पगड़ी अपनी संभालिएगा, यह दिल्ली है
दिल्ली बेवफा है, बेपरवाह है, बेरहम है, यह सब जानते हैं। सदियों से इसका यह इतिहास रहा है। नए लोग आते हैं, नए प्रसंग उठते हैं, नई साजिशें रची जाती हैं पर दिल्ली का स्वभाव नहीं बदलता। जो खुद को शक्तिशाली समझते हैं उन्हें भी आइना दिखा दिया जाता है। अरविंद केजरीवाल का हश्र देखिए। किस तरह सबको धमकाते रहे। सोचा था मैं दिल्ली का मालिक हूं कुछ भी कर सकता हूं कोई मुझे चुनौती नहीं दे सकता पर अब मालूम पड़ गया कि वह अपनी मर्जी का एक अफसर भी नहीं लगा सकते। अधिकार ही नहीं है। अब कभी राष्ट्रपति भवन गुहार लगाने पहुंचते हैं तो कभी गृहमंत्रालय। जब पहले जीतेन्द्र तोमर पर कार्रवाई हुई तो केजरीवाल चिल्ला उठे कि बदले की कार्रवाई हो रही है। प्रधानमंत्री को भी धमकी दे दी कि ‘मुझे राहुल गांधी मत समझिए।’ हालीवुड की पुरानी फिल्म याद आती है The mouse that roared अर्थात् वह चूहा जिसने दहाड़ लगाई। और अब जबकि स्पष्ट हो गया है कि तोमर की कई डिग्रियां जाली हैं तो आप के नेता कह रहे हैं कि तोमर ने हमें गुमराह किया। अब आप के एक और विधायक की फर्जी डिग्री का मामला सामने आ गया है और सोमनाथ भारती पर पत्नी के घोर उत्पीडऩ का मामला उठ रहा है तो दहाड़ भी शांत हो गई है।
अरविंद केजरीवाल का अपराध है कि दिल्ली में रहते हुए उन्होंने खुद को सर्व शक्तिमान मान लिया था। प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव जैसे सियाने जो उनकी महत्वाकांक्षा पर रोक लगा सकते थे, उनको बाहर निकाल दिया गया। याद रहे कि भूषण ने तोमर के मामले में चेतावनी दी थी पर केजरीवाल तब सत्ता में मदहोश थे। अनाम कम्पनियों से लाखों रुपए का चंदा प्राप्त करने के बारे भी उन्हें स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं। अब जबकि और विधायक सार्वजनिक राय के कटघरे में खड़े नज़र आ रहे हैं, दिल्ली के मुख्यमंत्री का अपना रुत्बा कम हो रहा है। कहते हैं,
हो जाता है जिनपे अंदाजे खुदाई पैदा
हमने देखा है कि वह बुत तोड़ दिए जाते हैं।
ध्यान अच्छा शासन देने से हट गया। शायद ही किसी को दिल्ली में यह भरोसा होगा कि आप सरकार अपने पूरे पांच साल काटेगी, चाहे भारी बहुमत है। याद रखिए राजीव गांधी का समय। विशाल बहुमत था। पूरे पांच साल भी काट गए लेकिन पांच साल के बाद कुछ नहीं बचा था। जो मित्र थे, अरुण नेहरू, अरुण सिंह, अमिताभ बच्चन, सब दूर हो गए या दूर कर दिए गए। विपत्ति के समय राजीव अकेले थे। यह दिल्ली है! इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में भारी विजय दिलवाई लेकिन परिस्थिति हाथ से निकल गई और एमरजेंसी लगानी पड़ी। 1977 चुनाव में मां-बेटा हार गए लेकिन जनता पार्टी के अंदर साजिशों के कारण उत्पन्न अस्थिरता से परेशान लोग 1980 में फिर इंदिरा गांधी को वापिस ले आए। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर संसद का सामना न कर सके। यही बुरा हश्र वीपी सिंह की जनता दल सरकार का हुआ देवीलाल ने ही उन्हें टिकने नहीं दिया। उसके बाद कुछ स्थिरता आई पर नरसिम्हाराव को कई प्रकार के स्कैंडलों का सामना करना पड़ा तो अटल बिहारी वाजपेयी के समय हवाला कांड हुआ। मनमोहन सिंह की सरकार को दिल्ली के दबाव ने बर्बाद कर दिया। बाद में सोनिया गांधी ने उनके प्रति बहुत सद्भावना दिखाई पर प्रधानमंत्री रहते उनके हाथ इस तरह बांध दिए कि वह प्रभावहीन हो गए।
