देश जाए भाड़ में?
जिस वक्त गुरदासपुर के दीनानगर कस्बे में पंजाब पुलिस के अधिकारी तथा जवान बहादुरी से आतंकवादियों का मुकाबला कर रहे थे हमारी संसद में कुछ विपक्षी सांसद हंगामा और हुल्लड़बाजी कर रहे थे। यह रवैया केवल शर्मनाक तथा गैर जिम्मेवार ही नहीं बल्कि देश विरोधी भी है। क्या देश की खातिर कुछ क्षण के लिए आपकी राजनीति स्थगित नहीं की जा सकती? क्या बदले की राजनीति में देश को बर्बाद कर देना है? क्या कांग्रेस के पास केवल विघ्न ही एकमात्र हथियार है? अध्यक्ष द्वारा 25 कांग्रेसी सांसदों के निलंबन को सोनिया गांधी ने काला दिन कहा है पर इस अधिवेशन में ‘सफेद दिन’ कौन सा था? जो कदम अब अध्यक्ष ने उठाया वह तो बहुत पहले उठाया जाना चाहिए था क्योंकि सदन को सुचारू रूप से चलाना अध्यक्ष की जिम्मेवारी है। ब्रिटिश संसद में भी आयरिश सांसदों को विघ्न डालने के लिए मार्शल उठा-उठा कर सड़क पर पटकते रहे। राम मनोहर लोहिया तथा मधु लिम्ये जैसे प्रमुख सांसद भी निलंबित हो चुके हैं। यहां तो वह पार्टी जिसे पिछले साल ही जनता रद्द कर चुकी है वह खुद को प्रासंगिक सिद्ध करने के लिए संसद को चलने नहीं दे रही। ऐसे अहंकार का तो अब आधार ही नहीं रहा। संसद किसी एक परिवार की जायदाद नहीं, यह भारत की जनता की सर्वोच्च संस्था है। हमारी मांग है कि संसद चले।
56 दिन के अज्ञातवास से लौटने के बाद राहुल गांधी का हम नया अवतार देख रहे हैं। वह आक्रामक हैं, तीखे हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी हमला करने से परहेज नहीं कर रहे। सुषमा स्वराज को तो उन्होंने ‘क्रिमिनल’ तक कह दिया है। उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे तथा शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे को लेकर अड़ी हुई है। संसद ठप्प है और देश का अहित हो रहा है पर कांग्रेस नेतृत्व बेफिक्र है। उनका कहना है कि वह संसद को तब तक नहीं चलने देंगे जब तक भाजपा के यह तीन नेता इस्तीफा नहीं दे देते लेकिन सवाल तो यह है कि क्या इस नीति से देश तथा खुद कांग्रेस पार्टी का फायदा हो रहा है? इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा जवाबदेह है। इन तीन नेताओं के व्यवहार ने भाजपा की छवि को मलिन किया है। व्यापमं जैसा खूनी घोटाला तो अमान्य है। हमने उत्तर कोरिया नहीं बनना। पर क्या इन तीन मामलों को लेकर संसद ठप्प करना समझदारी है विशेष तौर पर जब सुषमा स्वराज का कहना है कि उन्होंने ललित मोदी की सिफारिश नहीं की पर कांग्रेस सुनने को ही तैयार नहीं और बाकी दो मामले प्रदेशों से सम्बन्धित हैं जिनका निपटारा विधानसभा में होगा। फांसी लगने से पहले अभियुक्त को भी अपनी बात कहने का अधिकार है पर यहां तो केन्द्रीय मंत्री को भी अपनी बात कहने से रोका जा रहा है। नरेन्द्र मोदी दो निर्वाचित मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त नहीं कर सकते जबकि उनके खिलाफ एफआईआर तक नहीं है। सरकार देश की भलाई के लिए जो आर्थिक कदम उठाना चाहती है वह उठा नहीं पा रही। क्या यही राहुल गांधी और उनकी पार्टी चाहती है?
