहरू नहीं हैं। नेहरू सिद्धांतों से जुड़े थे, मोदी व्यवहारिक हैं। मोदी नेहरू हो ही नहीं सकते क्योंकि दोनों की परिस्थिति भी अलग है। जवाहरलाल नेहरू के समय दुनिया दो हिस्सों में बंटी हुई थी इसलिए इस पचड़े में पडऩे की जगह नेहरू ने गुटनिरपेक्षता को अपना सिद्धांत बना लिया था। 1962 में चीन के आक्रमण के बाद कुछ देर के लिए वह डोल गए थे जब उन्होंने अमेरिका से मदद की गुहार की थी लेकिन जल्द ही संभलते हुए वापिस गुटनिरपेक्षता पर लौट आए। आजकल एक ही गुट रह गया है रूस का पुराना रुतबा नहीं रहा। नरेन्द्र मोदी के सामने अलग चुनौती है। (1) उन्हें दुनिया के मंच पर भारत को फिर स्थापित करना है। (2) देश में विदेशी निवेश लाना है तथा (3) भारत की व्यापक सुरक्षा का इंतज़ाम करना है।
जहां तक पहला लक्ष्य है इसमें भारी सफलता मिली है। प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व के कारण भारत एक बार फिर विश्व मंच पर अपने को स्थापित करने में सफल रहा है जो विदेशी अखबारों की टिप्पणियों से भी पता चलता है। सिडनी मार्निंग हैराल्ड का कहना है कि आस्ट्रेलिया की संसद सम्मोहित हो गई। लंदन के गार्डियन ने लिखा है कि मोदी जी-20 शिखर सम्मेलन में एक राजनीतिक रॉकस्टार की तरह पहुंचे। ‘सबसे बड़े लोकतंत्र के नए प्रधानमंत्री के रूप में इस 64 साल के व्यक्ति में कुछ ऐसा था जिसकी दूसरे नेतागण सप्ताह भर कामना करते रहे।’ एक और अखबार ने मोदी को ABSOLUTELY FANTASTIC (सर्वथा अद्भुत) लिखा है और कहा है कि मोदी का वह स्वागत हुआ है जैसे ओबामा चाहते होंगे। ठीक है कुछ इवेंट मैनेजमैंट भी है। प्रवासी भारतीयों, विशेष तौर पर गुजराती लॉबी का भरसक समर्थन था लेकिन इवेंट मैनेजमैंट भी तभी सफल होती है जब बंदे में कुछ दम हो। आप कितनी भी इवेंट मैनेजमैंट कर लें डा. मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व रूखा ही रहेगा। घोटालों ने पिछली सरकार को ठप्प कर दिया इसलिए बहुत जरूरी था कि दुनिया को यह संदेश जाए कि इंडिया इज़ बैक। हम एक नई शुरुआत कर रहे हैं। इसके लिए नई विदेश नीति की भी जरूरत है और ऐसा वह प्रधानमंत्री ही कर सकता है जो मज़बूत हो तथा जिसमें भारत की सुस्त व्यवस्था को बदलने का दम हो। बराक ओबामा ने उन्हें ‘मैन आफ एक्शन’ अकारण नहीं कहा।
देश के हित में प्रधानमंत्री मोदी कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं यह इस बात से पता चलता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 66वें गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि होंगे। भारत तथा अमेरिका के रिश्तों में पिछले कुछ वर्षों में जो सुस्ती आई थी वह खत्म हो रही है। भारत तथा अमेरिका दोनों को आतंकवाद तथा चीन का उभार परेशान कर रहा है। भारत में भी अनावश्यक अमेरिका विरोध के अंत की यह शुरुआत है। इस प्रकार मोदी ने नेहरू की नीति से अलग होते हुए स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वह पश्चिमी ब्लाक जिसमें जापान तथा आस्ट्रेलिया भी शामिल हैं, से घनिष्ठ रिश्ता चाहते हैं। भारत की सामरिक तथा आर्थिक जरूरत भी यही है। ओबामा के दोबारा भारत आने से दुनियाभर को सही संदेश जाएगा। जर्मनी, आस्ट्रेलिया या जापान जैसे देशों से बेहतर सम्बन्ध करने में और आसानी आएगी, निवेशक का भरोसा बढ़ेगा तथा चीन और पाकिस्तान को भी सही मैसेज पहुंच जाएगा।
