
तेरी रहबरी का सवाल है!
जिस उम्मीद से जम्मू कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार का गठन हुआ था, वह अब एक दु:स्वप्न में परिवर्तित होती जा रही है। मसरत आलम को रिहा कर तथा उससे पहले जम्मू कश्मीर में शांतमय चुनाव के लिए अलगाववादियों, जेहादियों तथा ‘उस पार’ को श्रेय दे कर मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने जता दिया है कि कश्मीर की अलगाववादी राय को संतुष्ट करने के लिए वह देश की सुरक्षा तथा अखंडता से भी खेलने को तैयार हैं। यह एक विचित्र मुख्यमंत्री है जो अपने प्रदेश में सफल चुनाव के लिए पाकिस्तान का शुक्रिया कर रहा है! उनका तो एक प्रकार से कहना था कि पाकिस्तान जम्मू कश्मीर में आतंकवाद को नहीं, लोकतंत्र को प्रेरित कर रहा है। मसरत आलम वह कुख्यात शख्स है जो 2010 में हुए पत्थर फेंकने वाले आंदोलन का सरगना था जिसमें 120 लोग मारे गए थे और देश की व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती मिली थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कहा है कि ‘यह संयोग नहीं कि मुश्किल से उसकी गिरफ्तारी के साथ ही यह विरोध खत्म हो गया था।’ उमर अब्दुल्ला के अनुसार ‘आलम को गिरफ्तार कर जिंदगियां बचाई गई थीं।’ उसके खिलाफ पन्द्रह मामले लम्बित हैं जिनमें देश के खिलाफ युद्ध करना भी शामिल है। उसका कहना है कि पाकिस्तान उसकी ताकत है और वह ‘युद्ध’ को उसके अंत तक ले जाना चाहता है। रिहा होने के बाद भी उसका कहना है कि वह अब आजादी का रास्ता तैयार करेगा। पीडीपी का कहना है कि राजनीतिक नेताओं की रिहाई संयुक्त न्यूनतम कार्यक्रम के अधीन की गई और बेबस भाजपा जिसके स्थानीय नेताओं को पूछा तक नहीं गया, फडफ़ड़ा रही है। इस सरकार को बनाने के लिए भाजपा ने अत्यंत उदारता दिखाई है। धारा 370 का मसला पीछे डाल दिया। अफसपा पर भी गौर करने का वायदा किया। उनके मंत्रियों ने जम्मू कश्मीर के उस अलग संविधान के तहत शपथ ली जिसे डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी हटाना चाहते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाते हुए मुफ्ती को एक बार नहीं बल्कि दो बार गले लगाया लेकिन जम्मू से उनकी वापसी के साथ ही मुफ्ती ने यह रिटर्न गिफ्ट दे दिया। कहीं भी सुरक्षाबलों का जिक्र नहीं जो जान पर खेल कर पाक प्रेरित आतंकवाद का मुकाबला करते हैं। कहीं चुनाव आयोग का धन्यवाद नहीं। यहां तक कि जम्मू कश्मीर के लोगों का धन्यवाद भी नहीं। केवल ‘थैंक यू नवाज़ भाई।’
शांति तथा विकास, उजड़े हुए लोगों का पुनर्वास सब पीछे पड़ गया और मिलिटैंट्स की संतुष्टि तथा उनका पुनर्वास इस सरकार की प्राथमिकता बन गई है। भविष्य में ऐसी और रिहाइयां हो सकती हैं और जम्मू कश्मीर फिर 2010 पर लौट सकता है। हमारा जलूस किस तरह निकल रहा है यह इस बात से पता चलता है कि अगर पाकिस्तान में जकीउर रहमान लख्वी को रिहा करने का प्रयास किया जाता है तो हम तीखा विरोध करते हैं लेकिन मसरत जैसे नफरत फैलाने वाले को यहां रिहा किया जा रहा है। लख्वी जेल में है, मसरत आजाद है। महबूबा मुफ्ती जिसका उपद्रव उकसाने का इतिहास है, कहती हैं कि उनके लिए गठबंधन से अधिक चुनावी वायदे महत्वपूर्ण हैं। संसद में सरकार बार-बार जवाबदेह बन रही है। प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि हमसे बात नहीं की गई। मुफ्ती की बदतमीज़ी से देश स्तब्ध है। इतनी बड़ी भारत सरकार इस कद्र लाचार