कन्या का ‘दान’ बंद होना चाहिए
हरियाणा जहां 1000 लड़कों की तुलना में 871 लड़कियां ही हैं और जहां मेनका गांधी के अनुसार 70 गांवों में एक भी लड़की नहीं है, की धरती से ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम शुरू कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को इस बड़ी सामाजिक त्रासदी के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया है जहां मां की कोख में ही बच्ची की हत्या कर दी जाती है। कई माताएं मजबूर की जाती हैं पर यह भी असुखद हकीकत है कि कई इस पाप के लिए खुद तैयार हो जाती हैं। यहां लालची डाक्टरों की कमी नहीं जो पैसे के कारण कुछ भी कर सकते हैं पर असली बात तो समाज की मानसिकता बदलने की है। सरकारी प्रयासों की सफलता सीमित रहेगी। हैरानी यह है कि यह वह देश है जहां देवी की पूजा होती है पर यह ही वह देश है जहां बेटी को बोझ समझा जाता है। दहेज की चिंता रहती है। सुरक्षा की भी चिंता है। यहां अभी भी सुबह कई घरों में बेटे के आगे तो दूध का गिलास रख दिया जाता है पर बेटी को इसका अधिकारी नहीं समझा जाता है। औचित्य यह है कि बेटे ने आगे जाकर जिम्मेवारी संभालनी है तथा बेटी ने तो पराये घर चले जाना है। बेटी के प्रति यह बीमार मानसिकता है जो आगे चल कर कई बार उसके खिलाफ अत्याचार का रूप धारण करती है। घर में अत्याचार, हिंसा, बाहर बलात्कार का खतरा, अभिभावकों का यह मान लेना कि शादी हो गई अब हमारी जिम्मेवारी खत्म, सब कुछ मिला कर बेटी के लिए गंभीर सामाजिक समस्या बन रही है।
पर ज़माना बदल गया। राष्ट्रपति भवन में अमेरिका के राष्ट्रपति को गार्ड आफ ऑनर का नेतृत्व विंग कमांडर पूजा ठाकुर ने किया। गणतंत्र दिवस परेड में भी कई टुकडिय़ों का नेतृत्व महिला अफसरों ने किया। अब अधिक से अधिक लड़कियां आगे आकर काम कर रही हैं और परिवार की जिम्मेवारी संभाल रही हैं। मां-बाप का ध्यान रख रही हैं। हरियाणा में भी बहुत सी लड़कियां खेलों में देश का नाम ऊंचा कर रही हैं। मैरीकॉम से प्रभावित होकर बाक्सिंग में भी कीर्तिमान बना रही हैं। जिन कालेजों में सह-शिक्षा है वहां लड़़कियां लड़कों को पीछे छोड़ गई हैं। देश के कई बैंकों की प्रमुख महिलाएं हैं। हवाई जहाज तक चलाती हैं। एक नेपाली चौकीदार जो अपने लड़कों के साथ लड़कियां भी पढ़ा रहा है, ने मुझे इसका औचित्य यह समझाया कि ‘अब डबल इनकम की जरूरत है।’ उसके मुंह से ‘डबल इनकम’ अर्थात पति-पत्नी की अपनी-अपनी आय का सुन कर मैं हैरान रह गया था लेकिन यह एहसास नीचे तक पहुंच रहा है कि आने वाले समय में दोनों अर्थात् पति-पत्नी के काम करने की जरूरत है इसलिए बच्चियों को पढ़ाना जरूरी है। लेकिन इसके बावजूद समाज में नकारात्मक मानसिकता खत्म नहीं हुई। दिल्ली में बार-बार हो रहे बलात्कार से पता चलता है कि एक वर्ग आधुनिक आजाद विचारधारा की लड़की को बर्दाश्त नहीं कर रहा। वह स्वच्छंद विचार की क्यों है? अपने मुताबिक जिन्दगी जीने की कोशिश क्यों कर रही है? घर में दब कर क्यों नहीं बैठी? वह समाज में बराबरी क्यों चाहती है? जीन्स डाले, मोबाइल पकड़े आजाद लड़की उनसे बर्दाश्त नहीं हो रही। निर्भया बलात्कार तथा हत्या का कारण भी यही था कि इस लड़की में इतनी अक्कड़ क्यों है कि उसने समर्पण नहीं किया?
