Bharat-America, aur bemangi nasihat -by Chander Mohan

भारत-अमेरिका, और बेमांगी नसीहत

दो नेताओं के बीच ‘कैमिस्ट्री’ अर्थात् घनिष्ठ रिश्ता कितना महत्व रखता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मानना है कि इसका बहुत महत्व है। भारत तथा अमेरिका के नेताओं के बीच गर्मजोशी पहले भी कई बार नज़र आई थी। नेहरू-कैनेडी, जिम्मी कार्टर-मोरारजी देसाई, बिल क्लिंटन-अटल बिहारी वाजपेयी, जार्ज बुश-मनमोहन सिंह, बराक ओबामा-मनमोहन सिंह के बीच भी अच्छे रिश्ते रहे थे पर अमेरिकी नेताओं की समस्या है कि हमारी तरह सोचने में अधिक समय बर्बाद नहीं करते। फटाफट नतीजे चाहते हैं इसीलिए अधीर बराक ओबामा तथा सुस्त तथा भटके हुए मनमोहन सिंह के बीच दोस्ती अधिक गहरी नहीं हो सकी। पर देशों के रिश्ते केवल व्यक्तिगत ‘कैमिस्ट्री’ पर ही आधारित नहीं होते। भारत और अमेरिका का राष्ट्रीय हित भी इस बात से जुड़ा हुआ है कि नई दुनिया में वह नजदीक आएं।
निश्चित तौर पर कई दशकों का असुखद असबाब भी है। शीत युद्ध के दौरान हम दूर रहे लेकिन शीत युद्ध को भी खत्म हुए 23 वर्ष हो चुके हैं। पाकिस्तान के साथ अमेरिका के तीन पीढ़ी के सम्बन्ध हैं, यह खत्म नहीं हो रहे। बराक ओबामा ने पाकिस्तान से कहा है कि मुम्बई पर 26/11 के हमले करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाए लेकिन इन मुद्दों को लेकर अमेरिका पाकिस्तान की बांह मरोड़ेगा, इसकी संभावना नहीं है। ओबामा की यात्रा के बारे वहां की सरकार की भावना कराची के डॉन अखबार का यह संपादकीय प्रकट करता है, ‘पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों में भारी तकलीफ की भावना है।’ तकलीफ हिमालय के पार भी हो रही है। बताया जाता है कि ओबामा मोदी की वार्ता के पहले 45 मिनट चीन पर लगाए गए। बराक ओबामा समझते हैं कि अकेला अमेरिका दुनिया को नहीं संभाल सकता इसलिए चीन का सहयोग चाहते थे लेकिन चीन ने उनका दोस्ती का हाथ दुत्कार दिया। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति का भारत में सत्कार कर उस देश के साथ नया दौर शुरू करने का प्रयास किया लेकिन उसी दौरान चीन ने चुमार क्षेत्र में घुसपैठ कर दोस्ती के इस प्रयास को तमाम कर दिया। इसलिए हैरानी नहीं कि चीन की विस्तारवादी नीति पर बराक ओबामा तथा नरेन्द्र मोदी एकमत हैं। नरेन्द्र मोदी की सरकार की विदेश नीति हट्टी-कट्टी नज़र आती जिसका परिणाम हम श्रीलंका में देख कर हटे हैं जहां चीन के प्रति मैत्री रखने वाली राजपक्षे सरकार चुनाव हार गई है और अपनी हार के लिए ‘रॉ’ को जिम्मेवार ठहरा रही है।
भारत के राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने 2011 में लिखा था कि ‘पाकिस्तान की अपनी कमजोरियां हैं जो भारत से कई गुना हैं…और वह भारत से जो खतरा है, उसे नज़रंदाज नहीं कर सकता।’ भारत आज इसी दबाव की नीति पर चल रहा है। पाकिस्तान को संभालना एक बात है पर चीन की बराबरी करना दूसरी बात है। चीन को शांत करने के लिए विदेशमंत्री सुषमा स्वराज चीन की यात्रा पर हैं। चीन हमारा पड़ोसी देश ही नहीं बल्कि वह देश है जिसकी अर्थव्यवस्था हमसे पांच गुना बड़ी है। प्रयास है कि भारत तथा अमेरिका मिल कर इस अंतर को तीन गुना तक उतार लाएंगे। 