
इनकी तो एक्सपायरी डेट भी निकल चुकी है
सारी जफ्फियां और गले लगा कर खिंचवाई तस्वीरें फिजूल गईं। अतीत की तरह कथित समाजवादी नेता फिर बिछड़ रहे हैं इस बार अंतर केवल यह है कि बिछोह मिलने से पहले हो रहा है। विशेष तौर पर बिहार के आने वाले चुनाव में भाजपा को चुनौती देने के लिए छ: पार्टियों के विलय की घोषणा की गई थी और यह भी कहा गया कि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सभी एक झंडे, एक चुनाव चिन्ह तथा एक नाम के नीचे चुनाव लड़ेंगे। कुछ ही सप्ताह में पता चल गया कि ‘तकनीकी कारणों’ से ऐसा नहीं होने वाला। वरिष्ठ समाजवादी नेता रामगोपाल यादव का कहना है कि अगर हम जल्दबाजी में विलय कर देते हैं तो यह उनकी समाजवादी पार्टी का मृत्यु वारंट जैसा होगा। ऐसा कह वह इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि चाहे बड़े भाई मुलायम सिंह यादव को नई पार्टी का नेता घोषित किया गया है पर खुद समाजवादी पार्टी के लोग अपना अस्तित्व बाकी कथित समाजवादियों की अराजकता के बीच मिटाना नहीं चाहते। लेकिन असली मसला सपा का नहीं है। असली मसला बिहार के चुनाव को लेकर नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद यादव की महत्वाकांक्षा के टकराव का है। झगड़ा कौन बनेगा मुख्यमंत्री का है। कानूनी रोक के कारण लालू प्रसाद यादव खुद तो मुख्यमंत्री बन नहीं सकते लेकिन इस बात की भी कोई संभावना नहीं कि वह नीतीश कुमार को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर देंगे।
असली बात है कि नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद यादव जितना भाजपा से नफरत करते हैं उतना ही उनमें आपसी अविश्वास भी है। नीतीश द्वारा दिल्ली में कुछ भाजपा मंत्रियों से मुलाकात तथा लालू प्रसाद यादव द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी जिन्होंने नीतीश के खिलाफ बगावत कर दी थी, को इस भाजपा विरोधी गठबंधन में शामिल करने की वकालत से यह अविश्वास बढ़ा है।
नीतीश एकमात्र नेता हैं जो आशावादी हैं क्योंकि वह जानते हैं कि अगर जनता परिवार मिल कर चुनाव नहीं लड़ता तो वह पुनरुत्थानशील भाजपा को रोक नहीं सकेंगे। लेकिन मामला तो बिहार की 243 सीटों के बंटवारे का है। पहले यह लगभग तय था कि नीतीश कुमार को भावी मुख्यमंत्री घोषित किया जाएगा पर अब लालू प्रसाद यादव पीछे हट गए हैं। इस पर नीतीश का यह पूछना था कि क्या विलय के रास्ते में रुकावट के कुछ और कारण भी हैं? दोनों, जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल, चाहते हैं कि सीटों के बंटवारे को लेकर मुलायम सिंह यादव कोई फार्मूला निकालें लेकिन सपा इस विवाद से पल्ला झाड़ती नज़र आ रही है। उन्हें बिहार से कुछ प्राप्ति नहीं होगी। जनता परिवार का मुखिया बनने से मुलायम सिंह अब प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। वह उत्तर प्रदेश के होने वाले चुनाव में किसी और को एक सीट भी देना नहीं चाहेंगे फिर वह इस पचड़े में क्यों पड़ें? वैसे यह नई बात नहीं। जनता परिवार बार-बार इकट्ठा होता है और बार-बार बिछड़ता है। लोगों का भी इनमें विश्वास नहीं रहा। गले लगने के बाद बिछडऩा इनका पुराना शुगल है।
वैसे भी इन सज्जनों के पास आधुनिक भारत के मतदाता को देने के लिए कुछ नया नहीं। मंडल आधारित राजनीति के दिन लद गए हैं। कांग्रेस इस विलय को लेकर उत्साहित थी लेकिन बिहार में खुद कांग्रेस की राजनीतिक हैसियत नहीं है वह तो केवल किसी के कंधों पर सवारी चाहती है। लेकिन सारा मामला परिवारवाद में फंस चुका है। मुलायम सिंह यादव तथा लालू प्रसाद यादव को अपने अपने परिवार की चिंता है।