है? पहले हमें बताया गया कि आपस में दो महीने लम्बी वार्ता चली। सारे मसले तय हो गए, फिर मुख्यमंत्री अलगाववादी एजेंडे पर क्यों चल रहे हैं? लक्ष्मण रेखा तय क्यों नहीं की गई? मुफ्ती साहिब तो बता रहे हैं कि उन्हें न जम्मू की चिंता है न बाकी देश की राय की चिंता है उन्हें सिर्फ कश्मीर की अलगाववादी राय की तुष्टिकरण की चिंता है। क्या मुफ्ती मुहम्मद शुरू में ही धमकी तो नहीं दे रहे कि अगर उन्हें हाथ लगाया गया तो वह उसी तरह मुसीबत बन जाएंगे जैसे कभी शेख अब्दुल्ला बने थे? मुफ्ती मुहम्मद तथा उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के अतीत की अनदेखी की गई। भाजपा धर्मनिरपेक्ष छवि पक्की करने के लिए इतनी बेचैन थी कि किसी भी कीमत पर मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश की सरकार में शामिल होने को तैयार थी। दिल्ली में मिली हार से उभरने के बाद भाजपा यह प्रभाव देना चाहती थी कि वह अछूत नहीं, कश्मीर की मुस्लिम पार्टी के लिए भी नहीं। लेकिन सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। जम्मू कश्मीर का मुद्दा उसके लिए भावनात्मक मुद्दा था पर अब पार्टी एक और कांग्रेस बनती जा रही है।
सवाल तो उठता है कि आप के मध्यस्थ क्या करते रहे? क्या भाजपा इस सरकार में तमाशायी ही है? केवल यह कहने के लिए ही है कि ‘हमें बर्दाश्त नहीं है’, ‘हमें बर्दाश्त नहीं है?’ वायदा यह भी किया गया था कि (1) जम्मू का विकास होगा, (2) पंडितों की वापसी होगी, (3) पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों का पुनर्वास होगा। पर अगर मुफ्ती ‘बाप-बेटी’ का रवैया देखा जाए तो ऐसा कुछ नहीं होगा। अमरनाथ यात्रा पर ही टकराव की संभावना है क्योंकि मुफ्ती मुहम्मद सईद ने फैसला कर लिया है कि वह केवल कश्मीर की कट्टर राय के मुख्यमंत्री हैं। जिस पार्टी के पास केवल 28 सीटें हैं, वह इतनी दबंग कैसे हो गई कि वह एजेंडा अपना रही है जो न केवल जम्मू कश्मीर के लिए बल्कि देश के लिए भी खतरनाक है? देशद्रोहियों तथा गद्दारों की रिहाई न्यूनतम सांझा कार्यक्रम का हिस्सा कैसे हो गई? गृह मंत्रालय भी जम्मू कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य पर पूरी नज़र क्यों नहीं रख रहा था? आपने तो तश्तरी पर रख कर सरकार अलगाववादियों के समर्थकों को सौंप दी। जफ्फी समय से पहले डाली गई।
याद आ रहा है मुफ्ती मुहम्मद सईद का अतीत। किस तरह 1989 में उनकी बेटी रूबिया की रिहाई के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के विरोध के बावजूद पांच कुख्यात आतंकवादियों की रिहाई की गई थी जो बाद में हमारे लिए नई मुसीबत बन गए थे। 2002 में जब मुफ्ती साहिब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो शुरुआत जम्मू के रघुनाथ मंदिर पर हमले से हुई थी। अगले साल नंदीमार्ग में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ था। अब प्रदेश भाजपा का कहना है कि हम उस रास्ते पर चलने को तैयार नहीं। इसका मतलब क्या है? क्या आप में यह मानने का दम है कि गलती हो गई, हम इस सरकार से बाहर आ रहे हैं? अगर यह फिक्सड मैच नहीं है तो भाजपा के नेताओं का अनाड़ीपन देश के लिए बहुत महंगा साबित हो रहा है। मुफ्ती मुहम्मद सईद से हमें कोई आशा न थी, न है। लेकिन भाजपा के नेताओं से तो मेरा कहना है,
तू इधर उधर की न बात कर
यह बता कि काफिला क्यों लूटा
मुझे राहजनों की गर्ज नहीं
तेरी रहबरी का सवाल है।