1972 में गतिरोध तोड़ते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन चीन गए थे। उस यात्रा की घोषणा से दुनिया हक्की बक्की रह गई थी क्योंकि निक्सन को कम्युनिस्ट विरोधी समझा जाता था। ओबामा की भारत यात्रा भी उसी तरह अप्रत्याशित और नाटकीय है। अपनी अंतिम अवधि में प्रवेश कर गए ओबामा भी भारत के साथ बेहतर रिश्तों की विरासत छोडऩा चाहते हैं। मौसम, परमाणु समझौते, अमेरिका की आव्रजन नीति, भारत के आर्थिक कानून बहुत कुछ ऐसा है जिस पर दोनों देशों में मतभेद हैं लेकिन अगर दोनों राष्ट्राध्यक्ष तय कर लें तो यह मतभेद धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे।
जहां तक निवेश लाने का सवाल है इसके लिए अभी इंतज़ार करना होगा। जापान ने पांच वर्ष में 35 अरब डालर के निवेश का वायदा किया था लेकिन अब जापान खुद मंदी से ग्रस्त है। चीन ने भी वायदा किया है लेकिन उनका साथ रिश्ते अनिश्चित हैं। प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ का खुला न्यौता दिया है लेकिन यह बहुत कुछ हम पर निर्भर करता है कि हम खुद को निवेशक के लिए कितना आकर्षक बनाते हैं। भ्रष्टाचार, सुस्त रफ्तार तथा लालफीताशाही सब पर नियंत्रण चाहिए। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकार के कामकाज़ में बेहतरी शुरू हो गई है पर कई कानून बदलने होंगे। 15750 करोड़ रुपए के 814 आरटिलिरी गन (तोपों) की खरीद को मंजूरी देकर संदेश दे दिया गया है कि देश हित में पुराने पूर्वाग्रहों को रुकावट बनने नहीं दिया जाएगा। पिछली सरकारें तो बोफोर्स घोटाले के कारण इस तोप को हाथ लगाने से घबराती थीं।
विश्व मंच पर चीन के उभार तथा लगभग महाशक्ति के उसके स्तर ने भारत के नेतृत्व के आगे गंभीर सुरक्षा चुनौती खड़ी कर दी है। पिछले कुछ वर्षों से भारत पूर्वी एशिया में अपना सम्पर्क बढ़ा रहा है लेकिन अभी भी वह अपनी क्षमता तक नहीं पहुंचा। मोदी से पहले प्रधानमंत्री चीन की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए कम सक्रिय रहे हैं। एक प्रकार से प्रयास था कि चीन को उत्तेजित मत करो लेकिन जापान की यात्रा कर, वियतनाम से सुरक्षा सहयोग बढ़ा, आस्ट्रेलिया से सामरिक रिश्ता कायम कर नरेन्द्र मोदी की सरकार वहां तक जा पहुंची है जहां पहले कोई भारतीय सरकार नहीं गई थी। लेकिन आखिर में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम विदेशियों में यह विश्वास भरने में कितने सफल रहते हैं कि भारत बदल रहा है? अगर देश बदलना है तो प्रादेशिक नेतृत्व भी उसके अनुसार चाहिए। विदेशी बग्गी में सवारी करने वाले मुलायम सिंह यादव का उत्तर प्रदेश 20 करोड़ लोगों का है। वह कब बदलेगा? बिहार तथा पश्चिम बंगाल को साथ मिला कर यहां देश की 30 प्रतिशत जनसंख्या वास करती है। यहां की राजनीति अभी भी जाति पर आधारित है या ममता बैनर्जी है जो अपने पर तथा अपने प्रशासन पर नियंत्रण खो रही है। जब तक ऐसे प्रदेश नहीं सुधरते देश तरक्की नहीं कर सकता। बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से बाकी प्रदेशों में पहुंच रही प्रवासी लहरें बताती हैं कि असली चुनौती कहां है। बहरहाल विदेशों में प्रधानमंत्री मोदी का नाम शिखर पर पहुंच रहा है। इसलिए चाहे विपक्ष उन्हें पर्यटक प्रधानमंत्री कह रहा है, सरकार चाहे कई ‘यू टर्न’ ले, वह दूसरे नेहरू हैं या नहीं, पर 125 करोड़ भारतीयों की उम्मीदें अब मोदी के कंधों पर सवार हैं।