रोटी सस्ती होनी चाहिए
मोदी सरकार के लिए पिछले कुछ सप्ताह बहुत अच्छे नहीं रहे। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जैसे मामलों को लेकर देश में भारी असंतोष है। एक बड़े आंदोलन की तैयारी हो रही है। पिछले कानून को नरम कर भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने की कोशिश की गई जिससे किसानों में आक्रोश है। इस प्रयास के बारे तो यही कहा जा सकता है कि
आता है रहनुमाओं की नीयत में फतूर
उठता है साहिलों में वह तूफां न पूछिए!
पहला कानून पांच वर्ष की जद्दोजहद के बाद संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हुआ था। इसे पारित करने से पहले भाजपा द्वारा दिए गए दो संशोधन स्वीकार किए गए। अब इसे बदलने की क्या जरूरत है सिवाय इसके कि यह सरकार ‘आ बैल मुझे मार’ प्रवृत्ति से ग्रसित है? दिल्ली के बाहरी क्षेत्रों में भाजपा की हार का भी यही कारण है कि अपनी जमीन को लेकर लोग चिंतित हैं कि इसे किसी न किसी बहाने पूंजीपतियों को सौंप दिया जाएगा। भूमि अधिग्रहण बहुत भावनात्मक मामला है क्योंकि यह लोगों की रोज़ी रोटी तथा घर की जरूरत से जुड़ा है। ऐसे किसी कदम के सामाजिक प्रभावों की अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसा प्रभाव मिलता है कि लापरवाही से जिन्हें ‘रिफॉर्म’ कहा जाता है, उसकी आड़ में धन तथा संपदा कुछ हाथों में इकट्ठी हो रही है। कारप्रेट विकास तथा आम आदमी के हित के बीच टकराव भी नज़र आने लगा है। मोदी सरकार जनता से इस तरह क्यों कट गई थी कि मालूम नहीं था कि ऐसी किसी कवायद की इतनी बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है? जब बड़े बड़े उद्योगपति आपके लिए तालियां बजाने लग जाएं तो समझ जाइए कि खतरे की घंटी बज रही है क्योंकि अधिकतर मामलों में इनके हित आम आदमी के हित से टकराते हैं। एक बात उसे पल्ले बांध लेनी चाहिए कि भारत में वह ही सरकार सफल रहती है जो यह प्रभाव देती है कि लोगों को साथ लेकर चल रही है। यह भी याद रखना चाहिए कि करोड़ों कुपोषित, अशिक्षित, कमजोर लोगों के साथ भारत विकसित नहीं हो सकता। हम उन्हें पीछे छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकते। आर्थिक कदमों पर जन सहमति जरूरी है। भारत की सरकार को केवल अरबपतियों की इच्छा के अनुसार ही नहीं चलना चाहिए उसे भारत के एक अरब से अधिक लोगों को भी साथ लेकर चलना है। दिल्ली में जासूसी कांड तथा कोयला ब्लाक की नीलामी में सरकार द्वारा अरबों रुपए अतिरिक्त अर्जित करने से पता चलता है कि बड़े औद्योगिक घराने जिन्हें अंग्रेजी मीडिया ‘कैपटन्स ऑफ इंडस्ट्री’ का उच्च खिताब देता है, किस तरह देश के साधनों का नाजायज़ शोषण करते रहे हैं। देखना अब यह है कि इस मामले में सख्त आफिशियल सीक्रेट्स एक्ट लगाया जाता है या नहीं?
