Netaji ka Ruhasya

नेताजी का रहस्य

18 अगस्त 1945 को ताईवान के तिहोकु हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटना में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की ‘मौत’ तब से ही रहस्य रही है क्योंकि बहुत लोग हैं जो मानते हैं कि (1) उस विमान में बोस थे ही नहीं, (2) हादसा हुआ ही नहीं, (3) वह हादसे में बच निकले थे। चर्चा रही है कि वह रूस पहुंच गए जहां स्टालिन ने उन्हें कैद कर लिया था। यह भी चर्चा है कि उन्होंने जानबूझ कर अपनी मौत की अफवाह फैला दी थी। कई कहते रहे कि वह संन्यासी बन कर हिमालय में चले गए थे। कहा गया कि वह 1985 तक जीवित रहे और उनके अनुयायी उन्हें ‘भगवानजी’ के नाम से जानते थे। उनके किसी शूलमारी आश्रम में रहने की भी चर्चा थी। यह भी कहा गया कि वह 27 मई 1964 को जवाहरलाल नेहरू की मौत के समय उनके शव के पास देखे गए। एक तस्वीर को, जिसमें नेता जी की शकल वाले किसी व्यक्ति को वहां खड़े दिखाया गया, इसका प्रमाण बताया गया। क्योंकि लोगों में इस मामले को लेकर बहुत जिज्ञासा थी इसलिए सरकार ने दो बार आयोग बैठाए और 1956 में शाह नवाज तथा 1970 में जी डी खौसला आयोग का यह निष्कर्ष था कि नेताजी तिहाकु हवाई हादसे में मारे गए। 1999 में फिर जस्टिस एमके मुखर्जी की अध्यक्षता में आयोग बैठाया गया। उनकी रिपोर्ट अभी सरकार के पास बंद है लेकिन इस आयोग का मानना है कि 18 अगस्त 1945 को ताईवान के तिहोकु हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी। जस्टिस मुखर्जी यह बात खुले तौर पर कह चुके हैं। अर्थात् अगर दुर्घटना नहीं हुई तो नेताजी के मारे जाने की खबर भी झूठी है लेकिन फिर सवाल उठता है कि नेताजी कहां गए? अगर नेताजी उस जहाज में नहीं थे या वह बच निकले तो आज उनकी आयु 118 वर्ष की होती। संभव नहीं कि वह जीवित होंगे। फिर उनकी मौत कब और कहां हुई?
इस रहस्य को अब और बल मिल गया है क्योंकि यह समाचार बाहर आया है कि जवाहरलाल नेहरू तथा उनके बाद की लालबहादुर शास्त्री सरकारों ने 1948 से 1968 तक नेताजी के परिवार की जासूसी करवाई थी। उनके घरवालों की जासूसी का प्रकरण कई सवाल खड़े करता है। बड़ा सवाल है कि अगर 1945 में हवाई हादसे में नेताजी की मौत हो गई थी तो फिर तीन साल के बाद उनके परिवार की जासूसी शुरू करवाने का क्या तुक था? और यह जासूसी भी 20 साल क्यों चलती रही? क्या इसका कारण था, जो नेताजी के वंशज भी कह रहे हैं और पत्रकार एमजी अकबर का भी कहना है कि नेताजी उस हादसे में मारे नहीं गए थे और जवाहरलाल नेहरू को उनकी वापिसी से राजनीतिक खतरा था इसलिए परिवार की जासूसी करवाई गई? क्योंकि अगर नेताजी जिंदा होते तो परिवार से सम्पर्क स्थापित करते इसलिए परिवार पर नज़र रखी गई। लेकिन उलटा सवाल यह भी उठता है कि अगर नेताजी 1945 के हादसे में मारे नहीं गए तो वह वापिस देश क्यों नहीं लौटे? आखिर इस दौरान देश ने कई चुनौतियां देखीं। पाकिस्तान के साथ युद्ध हुए। चीन से हम 1962 में पराजित हुए। 1964 में नेहरूजी की मौत हो गई। नेताजी अगर वापिस आ जाते तो देश को संभाल सकते थे। नेताजी ने देश के प्रति अपना धर्म क्यों नहीं निभाया? जिस व्यक्ति ने देश के लिए इतने जोखिम उठाए संभव नहीं कि वह एक तरफ बैठ कर सारा तमाशा देखता रहा होगा। अगर वह जीवित थे तो देश न लौटने की उनकी क्या मजबूरी थी?
अर्थात् दोनों ही तरफ कई सवाल उठते हैं। यह सच्चाई है कि कांग्रेस को चलाने वाली त्रिमूर्ति, गांधी, पटेल तथा नेहरू, तीनों से सुभाष चंद्र बोस के सैद्धांतिक मतभेद थे पर 1944 में राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में नेताजी ने महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा था। बोस की राजनीतिक शैली को जरूरत से अधिक आक्रामक समझा जाता था। भाजपा चाहे इस मामले में जवाहरलाल नेहरू को खलनायक बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन सच्चाई है कि सरदार पटेल तो बोस को और भी कम पसंद करते थे। बोस को गांधी की धीमी नीतियों में विश्वास नहीं था पर पटेल अंत तक गांधी भक्त थे। गांधी अहिंसा में विश्वास रखते थे और बोस के लिए इटली का तानाशाह मुसोलिनी आदर्श था। 1939 में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया था। प्रतिनिधियों ने न गांधी की बात सुनी थी न पटेल की। जनता अंग्रेजों के खिलाफ सुभाष के आक्रामक रवैये को पसंद करती थी पर गांधी के नेतृत्व में त्रिमूर्ति ने सुभाष चन्द्र बोस को सफल नहीं होने दिया लेकिन उनकी छवि और उनकी लोकप्रियता को प्रभावित नहीं कर सके। अगले वर्ष ही नेताजी अंग्रेजों के पहरे से निकलने में सफल रहे। उसके बाद सुभाष चन्द्र बोस हीरो बन गए। नेताजी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था लेकिन वह दिल्ली नहीं पहुंच सके और बंगालियों में अभी भी यह हसरत है। अगले साल वहां विधानसभा चुनाव हैं उससे पहले यह जासूसी कांड फूट गया है। क्या सच्चाई कभी सामने आएगी? टोक्यो के रौकोनजी मंदिर में किसकी अस्थियां हैं? इस रहस्य में रूस की क्या भूमिका थी? सरकार के पास नेताजी से सम्बन्धित कई फाइलें बताई जाती हैं जो सार्वजनिक नहीं की गईं। कई फाइलें तो 50 वर्ष से भी पुरानी हैं इन्हें अब बंद रखने का क्या फायदा? हालत तो यह है कि 1999 में मुखर्जी आयोग को भी कई गोपनीय फाइलें नहीं देखने दी गई थीं। उस वक्त भाजपा की सरकार थी, कांग्रेस की नहीं। तो क्या जवाहरलाल नेहरू के बाद जितनी भी सरकारें आईं उन्होंने यह साजिश रची थी कि बोस को हवाई हादसे में मरे रहने दो? पर अगर गुप्त फाइलें खोल दी गईं और फिर भी लोग संतुष्ट न हुए? इन सवालों के जवाब नहीं मिले तो?
क्योंकि अब मामला सार्वजनिक तौर पर खुल गया है इसलिए बेहतर होगा कि सब कुछ सार्वजनिक कर दिया जाए। इतने दशकों के बाद मुझे विश्वास है कि हमारे लोग सच्चाई को स्वीकार कर लेंगे, चाहे उन्हें प्रिय लगे या अप्रिय, वह संतुष्ट हों या न हों।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.