
जम्मू कश्मीर में सावधान
दिल्ली के चुनाव के जो भी परिणाम आते हैं भाजपा के नेताओं के लिए यह किसी वेक अप कॉल से कम नहीं हैं। ऐसा आभास मिलता है कि जनता के साथ कहीं रिश्ता टूटा है, डिसकनैक्ट हैं। एक बड़ा कारण है कि जो वायदे किए गए वह इतनी जल्दी पूरे नहीं हो सकते इसलिए लोग अधीर हो गए हैं। इसीलिए आज सावधान कर रहा हूं कि जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन बनाते समय अगर सिद्धांतों की कुर्बानी की गई तो यह भी बाकी देश में महंगी साबित होगी। भाजपा की समस्या है कि वहां उसके पास बहुमत नहीं है वह सबसे बड़ी पार्टी भी नहीं। उसे केवल जम्मू क्षेत्र से ही समर्थन मिला है। सबसे बड़ी पार्टी पीडीपी है लेकिन उसे भी बहुमत नहीं मिला। स्थाई सरकार तब ही बनती है जब पीडीपी-भाजपा मिल कर सरकार बनाते हैं। इसी का प्रयास अब अंतिम चरण तक पहुंच गया है। जो समाचार प्रकाशित हो रहे हैं उनके अनुसार पीडीपी के संरक्षक तथा पूर्व मुख्यमंत्री तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद नए मुख्यमंत्री होंगे और वह पूरे छ: साल रहेंगे। भाजपा का उपमुख्यमंत्री होगा। पहले यह चर्चा थी कि आधी अवधि पीडीपी का मुख्यमंत्री होगा और आधी अवधि भाजपा का लेकिन यह शर्त छोड़ दी गई है न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बनाया जा रहा है लेकिन क्या भाजपा नेतृत्व ने पीडीपी तथा मुफ्ती बाप-बेटी के साथ मिलकर सरकार बनाने के जोखिम का पूरा आंकलन कर लिया है? यह वह लोग हैं जिन्हें स्शद्घह्ल स्द्गश्चड्डह्म्ड्डह्लद्बह्यह्ल अर्थात् नरम अलगाववादी कहा जाता है। अतीत में विशेष तौर पर महबूबा मुफ्ती, तो देश विरोध की सीमा पार कर चुकी हैं। देश को धमका चुकी हैं। क्या इनके साथ गठबंधन सही होगा? विशेष तौर पर इसलिए कि यह नज़र नहीं आता है कि पीडीपी अपने स्टैंड से हट रही है जबकि भाजपा जरूर पीछे हटती नज़र आ रही है।
सबसे बड़ा मुद्दा धारा 370 को हटाने का है। राम मंदिर, समान नागरिक कानून के साथ यह भाजपा का तीसरा केन्द्रीय मुद्दा है। दशकों से पहले जनसंघ तथा फिर भाजपा कश्मीर के अलग अस्तित्व को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को भी इसके साथ जोड़ा गया। उन्होंने धारा 370 को देश के टुकड़े करने का प्रयास कहा था। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के घोषणापत्र में भी इसे खत्म करने की मांग रखी गई लेकिन अब भाजपा बदल रही है। पहला संकेत तब मिल गया था जब अपने भाषणों में वहां नरेन्द्र मोदी ने इस मुद्दे पर ‘बहस’ कराने की बात कही थी। अर्थात् भाजपा यहां हटी है जबकि पीडीपी धारा 370 पर टस से मस नहीं हो रही। पीडीपी की एक और मांग है कि भारत पाकिस्तान से बातचीत करे। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने शुरू में ही पाकिस्तान के उच्चायुक्त की हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं से मुलाकात के बाद आगे की वार्ता तोड़ दी थी। पीडीपी चाहती है कि सरकार हुर्रियत वालों से भी बात करे। इस मामले में सरकार का क्या रवैया है, मालूम नहीं पर पाकिस्तान का इतना सख्त विरोध करने के बाद अगर सरकार अब पीडीपी के दबाव में झुकती है तो देश को बहुत गलत संदेश जाएगा। केन्द्रीय सरकार पाकिस्तान या हुर्रियत के बारे अपनी नीति का वीटो पीडीपी के हाथ नहीं पकड़ा सकती। इसी प्रकार ‘अफस्पा’ अर्थात् सशस्त्र सेनाओं को मिले विशेषाधिकार का मामला है। बहुत देर से कश्मीरी नेता इस कानून को वापिस लेने की मांग करते रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला विशेष तौर से इसे उठा चुके हैं लेकिन रक्षा विशेषज्ञ इसका तीखा विरोध करते हैं। उनका कहना है कि चाहे स्थिति में सुधार हुआ है पर अभी भी परिस्थिति ऐसी नहीं है कि ‘अफस्पा’ वापिस लिया जाए। भाजपा भी यही कहती रही है। जिस तरह कश्मीर में तराल में कर्नल एमएन राय को धोखे से मारा गया उससे सबकी आंखें खुल जानी चाहिए। अगर सरकार बनाने की मजबूरी में यहां भी समझौता किया जाता है तो यह भी गलत संदेश देगा।
इसी के साथ जम्मू के लोगों की आकांक्षाओं का सवाल है जो सही समझते हैं कि उनके साथ कश्मीरी नेताओं ने सौतेला व्यवहार किया है। जम्मू से कोई हिन्दू जम्मूकश्मीर का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? यह क्यों मान लिया गया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर केवल कश्मीरी मुसलमान नेताओं का ही अधिकार है? भाजपा ने आधी अवधि मुख्यमंत्री पद की मांग भी छोड़ दी लगती है। अब जम्मू वाले मांग कर रहे हैं कि चुनाव के दौरान उनसे जो वायदे किए थे उन्हें न्यूनतम सांझा कार्यक्रम में शामिल किया जाए। वह विशेष तौर पर पश्चिम पाकिस्तान से आए हुए डेढ़ लाख शरणार्थियों को पूर्ण अधिकार देने की मांग कर रहे हैं जिन्हें 67 वर्षों से वोट के अधिकार के सिवाय और कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। भाजपा ने इन्हें पूर्ण नागरिक अधिकार देने का वायदा भी किया था। जम्मू की यह भी शिकायत है कि उनके आर्थिक विकास पर अधिक बल नहीं दिया जाता। अधिकतर साधन कश्मीर पर खर्च किए जाते हैं क्योंकि सरकार उन लोगों के हाथ में है। कश्मीरियों को खुश रखने के लिए विभिन्न केन्द्रीय सरकारें भी जम्मू क्षेत्र की उपेक्षा करती रही हैं।
आशा है कि भाजपा का नेतृत्व पीडीपी के साथ सरकार बनाते वक्त जनता की भावना का सम्मान करेगा। वहां सरकार बननी चाहिए लेकिन इस सरकार को बनाने के लिए भाजपा कितनी कीमत अदा करना चाहती है? लोगों की नज़रें आप पर हैं। दिल्ली में एक आवाज, श्रीनगर में एक और आवाज तथा जम्मू में एक अलग आवाज में बोलने की सुविधा आजकल के मीडिया युग में किसी को उपलब्ध नहीं।