इफतार की राजनीति
पवित्र रमज़ान के महीने में सूर्यास्त के बाद इकट्ठे मिलकर रोज़े तोडऩे का मौका अब हमारे देश में एक बड़ा ‘पोलिटिकल स्टेटमैंट’ बनता जा रहा है। किसने इफतार पार्टी दी, किसने नहीं दी, कौन शामिल हुआ, कौन नहीं हुआ, दुर्भाग्यवश यह बड़ी चर्चा का विषय बन गया है। जो मौका बड़े-छोटे सबका इकट्ठे मिल कर रोज़ा तोडऩे का है वहां हमारे ताकतवर और रईस राजनेताओं ने अपनी अपनी राजनीति के विस्तार का साधन बना लिया है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की इफतार पार्टी अशोक होटल के कनवेंशन हॉल में आयोजित की गई जिसमें आम मुसलमान कदम भी नहीं रख सकता। बिल कई लाख रुपए आया होगा। इफतार के साथ जो सादगी और भाईचारा की गरिमा जुड़ी हुई है वह गायब थी क्योंकि सब कुछ भव्य था। अब इन इफतार पार्टियों की चीर-फाड़ की जा रही है। विशेष तौर पर दो बातों को लेकर चर्चा रही। एक, सोनिया गांधी की इफतार पार्टी तथा दूसरा, प्रधानमंत्री मोदी का न केवल इफतार का आयोजन न करना बल्कि खुद भी किसी इफतार पार्टी में न जाना यहां तक कि वह राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दी गई इफतार पार्टी में भी ‘व्यस्तता’ के कारण शामिल नहीं हुए।
इफतार पार्टी का रिवाज जवाहरलाल नेहरू ने शुरू किया। वह मुसलमानों को संदेश देना चाहते थे कि पाकिस्तान के अलग होने के बाद भी भारत सैक्युलर रहेगा, वह हिन्दू राष्ट्र बनने नहीं जा रहा। लेकिन अगले ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने यह परम्परा तोड़ दी। वह इफतार पार्टी से दूर रहे। शुरू में इंदिरा गांधी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया पर बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के प्रभाव में उन्होंने भी इफतार पार्टी शुरू कर दी जो रिवाज प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बंद कर दिया। उनके बाद नरेन्द्र मोदी तक सब प्रधानमंत्रियों ने इफतार पार्टी दी यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी भी इनका आयोजन करते रहे।
संसद के आने वाले तूफानी मानसून अधिवेशन से पहले इफतार पार्टी द्वारा सोनिया गांधी बताना चाहती थीं कि (1) कांग्रेस अभी भी राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक है और (2) विपक्ष की एकता की केवल वह ही सूत्रधार हो सकती है लेकिन सवा घंटे में खत्म हो गई यह इफतार तो बिलकुल उलटा प्रभाव दे गई। चाहे मीडिया के एक वर्ग ने इस इफतार पार्टी को बहुत बढ़ा चढ़ा कर बताया। राजदीप सरदेसाई के अनुसार नीतीश कुमार के साथ विपक्षी नेताओं का बड़ा ‘कंटिनजेंट’ अर्थात् दस्ता शामिल होगा पर बड़े नेताओं में तो केवल नीतीश कुमार, शरद पवार या उमर अब्दुल्ला ही थे। न मुलायम सिंह यादव आए न उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि ही आया, न ही मायावती या उनका प्रतिनिधि आया, न ममता बैनर्जी खुद आईं और न लालू प्रसाद यादव ही आए, न नवीन पटनायक, न अरविंद केजरीवाल और न ही सोनिया के कभी मित्र रहे वामदल ही उपस्थित थे। फिर विपक्षी नेताओं के ‘बड़े दस्ते’ वाली बात समझ नहीं आई। अगर सोनिया गांधी की इफतार पार्टी तथा कांग्रेसियों के उखड़े चेहरे कुछ बता गए तो यह कि कांग्रेस अब विपक्षी एकता का चुम्बक नहीं रही और न ही सोनिया गांधी ही विपक्ष की महारानी हैं। प्रभाव कम हो रहा है।
