कांग्रेस के चेहरे की धूल
जम्मू कश्मीर तथा झारखंड के नतीजों के बाद कांग्रेस में दहशत फैल गई है। पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है और कोई इसे संभालने वाला नज़र नहीं आता दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बुलंदियों पर है जिसे देख कर कांग्रेस के मायूस कार्यकर्ता कह सकते हैं,
एक वह हैं जिन्हें तस्वीर बना आती है
एक हम हैं लिए अपनी ही सूरत को बिगाड़।
पार्टी कार्यकर्ता सोनिया गांधी से गुहार कर रहे हैं कि ‘मैडम कुछ करो’ और हर हार के बाद राहुल गांधी उसकी जांच के लिए कमेटी बैठाने का ऐलान कर देते हैं। मैं समझता हूं कि कमेटी बैठाने की तो जरूरत ही नहीं राहुल गांधी अगर आइना देख लें तो सब समझ आ जाएगा। वह ही तो कांग्रेस की समस्या हैं। जब से उन्हें नेतृत्व संभाला गया है पार्टी का रिवर्स गियर लग गया है। जम्मू कश्मीर तथा झारखंड दोनों में कांग्रेस चौथे नम्बर पर आई है। यह भी उल्लेखनीय है कि झारखंड में राहुल गांधी ने 8 जगह सभाओं को सम्बोधित किया था पार्टी 7 जगह हार गई। 2014 विशेष तौर पर दुर्दशा का साल रहा है। पिछले 14 महीने में कांग्रेस ने 12 राज्यों में चुनाव हारे हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली, सिक्किम, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर और झारखंड। अब कांग्रेस के पास केवल 9 राज्य बचे हैं। कर्नाटक को छोड़ कर एक भी बड़ा प्रदेश नहीं रहा। इससे पहले पार्टी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से बाहर निकल चुकी है। यहां भी राहुल गांधी ने जोर-शोर से प्रचार किया था। कहा जा रहा है कि एक समय भाजपा भी तो 2 सीटों पर गिर गई थी पर भाजपा के पास अटल-आडवाणी थे। कभी हैं-कभी नहीं, राहुल गांधी कांग्रेस के अटल-आडवाणी नहीं बन सकते। न ही हाथी पर सवार बेलची पहुंची इंदिरा गांधी से ही उन्होंने कुछ सीखा है। एक प्रदेश है जहां कांग्रेस में दम है वह है पंजाब। अकाली-भाजपा गठबंधन बदनाम हो रहा है पर यहां कांग्रेस पार्टी के विधायक दल के नेता सुनील जाखड़ खुलेआम शिकायत कर चुके हैं कि हाईकमान उनकी पहुंच से बाहर है। और अमरेंद्र सिंह बगावत के मुहाने पर खड़े हैं।
2015 में बिहार, 2016 में पश्चिम बंगाल तथा 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं। यहां कांग्रेस पूरी तरह से हाशिए पर धकेल दी गई है। जब शिकायत होती है तो राहुल को बचाने के लिए सोनिया गांधी खुद पर सारा दोष लेकर इस्तीफे की पेशकश कर देती हैं। जो जांच कमेटियां बैठाई गईं उन्होंने राहुल गांधी के पिटे नेतृत्व के सिवाय बाकी सबको दोषी ठहरा दिया। बताया जाता है कि राहुल गांधी का मिशन 2019 है। अगले आम चुनाव में वह जोर-शोर से मैदान में कूदेंगे लेकिन तब तक बचेगा क्या? दिल्ली में भी कौन बचाएगा? और चाहे आपने 2019 को निशाना बनाना है तो भी 2014 में आपकी लोकसभा की कार्रवाई में इतनी अरुचि क्यों है कि आपको नींद आ जाए? कांग्रेस के 130वें स्थापना दिवस पर फिर राहुल गायब रहे। दिलचस्पी ही नहीं है। वह यह भी समझते हैं कि वह किसी को जवाबदेह नहीं हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। नरेन्द्र मोदी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था। यह सही साबित हो रहा है जो जरूरी नहीं कि अच्छी बात है क्योंकि प्रमुख विपक्षी पार्टी का इस तरह मटियामेट होना लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं हो सकती। दिल्ली के चुनाव में भी टक्कर भाजपा तथा आप में होगी। पी. चिदम्बरम कह चुके हैं कि पार्टी का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर हो सकता है। चिदम्बरम का बयान इसलिए मायने रखता है क्योंकि जुलाई में कांग्रेस के नए अध्यक्ष का चुनाव होना है। दिग्विजय सिंह का कहना है कि कांग्रेस में आम राय है कि पार्टी ने हमेशा युवा नेतृत्व को प्रोत्साहित किया है इसलिए समय आ गया है कि राहुल को पार्टी संभाल दी जाए। जहां तक पार्टी में ‘आम राय’ का सवाल है वह तो राहुल गांधी से छुटकारा चाहती है और जहां तक ‘युवा नेतृत्व’ का सवाल है पार्टी के अंदर और भी प्रतिभाशाली लोग हैं लेकिन उन्हें मौका नहीं मिलेगा। सोनिया गांधी इस बात पर बाजिद्द हैं कि उनका बेटा ही उनका उत्तराधिकारी होगा चाहे पार्टी का कुछ न बचे। राहुल सौभाग्यशाली भी हैं कि जितनी बड़ी पराजय है उतना बड़ा उनके पद में इजाफा होता है। जयपुर अधिवेशन में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाना इसका प्रमाण है अब जून-जुलाई में जब सोनिया गांधी पद छोड़ेंगी तो उन्हें पार्टी अध्यक्ष बना दिया जाएगा। जब राजीव सातव को फरवरी 2010 में यूथ कांग्रेस का प्रधान बनाया गया था तब राहुल गांधी ने कहा था कि यूथ कांग्रेस का अगला प्रधान निर्वाचित होगा, मनोनीत नहीं होगा लेकिन अब फिर पंजाब के अमरेन्द्र सिंह बडि़ंग को यूथ कांग्रेस का प्रधान बना दिया गया है। कोई चुनाव नहीं हुआ केवल सोनिया गांधी का फरमान आया है। अर्थात् जितना पार्टी के बदलने की जरूरत है उतना वह बदलने से इन्कार कर रही है। कांग्रेस का एक वर्ग हकीकत से आंखें मूंदे हुए है। जो असली कमजोरी है गांधी परिवार, उसे स्वीकार करने को ही तैयार नहीं जिसके बारे कहा जा सकता है,
ता उम्र इक ही गलती करते रहे
धूल थी चेहरे पर और आइना साफ करते रहे!
और नहीं, प्रियंका कांग्रेस की समस्या का इलाज नहीं है।
यह कहा जा रहा है कि प्रियंका में इंदिरा गांधी की झलक है लेकिन प्रियंका की अभी तक राजनीतिक परीक्षा नहीं हुई है। हो सकता है कि वह अपने भाई की तरह ही ‘अशक्त मिसाइल’ साबित हों लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि उन्हें अपने पति राबर्ट वाड्रा तथा उनके कारनामों का बोझ उठाना पड़ रहा है। किस प्रकार कुछ विशेषाधिकार प्राप्त परिवार यहां शोषण करते रहे हैं उसकी राबर्ट मिसाल बन गया है। प्रियंका को ताउम्र यह सलीब उठानी पड़ेगी। पार्टी को अपनी विचारधारा पर भी गौर करना चाहिए। सोनिया गांधी के नेतृत्व में इतना अधिक कथित सैक्युलरवाद का ढिंढोरा पीटा गया कि हिन्दू नाराज हो गए हैं। धर्मांतरण के मामले में कांग्रेस चुप क्यों है? क्यों नहीं इसका खुला विरोध करती? जम्मू कश्मीर में कांग्रेस के पास एक भी हिन्दू विधायक नहीं है। पार्टी की छवि हिन्दू विरोधी क्यों बन गई है?
पार्टी के कार्यकर्ता बदलाव के लिए दिल्ली की तरफ देखते हैं पर सोनिया गांधी बीमार चल रही हैं और राहुल दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। ऐसा आभास मिलता है कि मां उन्हें जबरदस्ती राजनीति में धकेल रही हैं। कहीं राहुल का हश्र भी चाचा केसरी जैसा न हो जाएं! लेकिन इस वक्त तो हताश, निराश तथा खोए हुए कांग्रेस के कार्यकर्ता शिकायत कर सकते हैं,
किस रहनुमा से पूछिए मंंजिल का कुछ पता
हम जिससे पूछते हैं उसे खुद पता नहीं!