मुलायम सिंह यादव फिर घिसी पिटी शैली में धर्मनिरपेक्षता के लिए लडऩे की बात कह रहे हैं। जनता को देने के लिए और कुछ नहीं है आपके पास? क्योंकि यह शुद्ध अवसरवाद की राजनीति है इसलिए लोगों में उत्साह नहीं है। यह ट्रेलर पहले देखा हुआ है। मुलायम सिंह यादव पर भी कितना भरोसा किया जा सकता है? अगर यूपीए सरकार 10 वर्ष काट गई तो इसमें मुलायम सिंह का बड़ा योगदान है जिनकी पार्टी निर्णायक समय में बार-बार वॉकआउट कर सरकार को बचाती रही। यह इस टोले की सबसे बड़ी समस्या है। विश्वसनीयता नहीं है। भरोसा नहीं कि यह लोग अधिक देर इकट्ठा रहेंगे। इनका इतिहास भी यही कहता है। शरद यादव ने एक इंटरव्यू में माना भी है कि ‘हमारी स्थिरता की कोई गारंटी नहीं…अगर जेपी तथा लोहिया लड़ते रहे तो इसे हम कैसे रोक सकते हैं? हम गारंटी नहीं दे सकते कि झगड़ा नहीं होगा। हम छ: बार टूटे हैं…हम लोग जो मर्ज कर रहे हैं वह मज़बूत नहीं।’ शरद यादव ईमानदारी के साथ वह हकीकत बता रहे हैं कि इस मोर्चे के स्थायी रहने की कोई गारंटी नहीं। अगर इनके नेताओं पर नज़र दौड़ाएं तो सब स्पष्ट हो जाएगा। एक पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा हैं। दो प्रधानमंत्री बनने के महत्वाकांक्षी, मुलायम सिंह यादव तथा नीतीश कुमार हैं। तीन भ्रष्टाचार के मामलों में संलिप्त पूर्व मुख्यमंत्री हैं, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और ओम प्रकाश चौटाला। दो, लालू तथा चौटाला को सजा मिल चुकी है। समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह परिवार का कब्जा है, समाजवादी कुछ नहीं रहा। मुलायम सिंह यादव, देवेगौड़ा, लालू प्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला सब वह नेता हैं जिनका समय गुजर गया। राजनीतिक एक्सपायरी डेट समाप्त हो चुकी है। घिसी पिटी विचारधारा के अलावा इनके पास देश को देने के लिए कुछ नहीं। फिर वही दल लाया हूं वाली बात है। केवल एक नेता है जो प्रासंगिक है, नीतीश कुमार। चाहे उन्होंने अपनी गोटियां बहुत गलत खेली हैं पर उनका अभी भी आकर्षण है क्योंकि लोग समझते हैं कि लालू के जंगलराज को समाप्त कर इन्होंने बिहार को सही रास्ते पर चलाया था।
इन सबको एक तरफ छोड़ कर देश की राजनीति आगे बढ़ गई। परिस्थिति बदल गई। जाति की राजनीति का समय खत्म हो गया। मंडल की राजनीति का समय खत्म हो गया। आज महत्वाकांक्षा की राजनीति का समय है। रोजगार, शिक्षा, सड़क, पानी, आवास को लेकर राजनीति हो रही है। नरेन्द्र मोदी सारा व्याकरण बदलने में सफल रहे हैं। पहले इन समाजवादियों के पास कांग्रेस विरोध का मंच था अब इनके पास भाजपा विरोध का मंच है। नकारात्मक राजनीति के यह माहिर हैं। किसी का विरोध यह बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं लेकिन अच्छा शासन देना इनके बस की बात नहीं। यह लोग अपने उजड़े चमन को फिर से बसाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इस बार तो बसने से पहले चमन उजड़ रहा है।
(यह लेख मैंने जनता परिवार के ताज़ा घटनाक्रम से पहले लिखा था लेकिन जो लिखा वह अब भी प्रासंगिक है।)
Two things emerge from the move of these groups
Sheer Opportunism of these ‘Samajvadis’ is camouflaged as SECULARISM
& A pack of jackals cannot face the Lion