बजट अधिवेशन सरकार को यह मौका देता है कि वह अपनी छवि को सुधारे क्योंकि इन 9 महीनों में कोई परिवर्तन नज़र नहीं आया। रेलवे, सड़कें, इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे मामलों में बहुत निवेश करने की जरूरत है लेकिन अभी तक उपेक्षित सामाजिक सैक्टर जैसे शिक्षा तथा स्वास्थ्य को भी बेहतर करने की जरूरत है। अर्थशास्त्री बार-बार घाटे को कम करने की बात कहते हैं लेकिन यह कैंची केवल उन योजनाओं पर ही नहीं चलनी चाहिए जो आम आदमी को प्रभावित करती हैं। घाटा कम करने के लिए सरकारी फिजूलखर्ची भी कम होनी चाहिए। जिसे दो नम्बर की अर्थव्यवस्था कहा जाता है, उस पर भी नियंत्रण करने की जरूरत है। उत्पादन को बढ़ाने तथा प्रधानमंत्री की ‘मेक इन इंडिया’ योजना को सफल बनाने की जरूरत है। अगर यहां उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार खुद बढ़ जाएगा लेकिन अगर उत्पादन बढ़ाना है तो और जमीनें चाहिए, पर्यावरण का भी नुकसान होगा, लोग नाराज भी होंगे। इस सबके बीच संतुलन कायम करना है। प्रधानमंत्री तथा उनकी सरकार की दक्षता की पूरी परीक्षा इस अधिवेशन में होगी।
नेहरूवादी समाजवाद का मॉडल फेल हो चुका है क्योंकि इससे गरीबी का उन्मूलन नहीं हुआ। अब जिन्हें ‘आर्थिक सुधार’ कहा जाता है उन्हें दोनों हाथों से अपनाया जा रहा है पर चीन की तरह भारत जनता के विरोध की अनदेखी नहीं कर सकता। पुरानी योजना पर आधारित अर्थव्यवस्था को हटाया जा रहा है और दूसरी जगह बाजारी अर्थव्यवस्था (मार्केट इकोनोमी) को अपनाया जा रहा है पर यह बदलाव बिना कष्ट के नहीं होगा क्योंकि इस बीच बहुत लोग पिस जाएंगे। उनका क्या बनेगा? याद रखना चाहिए कि भारत छोटे लोगों का देश है जिनमें यह प्रभाव फैल गया है कि नई सरकार ने उनका हाथ थामने की जगह बड़े उद्योगपतियों का हाथ थाम लिया है।
अभी तक इस सरकार ने जो कुछ भी किया है उससे आम आदमी को कोई राहत नहीं मिली। अकबर इलाहाबादी के यह शब्द याद आते हैं कि ‘पलेटों के आने की आवाज तो आ रही है, खाना नहीं आ रहा।’ यह खाना कब तक पहुंचेगा? सरकार को विशेषतौर पर खाद्य पदार्थों की कीमतों पर ध्यान देना चाहिए। लोगों की रोटी सस्ती होनी चाहिए। आटा, दाल, तेल, चाय, चीनी, गैस आदि में जो उछाल आया था उसे वापिस करना है ताकि आम आदमी के लिए जिन्दगी का भार हलका हो सके। अगर बिजली बोर्डों में भ्रष्टाचार है या लापरवाही है या अकुशलता है तो आम आदमी इसका बोझ क्यों उठाए? सबसिडी को लेकर कई सलाहकार हौवा खड़ा कर रहे हैं। सबसिडी कोई गाली नहीं है। हर देश, अमेरिका भी, विशेष वर्ग को राहत देने के लिए सबसिडी देता है। भारत में यह बंद नहीं की जा सकती। सरकार कई बार अरबों रुपयों से उद्योगपतियों की मदद करती है। जमीन, बिजली, टैक्स आदि की उन्हें सबसिडी दी जाती है। एयर इंडिया को बचाने के लिए 30,000 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया था। अगर उन्हें सबसिडी दी जा सकती है तो छोटे आदमी को क्यों नहीं?
यह खबर शर्मनाक है कि अरबपतियों की संख्या में अमेरिका तथा चीन के बाद दुनिया में भारत तीसरे नम्बर पर है। ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, रूस आदि देशों से अधिक अरबपति उस भारत में हैं जहां 65 प्रतिशत लोग गरीब हैं। 20 करोड़ लोग हैं जिनके पास जायदाद के नाम पर एक पैसा नहीं है। क्या यह संभव है कि रईसों की यह संख्या सरकारी नीतियों के सहयोग के बिना बढ़ सकती थी? पर जब गरीबों को राहत देनी होती है तो ‘सबसिडी’ का शोर मच जाता है कि अगर ऐसा किया गया तो अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी। भूमि अधिग्रहण जैसे मामलों पर फिर से गौर करना चाहिए नहीं तो देश में तूफान खड़ा हो जाएगा। अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बाज़ार के हवाले नहीं किया जा सकता। इस बजट में दिशा सही करने की बहुत जरूरत है।