अक्स बंट जाएगा तेरा भी!
अरविंद केजरीवाल बेंगलुरू के जिंदल नेचर क्योर क्लिनिक से तंदरुस्त तथा तरोताज़ा होकर लौटे हैं पर यही हाल उनकी पार्टी का नहीं है। पार्टी में तो गंभीर फ्रैक्चर हो गया है। अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव वह त्रिमूर्ति है जिसने आप को बनाया था, इसे वैचारिक दिशा दी थी। अब भूषण तथा यादव को बाहर निकाला जा रहा है। जिन आदर्शों को लेकर पार्टी खड़ी की गई थी वह खत्म हो गए लगते हैं। लोकतंत्र, सुशासन, स्वराज, पारदर्शिता सब एक तरफ छोड़ कर अरविंद केजरीवाल एक मिनी तानाशाह बनते जा रहे हैं। सब कुछ ‘मैं’ है। प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव का कसूर भी क्या है इसके सिवाय कि उन्होंने केजरीवाल के काम करने के ढंग पर सवाल किए थे? वह चाहते थे कि पार्टी फंड आरटीआई के नीचे आए। इसी को केजरीवाल बर्दाश्त नहीं कर सके। केजरीवाल समझते हैं कि दिल्ली में जो सफलता मिली है वह उनके कारण मिली है जो शायद सही भी है, लेकिन इस पार्टी को बनाने में लाखों वालंटियरों की मेहनत को भूल गए हैं। लोगों ने आप इसलिए नहीं खड़ी की थी कि यह एक सामान्य पार्टी बन जाए और खुद केजरीवाल, चाहे उनकी कितनी भी लोकप्रियता हो, उसी तरह का अहंकार दिखाएं जैसे मायावती कभी दिखाती थीं। ‘मैं अपने 67 विधायक लेकर अलग हो जाऊंगा।’ मैं सुप्रीमो हूं। अगर मेरे कामकाज पर सवाल खड़े किए गए तो जिस तरह इंदिरा गांधी ने 1969 में अपने नाम की अलग कांग्रेस खड़ी की थी, उसी तरह मैं भी अलग ‘आप’ खड़ी कर लूंगा। मैं अरविंद केजरीवाल हूं। जिधर मैं रहूंगा उधर पार्टी रहेगी।जो असहमत होंगे वह ‘गद्दार’ करार दिए जाएंगे।
मैं अरविंद केजरीवाल का कभी भी प्रशंसक नहीं रहा। मुझे उनकी ड्रामेबाज़ राजनीति पसंद नहीं लेकिन इस बार जिस तरह चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने विनम्रता दिखाई तथा पिछली गलतियों से सबक सीखा उससे आभास मिलने लगा था कि भाजपा तथा कांग्रेस के अलावा एक तीसरी शक्ति उभर रही है लेकिन अहम के कारण सब कुछ तबाह हो गया लगता है।
दिल्ली की जीत से केजरीवाल का दिमाग खराब हो गया लगता है। विनम्रता का मुखौटा उतर गया है। धर्मेन्द्र की तर्ज पर अपने वरिष्ठ साथियों को ‘कमीना’ कह रहे हैं। आज ‘आप’ विश्वास का संकट झेल रही है। नेतृत्व विभाजित है और विचारधारा के टुकड़े हो चुके हैं। आंतरिक लोकतंत्र खत्म है। विडम्बना देखिए कि जो पार्टी अन्ना हजारे के आंदोलन से लोकपाल के गठन के लक्ष्य को लेकर निकली थी उसी ने अपने लोकपाल को उस तरह बर्खास्त कर दिया जिस तरह आप आज एक सेवादार को भी नहीं कर सकते। शिकायत है कि भूषण तथा यादव केजरीवाल को संयोजक पद से हटाना चाहते थे, पर यह कोई पाप तो नहीं है? नरेन्द्र मोदी के पास एक पद है। सोनिया चाहतीं तो यूपीए में प्रधानमंत्री भी बन सकती थीं। अटलजी जैसे लोकप्रिय नेता के पास भी एक पद था फिर अरविंद केजरीवाल दो पद अपने पास रखने का प्रयास क्यों करें? सत्ता का एक व्यक्ति में केन्द्रीयकरण क्यों हो? अरविंद केजरीवाल का एकछत्र साम्राज्य क्यों कायम हो रहा है?