विफलता परिवार से शुरू होती है जहां लापरवाही, नशा, अधिक पैसा तथा इंटरनेट पर पनप रही अश्लीलता के कारण कई युवक पथभ्रष्ट हो रहे हैं। बाद में कहा जाता है कि हमारा लड़का तो ऐसा कर ही नहीं सकता लेकिन जैसे प्रधानमंत्री ने भी लाल किले से कहा है, हत्यारे, बलात्कारी, समाज विरोधी भी तो किसी के बेटे हैं। कुछ फिल्मों का भी प्रभाव है लेकिन जो स्वस्थ विचार वाले हैं तथा लक्ष्य को लेकर चलते हैं, उन्हें कोई बिगाड़ नहीं सकता। समस्या उन तत्वों से होती है जहां मां-बाप का नियंत्रण न हो, बेरोजगारी तथा हताशा हो या जिनके पास जरूरत से अधिक पैसा हो वे पथभ्रष्ट हो रहे हैं। हरियाणा में टोल टैक्स बैरियर पर काम वाले को इस लिए गोली मार दी गई क्योंकि उसने 20 रुपए टोल के मांगे थे। मन में सोचा होगा कि इसकी इतनी जुर्रत कि मुझसे पैसे मांग रहा है?
महिलाओं के प्रति हमारे समाज के कुछ वर्गों का कैसा उलटा रवैया है यह इस मांग से पता चलता है जो कुछ कथित हिन्दूवादी उठा रहे हैं कि महिलाएं अधिक बच्चे पैदा करें। साक्षी महाराज ने कहा कि हर महिला चार बच्चे पैदा करे तो एक संन्यासिन ने 10 बच्चे पैदा करने का आह्वान किया है। क्या महिलाएं केवल बच्चा पैदा करने वाली मशीन ही हैं? अपनी कोई जिन्दगी नहीं हो सकती? उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं हो सकती? ठीक है यह पारिवारिक जिम्मेवारी महिला ने निभानी है लेकिन इसके बाहर जिन्दगी की भी तो वह ख्वाहिश कर सकती है। वह क्यों नहीं पढ़-लिख कर अपने पांव पर खड़ी हो सकती?
स्वामी दयानंद की शिक्षा से प्रेरित होकर जालन्धर में कन्या महाविद्यालय की स्थापना 1886 में लाला देवराज ने की थी। हरियाणा उनकी कर्मभूमि रही है इसलिए हैरानी है कि वहां इस तरह लिंग असंतुलन है। लेकिन मैं बात कन्या महाविद्यालय की कर रहा था जो उत्तर भारत का पहला लड़कियों का शिक्षा संस्थान है। दिल्ली में भी लड़कियों के शिक्षा संस्थान कन्या महाविद्यालय के 50 वर्ष बाद शुरू हुए। संस्थापक लाला देवराज ने उस वक्त के सामाजिक पूर्वाग्रहों से टक्कर ली, गालियां भी खाईं और पत्थर भी खाए। उन्होंने सबसे पहले अपने परिवार की लड़कियों को शिक्षित किया। यह कहानी बताने में मेरा भी एक मकसद है। उनके परिवार की लड़कियों में मेरी नानी अमर देवी भी थीं जो लाला देवराज की भतीजी थीं। यहां प्राप्त उदार शिक्षा से प्रेरित होकर मेरी नानी ने 1939 में मेरे माता-पिता के विवाह के वक्त यह शर्त रख दी थी कि मैं कन्यादान नहीं करूंगी। उन्हें ‘दान’ शब्द पर आपत्ति थी। मेरे दादाजी महाशय कृष्ण भी आर्यसमाजी थे इसलिए समस्या नहीं आई लेकिन सवाल तो है कि शादी के समय कन्या का ‘दान’ क्यों किया जाए? वह कोई वस्तु तो है नहीं कि जिसे आप किसी को सौंप दो? उसकी अपनी भावनाएं हैं। और जिसे दान कर दिया उससे तो रिश्ता टूट जाता है। प्रधानमंत्री ने भी ‘पराये धन’ की धारणा पर आपत्ति की है। क्या शादी के बाद लड़कियों के साथ रिश्ता टूट जाता है या टूट जाना चाहिए? मैं भी दो लड़कियों का बाप हूं मेरा तो रिश्ता नहीं टूटा। वही घनिष्ठता है जो पहले थी।
