तख्त या तख्ता!
भारत क्रिकेट के विश्व कप से बाहर हो गया और सारा देश शोक में डूब गया। केवल देश ही नहीं प्रवासी भारतीयों ने भी सर पकड़ लिया। जिन्होंने अपने अंदर जीत का उन्माद पैदा कर लिया था उन्होंने यह नहीं सोचा कि भारत हार भी सकता है। जीत का तर्क ही नहीं बनता था। हम पिछले साल दिसम्बर में आस्ट्रेलिया पहुंचे थे तब से लेकर आज तक हम एक भी मैच में उन्हें पराजित नहीं कर सके। देश प्रेम की भावना में बह कर हम भूल गए कि आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलिया को हराना सदा ही मुश्किल रहा है। हां, क्रिकेट में चमत्कार होते हैं पर 329 रन बनाना कभी भी आसान न रहता। यह नहीं कि इस भारतीय टीम में इतने रन बनाने का दम नहीं है लेकिन हर दिन आप सौभाग्यशाली नहीं रहते। इस बार तो वह जुझारूपन नज़र नहीं आया। लेकिन जिस तरह देश ने इस हार पर सिर पटक दिया वह हैरान तथा परेशान करने वाला है। एक क्रिकेट प्रेमी ने लखनऊ की एक इमारत की सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली। वह हार बर्दाश्त नहीं कर सका। तमिलनाडु में एक युवक ने अपनी जीभ काट ली। एक ने खुद को आग लगा ली। एक अन्य ने खुद को फांसी लगा ली। लोगों को रोते देखा गया। टीवी सैट तोड़े गए। टीम के सदस्य जिन्हें एक दिन पहले तक हीरो समझा गया, उनके पोस्टरों को आग लगाई गई। गम और निराशा स्वभाविक है लेकिन इसकी भी तो कोई सीमा होनी चाहिए? क्रिकेट के विश्व कप के सेमीफाइनल में हारना कोई राष्ट्रीय त्रासदी नहीं है। नेशनल हिस्टीरिया की जरूरत नहीं। आस्ट्रेलिया एक बेहतर टीम थी। हम कमजोर रहे लेकिन इसके लिए राष्ट्रीय विलाप की जरूरत नहीं। महेन्द्र सिंह धोनी के रांची स्थित घर के बाहर कमांडो तैनात करने पड़े क्योंकि एक बार पहले 2013 में वहां क्रोधित क्रिकेट प्रेमी पथराव कर चुके हैं।
ऐसी ही प्रतिक्रिया उनकी टीम के हारने के बाद पाकिस्तान में होती है। फिर हमारे और उनमें अंतर क्या हुआ? हम कब परिपक्व होंगे और अपने ज़ज्बात, खुशी या गम, को नियंत्रण में रखेंगे? सिडनी में एक भारतीय फैन ने रानी झांसी का पोस्टर पकड़ा हुआ था? खूब लड़ी मर्दानी? क्या तुक है? आस्ट्रेलिया की टीम की ब्रिटेन की हुकूमत से क्या तुलना? लेकिन हम ज़ज्बात में बहने को तैयार रहते हैं। विराट कोहली-अनुष्का शर्मा पर भी ऐसी नकारात्मक प्रतिक्रिया क्यों हुई? खिलाडिय़ों की गर्लफ्रैंड्स को साथ जाने की इज़ाजत मिलनी चाहिए या नहीं, यह अलग बात है लेकिन इन दोनों को इस हार के खलनायक कैसे कहा जा सकता है? ठीक है विराट अच्छा नहीं खेला लेकिन हार के लिए केवल वह ही जिम्मेवार नहीं। अगर आस्ट्रेलिया ने विशाल 328 का स्कोर खड़ा किया तो इसके लिए विराट-अनुष्का नहीं बल्कि गेंदबाज जिम्मेवार हैं। अधिकतर बाकी खिलाडिय़ों की बल्लेबाजी भी तो बढिय़ा नहीं रही फिर केवल एक खिलाड़ी को दोषी क्यों ठहराया जाए? ट्विटर में कोई मांग कर रहा है कि अनुष्का की फिल्मों का बहिष्कार करो तो नेट पर कोई लिख रहा है कि विराट कोहली चाहता था कि महेन्द्र सिंह धोनी को कप्तानी से हटाया जाए इसलिए सही नहीं खेला। क्या बकवास है। हमें हर वक्त नायक या खलनायक क्यों चाहिए? मैच के पहले कई जगह टीम की जीत के लिए हवन यज्ञ किए गए, पूजा की गई। अरे दीवानों! यह मात्र खेल है, इसे खेल ही रहने दो ईश्वरीय दखल की जरूरत नहीं। दिव्य शक्ति की कोई जरूरत नहीं लेकिन कौन समझाएगा आखिर? इस देश में तो सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी और अमिताभ बच्चन एवं रजनीकांत के मंदिर बने हुए हैं।
राष्ट्रवाद की जो भावना हम में भर जाती है उसके लिए मीडिया और विज्ञापन जगत भी बहुत जिम्मेवार है। ‘धोनी के धुरंधर’, ‘धोनी के शेर दहाड़ेंगे’, ‘महाभारत’ आदि शब्दों के लापरवाह प्रयोग के कारण ही देश में पागलपन की लहर चल पड़ती है। उन्हें ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि वह मात्र खिलाड़ी नहीं वास्तव में बहादुर सिपाही हैं लेकिन जब बैक लगती है तो अपने पर नियंत्रण हम खो बैठते हैं। संयम नहीं है। अर्श या फर्श, बीच में कोई जगह नहीं है। शुक्र इतना है कि हमने पाकिस्तान से मार नहीं खाई, नहीं तो देश में आग लग जाती। मीडिया को भी अपने रवैये पर गौर करना चाहिए और जनता को भड़काने से बाज आना चाहिए। जैसी संज्ञाओं का मीडिया इस्तेमाल करता है उससे उत्तेजना बढ़ती है। मात्र एक खेल को हम जीवन-मृत्यु का मामला बना लेते हैं इसलिए जब हार होती है तो उसे संभाल नहीं सकते। हम वाहियात हरकतें करने लग पड़ते हैं। पुतला फूंकना जो असभ्यता की परकाष्ठा है लेकिन प्रतिक्रिया व्यक्त करने का यह हमारा साधन बन जाता है। इस देश में प्रसिद्धि की अजब कीमत चुकानी पड़ती है। या हम क्रिकेटरों को मालामाल कर देते हैं नहीं तो उनके पुतले फूंकने शुरू कर देते हैं। तख्त या तख्ता! जिन्दाबाद या मुर्दाबाद! बीच की गुंजायश इस प्राचीन पर अभी तक अपरिपक्व देश में नहीं है।