मनमोहन सिंह सरकार के हश्र से वर्तमान सरकार को समझना चाहिए कि लोगों की नज़रों में उसकी छवि पर आंच नहीं आनी चाहिए। मैं सुषमा स्वराज-ललित मोदी प्रसंग का उल्लेख कर रहा हूं जिसको लेकर विपक्ष विदेश मंत्री का इस्तीफा मांग रहा है। यह परम्परा भाजपा द्वारा ही शुरू की गई है इसलिए उन्हें भी उसी कसौटी पर परखा जाएगा जिस पर पिछली सरकार को परखा गया था। इसमें कोई शक नहीं कि सुषमा स्वराज एक प्रतिभाशाली मंत्री हैं जिन्होंने चुपचाप अपना काम किया है। कोई प्रचार नहीं लिया बल्कि यमन से भारतीयों को निकाले जाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें श्रेय दिया और उनकी प्रशंसा की। इसलिए हैरानी है कि उनकी जैसी सियानी मंत्री ने ललित मोदी जैसे संदिग्ध व्यक्ति की मदद के लिए दखल दिया जो भारत में वांछित है। उनका कहना है कि ललिद मोदी लंदन में था और पुर्तगाल में अपनी पत्नी के कैंसर के आप्रेशन के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर के लिए जाना चाहता था। ‘मैंने केवल मानवीय दृष्टिकोण से मदद की है।’ यह बात तो सही है पर यह वही शख्स है जिस पर 700 करोड़ रुपए के मनी लांड्रिंग के आरोप हैं। 2010 से वह लंदन में है, भारत आने की हिम्मत नहीं। इसकी मदद करते वक्त निश्चित तौर पर प्रशासनिक नैतिकता का ध्यान नहीं रखा गया। याद रखिए कि भारत ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया था। विदेश मंत्री को तो उसे भारत लाकर कानून के सामने खड़ा करने का प्रयास करना चाहिए था। इस मामले में यह सरकार उतनी ही उदासीन रही है जितनी पिछली मनमोहन सिंह सरकार थी। उन्होंने भी ललित मोदी को भारत लाने और कानून के सामने खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया। क्या इसका कारण है कि कांग्रेस में भी ऐसे ताकतवर लोग हैं जो ललित मोदी से डरते हैं या उसके मित्र हैं?
इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि क्या भाजपा के उच्च स्तर पर कोई साजिशकर्ता है जो दूसरे के मामले उछाल रहा है? पहले पुत्र के कारण राजनाथ सिंह तथा फिर पूर्ति ग्रुप के कारण नितिन गडकरी पर भी निशाना लगाया जा चुका है। क्या भाजपा के अंदर से ही एक साल में तीन बड़े मंत्रियों को जवाबदेह बनाने की कोशिश की गई? ऐसा संभव है क्योंकि यह दिल्ली है, किसी की सगी नहीं। साजिश इसकी फितरत का हिस्सा है लेकिन अगर ऐसे रहस्योद्घाटन होते रहे तो सरकार के लिए मुश्किल पैदा हो जाएगी। वरिष्ठ मंत्रियों को कमजोर कर सरकार स्थिर नहीं रह सकती। लेकिन दिल्ली के बारे एक और अनोखी बात है कि यह एक विशिष्ट लोगों का क्लब है जहां राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठ ताकतवर लोग एक दूसरे की मदद भी करते हैं। भोपाल में गैस लीक होने से हजारों लोग मारे गए लेकिन वाल्टर एंडरसन को सरकारी विमान से भगा दिया गया। क्वात्रोची की मदद ही नहीं की बल्कि विदेशों में बंद उसके खाते भी खुलवा दिए गए। शायद सोचा होगा कि कहीं वह मुंह न खोल दे। लेकिन दिल्ली का असली चरित्र है कि वह साजिशों की राजधानी है यहां कुछ भी छिपा नहीं रहता।
आजकल तो वैसे भी बहुत मुश्किल है क्योंकि यह कानाफूसी का जमाना नहीं। ई-मेल का जमाना है और ई-मेल बहुत जल्द हैक हो जाती है और मीडिया तक पहुंचाने वाले शुभचिंतक बहुत मौजूद हैं। मीडिया की अपनी अलग राजनीति है। सत्ता के इस खेल में कोई भी काबू आ सकता है सुषमा स्वराज जैसा अनुभवी भी। जो इस खेल में लगे हुए हैं उन्हें गदर पार्टी के हीरो लाला हरदयाल के यह शब्द याद करवाना चाहता हूं,
पगड़ी अपनी संभालिएगा मीर,
और बस्ती नहीं यह दिल्ली है!