दिल्ली के बंटी और बबली
एमरजेंसी के बाद चुनाव में इंदिरा गांधी तथा कांग्रेस का साथ छोड़ जनता पार्टी में आए बाबू जगजीवन राम से मैं जालन्धर के सर्कट हाउस में मिला था। उनकी कलाबाजी के बारे पूछा तो जवाब मिला, ‘बेटा, यह राजनीति है, धर्म नीति नहीं।’ अब जबकि किरण बेदी दिल्ली में भाजपा की सीएम पद की उम्मीदवार घोषित कर दी गई है, बाबूजी के यह शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं। किरण बेदी ने मार्च 2013 में गुजरात दंगों को लेकर नरेन्द्र मोदी की आलोचना की थी, वही अब दो बरस के बीच उनके ‘प्रेरणादायक नेतृत्व’ की तारीफ कर रही हैं और उन्हें दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा करार दे रही हैं। इसके बावजूद किरण बेदी का भाजपा में शामिल होने से खेल बदल जाएगा। भाजपा को अनेक फायदे होंगे। एक, दिल्ली में पार्टी को एक चेहरा मिल गया। केजरीवाल कटाक्ष करते रहे कि भाजपा के पास दिल्ली के लिए कौन सा चेहरा है, आखिर नरेन्द्र मोदी तो मुख्यमंत्री बन नहीं सकते? उन्हें जवाब दे दिया गया कि यह है हमारा चेहरा। दिल्ली भाजपा में लीडरशिप का शून्य भी खत्म हुआ। दूसरा, भाजपा को घबराहट थी कि केजरीवाल उनके स्थानीय नेताओं पर कीचड़ उछालने का अभियान शुरू करने वाले हैं। सतीश उपाध्याय को उन्होंने घेर ही लिया था। वैसे केजरीवाल इस काम में माहिर भी हैं। उन्हें आरोप लगाना आता है, उन्हें प्रमाणित करने में उनका विश्वास नहीं। पिछले चुनाव से पहले शीला दीक्षित पर लगाए 300 पन्ने के आरोप पत्र का क्या बना? पर किरण बेदी के खिलाफ वह ऐसा नहीं कर सकेंगे। तीसरा, किरण बेदी का काम करने का रिकार्ड है। वह खुद कह रही हैं कि काम करना और करवाना आता है। केजरीवाल जो 49 दिन के बाद सरकार छोड़ कर चले गए थे की तुलना किरण बेदी के काम से की जाएगी और यहां केजरीवाल कमजोर रहेंगे। चौथा, किरण बेदी के प्रवेश के बाद ‘आप’ को सारी राजनीति बदलनी पड़ेगी। अब जगदीश मुक्खी या सतीश उपाध्याय या विजय गोयल जैसे चले हुए कारतूसों से मुकाबला नहीं है। किरण बराबर तेज तर्रार हैं। पांचवां, किरण बेदी के आने के बाद महिला वोटर तथा मिडल क्लास भाजपा की तरफ आकर्षित होगी। 2013 में भारी संख्या में महिला वोटर ने ‘आप’ का समर्थन किया था। दिल्ली में महिला सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा भी है। यहां किरण बेदी की ‘काम किया है और करवाना आता है’ की छवि का पार्टी को फायदा होगा। छठा, अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर प्रचार का बोझ कम होगा नहीं तो आलोचना हो रही थी कि केजरीवाल जैसे छुटभैया के सामने नरेन्द्र मोदी को उतार कर भाजपा उनकी शख्सियत का अवमूल्यन कर रही है और अपने तुरूप के पत्ते का जरूरत से अधिक इस्तेमाल कर रही है। रामलीला ग्राऊंड में प्रधानमंत्री की रैली में उपस्थिति उम्मीद से कम रही थी। सातवां, प्रधानमंत्री के सुशासन, विकास तथा भ्रष्टाचार को खत्म करने के वायदे को किरण पूरा करने की क्षमता रखती हैं। वह अच्छी सीएम बन सकती है। दिल्ली को विश्व स्तर की ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने का वायदा भी किरण बेदी के नेतृत्व में पूरा किया जा सकता है। आठवां फायदा होगा कि किरण बेदी की विश्वसनीयता है जो केजरीवाल की नहीं है। केजरीवाल की तरह वह भगौड़ा कभी नहीं रहीं। दायित्व से भागी नहीं। नौवां, इससे दिल्ली भाजपा की अंदरूनी लड़ाई थम जाएगी। किरण बेदी की शख्सियत के बराबर और कोई