आप में आज कुर्सी में बना रहना सबसे अधिक महत्वपूर्ण बन गया है। पर आप तो सामान्य राजनीतिक दल था ही नहीं, वह तो राजनीति को स्वच्छ करने का आंदोलन था। अगर आप भी उसी राजनीति का हिस्सा बन जाओगे जिसे बदलने आप निकले थे तो परिवर्तन कैसे आएगा? जरूरी है कि अंदर जो सैद्धांतिक विरोधी हैं उन्हें संभाल कर रखा जाए क्योंकि वह आपको भटकने से बचाते हैं। इसीलिए आप को अरविंद केजरीवाल की ही नहीं, प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव जैसे लोगों की भी बहुत जरूरत है। उन्हें बाहर कर पार्टी का भारी नुकसान होगा क्योंकि तब केजरीवाल पर अंकुश रखने वाला कोई नहीं रहेगा और वह इंदिरा गांधी या मायावती या जयललिता या ममता बैनर्जी जैसे निरंकुशवादी बन जाएंगे। एक दूसरे से बहस की प्रवृत्ति तो ‘आप’ के डीएनए में है। यही इसका आकर्षण भी रहा है और इसे दूसरों से अलग बनाता है। इस डीएनए को बदल कर पार्टी का आकर्षण खत्म हो जाएगा। सही परम्परा नहीं पड़ी लगती। मूल्यों की तिलांजलि दी जा रही है। इसीलिए आज की हालत बारे कहा जा सकता है कि
छत्त डालने पर ही उन्हें आया ख्याल
कि नींव तो मकान की डाली नहीं!
आप को खड़ा करने में मिडल क्लास तथा युवा बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत योगदान है। वह वंशवाद तथा वर्तमान व्यवस्था का विरोध कर रहे थे। पर केजरीवाल मोरारजी देसाई तथा वीपी सिंह की ही तरह निराश कर रहे हैं। जो बदलाव की तड़प थी उसका क्या बना? जो सवाल करता है उसे साजिशकर्ता कहना अपने में असुरक्षा प्रकट करता है। केजरीवाल किस तरह असुरक्षित हैं वह उनके उस निर्णय से पता चलता है कि आप को दूसरे प्रदेशों में नहीं उतरना चाहिए। क्या उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से पूछा है कि वह क्या चाहते हैं? कार्यकर्ता देशभर में व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लडऩा चाहते थे लेकिन दिल्ली के बाद केजरीवाल ने घोषणा कर दी कि अब मोर्चा फतेह हो गया, सैनिकों की जरूरत नहीं रही। अब जो कोलकाता या मुम्बई या बेंगलुरू में आप के कार्यकर्ता हैं वह क्या करेंगे? पांच साल घर बैठे रहें और दिल्ली के अगले चुनाव का इंतजार करते रहें? अरविंद केजरीवाल के इस निर्णय से यह झलकता है कि वह सत्ता को किसी के साथ बांटने में विश्वास नहीं रखते। आखिर वह छोटी सी दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं वह नहीं चाहते कि प्रदेशों में उनके मुकाबले वाले उभर आएं इसलिए सारी आप के मालिक बन बैठे हैं।
मैं उनके द्वारा गालियां निकालने को बहुत महत्व नहीं देता। जिनका अपने पर नियंत्रण नहीं होता वह ऐसा ही करते हैं लेकिन उससे खतरनाक उनकी सत्ता की हवस है। भाजपा या कांग्रेस में ऐसी हरकतें सामान्य प्रक्रिया हैं लेकिन यह लोग आदर्शवाद का ढिंढोरा नहीं पीटते। खुद को आधुनिक भगत सिंह प्रस्तुत नहीं करते। इंकलाब जिंदाबाद का नारा नहीं लगाते। यही अरविंद केजरीवाल की त्रासदी है। वह उन आदर्शों का शिकार हो रहे हैं जिनका वह लाउड स्पीकर के साथ प्रचार करते रहे। उनके पांव भी मिट्टी के बने पाए गए। एक आंदोलन जो आदर्शवादी राजनीतिक दल बनने का वायदा करता रहा उसका पतन शर्मनाक गली की लड़ाई में हो रहा है। दिखावटी नैतिकता की पापड़ी उखड़ रही है। एक विशेष व्यक्ति पार्टी को अपनी जेब में रखना चाहता है इसलिए यह चेतावनी अरविंद केजरीवाल को देना चाहता हूं,
आईना तोडऩे वाले ये तुझे ध्यान रहे,
अक्स बंट जाएगा तेरा भी कई हिस्सों में!