4000 किलोमीटर की विवादास्पद सीमा है जहां वह कुछ सप्ताह के बाद घुसपैठ करते रहते हैं। भारत के साथ परमाणु समझौता कर अमेरिका ने यहां मतभेद कम करने का प्रयास किया है। समझौता दो सरकारों में हुआ है अब देखना है कि वहां की कम्पनियां क्या कदम उठाती हैं? परमाणु ऊर्जा को लेकर सुरक्षा, जिम्मेवारी तथा लागत की समस्या है। विशेषतौर पर जापान में फुकूसीमा संयंत्र में हादसे के बाद कई देश परमाणु ऊर्जा से पीछे हट रहे हैं। भोपाल गैस त्रासदी को भूल कर हादसे के समय जिम्मेदारी हम अपने ऊपर ले रहे हैं सप्लायर की जवाबदेही नहीं होगी। इस मामले में जरूर गतिरोध टूटा है लेकिन अमेरिका से 10,000 मैगावाट परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने का लक्ष्य अभी बहुत दूर है। जलवायु को लेकर भी मतभेद हैं। यह मसले हैं जो कुछ हल होंगे, कुछ लटकते रहेंगे लेकिन भारत के नेतृत्व के लिए असली चुनौती और है। बराक ओबामा तथा अमेरिका चाहते हैं कि भारत एक ग्लोबल खिलाड़ी बने तथा ऐसे में जो जिम्मेवारी आती है उसका भी निर्वहन करे। अभी तक हमारे नेता इससे भागते रहे हैं। चीन तथा रूस की संवेदनशीलता का ध्यान रखा जाता रहा है। नरेन्द्र मोदी में उन्हें वह नेता मिल गया है जो अपनी जिम्मेवारी निभाने के लिए तैयार है। ओबामा तथा मोदी के बीच ‘कैमिस्ट्री’ का असली मतलब यह है। इसीलिए परमाणु समझौता भी किया गया, खूफिया सूचना सांझी करने के लिए भी अमेरिका तैयार है तथा पहली बार रक्षा क्षेत्र में दोनों देश मिल कर उत्पादन करेंगे।
दोनों देशों के रिश्तों में नाटकीय बदलाव आया है। ओबामा ने कहा भी है कि हम केवल ‘स्वभाविक पार्टनर ही नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ पार्टनर हैं।’ इस गर्माहट का दुनिया में असर पड़ेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति के प्रमाणपत्र की बहुत कीमत है। भारत अब लचीले अमेरिका-भारत-जापान-आस्ट्रेलिया गठबंधन में दिलचस्पी दिखा रहा है। बंगाल की खाड़ी में तथा श्रीलंका के नौसैनिक अड्डों पर चीन की पनडुब्बी के पहुंचने से भारत परेशान है। अभी तक हम हिन्द महासागर को अपना सुरक्षित क्षेत्र समझते रहे अब चीन वहां भी चुनौती दे रहा है। चीन द्वारा हिमालय से लेकर हिन्द महासागर में हमें दी जाने वाली चुनौती से निबटने के लिए हमारे पास और विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि हम ऐसे लचीले गठबंधन में शामिल हो जाएं जिसे चीन अपने घेराव का प्रयास समझता है।
जाते जाते बराक ओबामा हमें नसीहत भी दे गए हैं। उन्होंने धार्मिक असहिष्णुता के प्रति हमें सावधान करते हुए कहा कि अगर भारत धर्म के नाम पर नहीं बंटा तो बहुत तरक्की करेगा। उनकी यह नसीहत असामान्य है। कोई भी मेजबान इस तरह मेहमान देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता। उन्हें समझना चाहिए कि धार्मिक आजादी तथा सहनशीलता केवल संविधान ने ही हमें नहीं दी, यह हमारी परम्परा का हिस्सा है जहां 80 प्रतिशत से अधिक हिन्दू आबादी वाले देश में मुसलमान राष्ट्रपति रह चुके हैं तथा दस साल एक सिख प्रधानमंत्री रहे हैं। भारत वह भूमि है जहां दुनिया भर के उत्पीडि़तों को सदा छत्त मिलती रही है। यहूदियों, पारसियों से लेकर तिब्बतियों और बांग्लादेशियों को हमने शरण दी है। हां, घटनाएं होती हैं जो नहीं होनी चाहिए परन्तु मुख्यधारा की सोच सही है। बहुसंख्या जो हिन्दू है, उदार है। अमेरिका की समस्या है कि वह समझते हैं कि पश्चिमी सभ्यता तथा उनकी जीवन पद्धति बाकियों से श्रेष्ठ है इसलिए नसीहत देना अपना धर्म समझते हैं। कोई ऐसा समाज नहीं जो परिपूर्ण हो, अमेरिका भी नहीं। भारत एक प्राचीन सभ्यता और समृद्ध संस्कृति है जहां तक पहुंचने में अमेरिका को शताब्दियां लग जाएंगी। वह यह भी समझते हैं कि वह ईसाईयत के संरक्षक हैं। यहां भी चर्च को सबसे अधिक फंड अमेरिका से ही आते हैं। एक बात और, अगर ओबामा सब धर्मों का बराबर सम्मान चाहते हैं तो खुद बाइबल पर हाथ रख शपथ क्यों लेते हैं?

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.