नेता नहीं है पर यह भाजपा की अच्छी तस्वीर पेश नहीं करती कि जिस दिल्ली में कभी उसकी सरकारें रही हैं वहीं पार्टी के पास कोई अपना नेता नहीं है और बाहर से लीडर आयात की जा रही है। इसको लेकर कुछ असंतोष देखने को मिल ही रहा है पर सबसे महत्वपूर्ण दसवां फायदा है कि किरण बेदी हर अच्छे बुरे मामले में केजरीवाल की बराबरी करती हैं। दोनों बराबर अवसरवादी हैं। बरसाती मेंढक हैं। दोनों को सत्ता की हवस है। दोनों अब जनलोकपाल की बात नहीं करते। अपने हित के सिवाय और कोई सिद्धांत नहीं। यह एक सूत्रीय कार्यक्रम है। भाजपा के लिए भी किरण बेदी को संभालना आसान नहीं होगा। दोनों को मैग्सैसे सम्मान मिला है। दोनों अन्ना हजारे के नेतृत्व में इंडिया अगेंस्ट क्रप्शन के सदस्य रहे हैं। 2011 में दोनों ने रामलीला ग्राऊंड की स्टेज पर झंडे फहराए। दोनों में यह भी समानता है कि दोनों ने अन्ना का इस्तेमाल किया और उन्हें छोड़ दिया। अन्ना भी अब ठंडे पड़ गए हैं लेकिन उनकी यह संतान राजनीति में खूब गर्म हो रही है। बेहतर होता वह राहुल गांधी को चेला बनाते। दोनों बैठ कर इतमिनान से चिन्तन करते रहते! बेदी और केजरीवाल दोनों ही कसमें खाते रहे हैं कि वह राजनीति में नहीं जाएंगे लेकिन आज दोनों ही राजनीति के मयखाने में हैं। दोनों ही विवादास्पद भी रहे हैं। लडऩा, झगडऩा, भिडऩा आता है लेकिन दोनों में सबसे दिलचस्प समानता है कि दोनों सपने बेच सकते हैं। फिल्म की कहानी की तरह ताजमहल बेचने की दोनों में क्षमता है। दिल्ली के इस बंटी तथा बबली के बीच दौड़ दिलचस्प रहेगी।
भाजपा दिल्ली का चुनाव हारने का जोखिम नहीं ले सकती क्योंकि इससे प्रधानमंत्री की छवि पर असर पड़ सकता है। इसीलिए बीच में बेदी को डाल दिया है और प्रधानमंत्री की जगह उनका केजरीवाल के साथ मुकाबला बना दिया गया है और प्रधानमंत्री मोदी को इस दंगल से निकाल लिया गया है। आगे बिहार के चुनाव भी हैं। दिल्ली को सरकार भी ऐसी चाहिए जो केन्द्र के साथ सामंजस्य से काम करे। केजरीवाल तो फिर टकराव शुरू कर देंगे। केजरीवाल हर चीज़ सस्ती या मुफ्त करने का वायदा कर रहे हैं। क्या साधनों बिना राजधानी को महानगर बनाने की जगह महास्लम बनाने का इरादा है? इसी के साथ दिल्ली के स्टेटहुड का मामला भी तय होना चाहिए। इस वक्त राजधानी के अनेक मालिक हैं। 100 से अधिक सरकारी शहरी संस्थाएं दिल्ली को संभालती हैं। छ: शहरी संस्थाएं तो सीवरेज तथा ड्रेन को ही संभालती हैं। शिक्षा के लिए भी कई कई सरकारी शहरी एजेंसियां हैं। पुलिस केन्द्रीय गृहमंत्रालय के अधीन है जिसकी शिकायत निर्भया बलात्कार के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी की थी। यह तमाशा बंद होना चाहिए। दोनों भाजपा तथा कांग्रेस दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज देने का वायदा कर चुकी हैं इसे लागू करने का समय आ गया है।
बहरहाल दंगल अंतिम राऊंड में पहुंच रहा है। जो भी पार्टी जीतती है उसके आगे एक बहुत सख्त ‘बैंच मार्क’ है। उसे शीला दीक्षित के काम का मुकाबला करना पड़ेगा। राष्ट्रमंडल खेलों की बदनामी में वह केजरीवाल से चुनाव बुरी तरह हार गई थीं लेकिन शीला दीक्षित राजधानी को ऐसा बना गईं जिस पर हम सब गर्व कर सकते हैं। किरण बेदी, शाजि़या इल्मी तथा कृष्णा तीरथ आ गई हैं तथा कई पार्टियों में धक्के खाने के बाद जयाप्रदा भी भाजपा में शामिल होना चाहती हैं। साध्वियों से सताई भाजपा अब ग्लैमर ब्रिगेड में विश्वास प्रकट करती नज़र आ रही है!