अगर यह सामान्य इफतार पार्टी रहती और आम मुसलमानों से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास होता तो इतना धक्का न पहुंचता। जो नहीं आए वह अधिक नुमायां थे। वामदलों ने भी संदेश दे दिया कि संसद के बाहर उनका सोनिया गांधी तथा उनकी पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं। यह भी दिलचस्प है कि सोनिया की पार्टी में सामान्य मुस्लिम नेता भी नज़र नहीं आए, केवल राजनेता थे। और गिले शिकवे मिटाने वाले इस मौके पर सोनिया गांधी ने पिछले साल की ही तरह इस साल भी प्रधानमंत्री मोदी या उनके किसी मंत्री को न्यौता नहीं दिया।
इस्लाम के शब्दकोष में बताया गया है, ‘इफतार एक सामाजिक घटना है जिसमें आप दोस्तों को तथा समाज के दूसरे लोगों को बुलाते हैं। यह भी सामान्य है कि आप अपने से कम खुशकिस्मत लोगों को दावत दो।’ इस परिभाषा में कहीं नहीं बताया गया कि आपने इसका राजनीतिक इस्तेमाल भी करना है। अपने से कम खुशकिस्मत लोगों को बुलाने का तो सवाल ही नहीं। और यह इफतार पार्टियां वह लोग नहीं देते जिन्होंने खुद रोज़े रखे हुए हैं। नई दिल्ली की इफतार पार्टियां राजनीतिक दलों के बड़े लोग देते हैं उनके लिए नहीं जिन्होंने रोज़े रखे हैं बल्कि हैवी वेट नेताओं के लिए। पूरा दिखावा है। फिर अगर प्रधानमंत्री मोदी इन इफतार पार्टियों से दूर रहते हैं तो अनुचित क्या है? कम से कम वह अधिक ईमानदार हैं अनावश्यक तमाशा नहीं करते। मीडिया का एक वर्ग जो खुद को उदारवादी तथा सैक्युलर बताने में लगा रहता है, ने तो यह प्रभाव दिया कि जैसे इस राजनीति तथा मजहब के घालमेल से दूर रह कर मोदी ने देश के सैक्युलरवाद को खतरे में डाल दिया। पर यह कथित सैक्युलर मीडिया इतना अपसॅट क्यों है? मोदी ने वही किया जो लालबहादुर शास्त्री या मोरारजी देसाई ने भी किया था इनकी धर्मनिरपेक्षता पर तो सवाल नहीं उठाए गए।
धर्म तथा उसके साथ जुड़ी परम्पराएं और रिवाज एक व्यक्ति विशेष की अपनी इच्छा पर निर्भर करते हैं इनमें राजनीति घसीटने या कोई और मतलब निकालने की जरूरत नहीं। अगर इफतार पार्टी जरूरी है तो दीवाली, क्रिसमस या गुरुपर्व पर भी ऐसे ही भव्य आयोजन होने चाहिए। पर यहां इफतार पार्टी में शामिल होना या न होना सैक्युलरवाद का मापदंड समझा जाता है जबकि यह मात्र ‘फोटो-ऑप’ ही है। अगर नरेन्द्र मोदी भी भेड़चाल में शामिल होते तो भी बुरा नहीं था उन्होंने इससे इन्कार कर दिया तो यह भी बुरा नहीं। आलोचना की या तड़पने की तो जरूरत ही नहीं। हमारी धर्मनिरपेक्षता इतनी नाजुक नहीं कि एक इफतार पार्टी में शामिल न होने या मुस्लिम टोपी न डालने से खतरे में पड़ जाएगी। मोदी अपनी विकासोन्मुखी हिन्दू राष्ट्रवादी की छवि को कायम रखना चाहते हैं। अगर दूसरे नेता मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं तो उन्हें भी अपने मुताबिक इसकी इज़ाजत होनी चाहिए।
कई लोग इफतार कार्ड खेलने का प्रयास करते हैं पर यह समझते नहीं कि आपके टोपी डालने या अशोका होटल के कनवैंशन हॉल में पार्टी देने से ही मुसलमान संतुष्ट नहीं हो जाएंगे। लोकसभा के चुनाव भी यह संदेश दे गए हैं कि यह समुदाय भी बाकियों की तरह अपनी आर्थिक तरक्की पर केन्द्रित है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं, नौकरियां चाहिए, अच्छी शिक्षा चाहिए तथा सुरक्षा चाहिए। आपकी इफतार पार्टी से उनका पेट नहीं भरता। वैसे भी जो लोग इन शानदार इफतार पार्टियों में शामिल होते हैं उन्हें अपनी आयु तथा वज़न को देखते हुए कम ही खाना चाहिए।
Nice analysis
The eagerness among politicians of all hues to host Iftaar parties is also a ‘signifier’ of how deep rooted pseudo-secularism is in Indian politics.
Modi has done well by restraining himself from falling prey to this useless “fashion” started by J L Nehru.