इस बाबत मैंने पहले भी लेख लिखा था कि कन्यादान बंद होना चाहिए। यह तो विवाह जैसी पवित्र प्रथा की बदनामी है, अपमान है। इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। कई मित्रों ने प्राचीन ग्रंथों का हवाला देकर इसका औचित्य बताने की कोशिश की थी लेकिन अब तो जमाना बदल गया है। जो कभी जायज़ समझी जाती थीं वह प्रथाएं बदल रही हैं और बदली जानी चाहिए भी। एक बहुत लोकप्रिय लोकगीत है, ‘साडा चिडिय़ां दा चम्बा वे, बाबुल असीं उड़ जाना।’ मुझे इस गाने से बहुत चिढ़ है। कहां उड़ जाना? क्यों उड़ जाना? ठीक है शादी के बाद लड़की अपने ससुराल चली जाती है और वहां अपना घर बसाती है लेकिन उसका बाबुल के साथ रिश्ता खत्म तो नहीं होता। लड़की पराया धन नहीं है। वह एक जिम्मेवारी नहीं जो शादी के बाद समाप्त हो जाती है और न ही उसकी अपने मां-बाप के प्रति जिम्मेवारी ही उसकी शादी के बाद खत्म होती है। यह खून का रिश्ता है जो सामाजिक पूर्वाग्रहों से ऊपर है।
अधिक से अधिक लड़कियां अब मां-बाप की अंत्येष्टि कर रही हैं। मुखाग्नि दे रही हैं। बढ़ते तलाक का यह भी कारण है कि लड़कियां पायदान बनने को तैयार नहीं जिस पर पांव झाड़ कर आप आगे बढ़ सकते हो। उसकी अपनी हस्ती है। तलाक का एक और भी कारण है कि महिला की सफलता कई बार पति पचा नहीं सकता इसलिए टकराव बढ़ रहे हैं। मैंने एक बार लोक अदालत में हिस्सा लिया था जहां हमारे सामने तलाक का एक मामला आया। ग्रामीण महिला जो अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी, का कहना था, ‘ए मैंनू कुटदा है। मैं ऐदे नाल नहीं रहना।’ अर्थात् अधिक से अधिक महिलाएं अब ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर रहीं। यह स्वस्थ संकेत है। संतोष की बात है कि देश के प्रधानमंत्री सामाजिक बुराइयों को खत्म करने का बीड़ा उठा रहे हैं। उन्हें कन्या के दान के खिलाफ भी आवाज उठानी चाहिए। पहले ‘स्वच्छ भारत’ तथा अब ‘बेटी बचाओ’ अभियान से देश में जागरूकता आएगी। इस बाबत मेरा कहना है कि वह गलत छोर से शुरू हो रहे हैं। वह बड़ों से शुरू हो गए, उन्हें बच्चों से शुरू होना चाहिए। बच्चों को सही शिक्षा दी जाए ताकि वे अपने परिवार को बदल सकें। सैलिब्रिटी कुछ नहीं कर सकते। अगर देश का सबसे महंगा घर बनाने के बाद नीटा अंबानी झाडू पकड़ ले तो कोई प्रभावित नहीं होगा। स्कूली शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन चाहिए ताकि सही संस्कार तथा अनुशासन पड़ सकें।
हमारे समाज में अनुशासन की बहुत कमी है। सरकारी कर्मचारी तो आदी हो गए हैं, वह नहीं सुधरेंगे। उनके बच्चों को शिक्षित करें। अगर गंदगी खत्म करनी है या खुले में शौच बंद करना है तो इस बाबत भी बच्चों को शिक्षित करें। आर्य समाज के संन्यासी स्वामी सर्वानंद ने पंजाब के दीनानगर शहर जिसकी जनसंख्या 50-60 हजार होगी में इतनी शिक्षा संस्थाएं खोलीं कि वहां आसपास के 20,000 बच्चे पढ़ाई करते हैं। उनका सबसे सफल परियोजन शहर के बाहर उस क्षेत्र में स्कूल खोलना था जहां अवैध शराब बनती थी। इन परिवारों के बच्चों को स्कूल में लाया गया, उचित संस्कार दिए गए और उनके द्वारा उनके परिवारों को सही किया गया। यही तरीका सरकार को अपनाना चाहिए।
बहुत ही अच्छे विचार हैं। मैं पूरी तरह सहमत हूं।लड़कियों को अपने पिता की जयदाद का बराबर का हिसा मिलना चहिये।