प्रभाव तो यह भी मिल रहा है कि देश जाए भाड़ में, हम अपनी राजनीति से बाज़ नहीं आएंगे। भाजपा से कोई सहानुभूति नहीं क्योंकि पिछली सरकार के दौरान उन्होंने भी यही किया था। सुषमा स्वराज तथा अरुण जेतली जो तब विपक्ष के नेता थे, ने रुकावट डालने को ‘न्यायोचित लोकतांत्रिक हथियार’ कहा था पर देश तो भाजपा-कांग्रेस की अशोभनीय खींचातानी से बड़ा है। यहां देश के विकास को रोकने का प्रयास किया जा रहा है। क्या कांग्रेस के नेतृत्व को यह घबराहट है कि अगर नरेन्द्र मोदी सफल हो गए तो 2019 में भी उनकी बारी नहीं आएगी इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेवारी निभाने तथा भविष्य की कार्ययोजना लागू करने से रोकने का घटिया प्रयास किया जा रहा है?
अनुमान है कि अगर जीएसटी पास होता है तो अर्थव्यवस्था में 1.5 प्रतिशत की बढ़ौत्तरी होगी। इससे हजारों रोजगार पैदा होंगे पर प्रभाव अब यह मिल रहा है कि कांग्रेस का हताश नेतृत्व यह ही नहीं चाहता क्योंकि इससे भाजपा को राजनीतिक फायदा मिलेगा इसलिए कोई न कोई बहाना बना कर महत्वपूर्ण आर्थिक कदम रोके जा रहे हैं। मीडिया के एक वर्ग ने भी राहुल गांधी को जोश से भर दिया है पर शोर मचाने के अतिरिक्त या संसद को रोकने के अतिरिक्त राहुल गांधी की कांग्रेस की रणनीति क्या है? हैडलाईन तो मिल रही है पर इससे आगे क्या है? केवल नकारात्मक राजनीति की जा रही है। पर कब तक? यह नहीं कि भाजपा में हालत सही है। यशवंत सिन्हा, शांता कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोग विरोध की आवाज उठा रहे हैं। पार्टी में संवाद की कमी है, जैसा शांता कुमार ने भी कहा है। बुजुर्ग तथा अनुभवी नेताओं को खुड्डेलाईन लगाना महंगा साबित हो रहा है। प्रधानमंत्री की इन मुद्दों पर खामोशी से भी नुकसान हो रहा है। कृषि मंत्री किसानों की खुदकशी के लिए नपुंसकता, नशा तथा असफल प्रेम प्रसंग को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं। जहां ऐसे मंत्री हों वहां विरोधियों की जरूरत नहीं।
राहुल गांधी के लिए लम्बी लड़ाई लडऩा मुश्किल होगा क्योंकि (1) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कहने को कुछ नहीं। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। (2) बहुत जल्द देश इस टकराव से ऊब जाएगा और चाहेगा कि संसद में तमाशा खत्म हो ऐसा होना शुरू हो गया है। (3) और क्या कांग्रेसजन लम्बे टकराव के लिए तैयार भी हैं विशेष तौर पर जब सरकार ने उलटे वार शुरू कर दिए? आगे बिहार के चुनाव हैं जहां कांग्रेस चौथे नम्बर पर रहेगी। यही स्थिति उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में भी होगी। असम में कांग्रेस से सत्ता छिन सकती है। पंजाब को छोड़ कर कहीं भी कांग्रेस पार्टी को सफलता मिलने की आस नहीं। ऐसी पार्टी के नेता कब तक संसद में शोर मचाते रहेंगे जिसको जमीन पर समर्थन नहीं है? देर सबेर इस हंगामे की नीति पर law of diminishing returns अर्थात् घटने वाले मुनाफे का कानून लागू हो जाएगा। अभी से मांग उठ रही है कि जो सांसद संसद नहीं चलने दे रहे उन पर ‘नो वर्क नो पे’ का सिद्धांत लागू किया जाए।
राहुल गांधी की इस नकारात्मक राजनीति के बीच उनकी अपनी ताजपोशी फिर पीछे डाल दी गई है। ताजपोशी सही माहौल के इंतजार में है लेकिन सवाल तो यह है कि लीडर माहौल बनाता है या माहौल लीडर बनाता है? बहरहाल देश फंस गया है। इन लोगों को कब समझ आएगी कि देश भाजपा बनाम कांग्रेस से बहुत बड़ा है। अपनी तुच्छ राजनीति के लिए हमारा विकास रोकने वाले बख्शे नहीं जाएंगे और न बख्शे जाने ही चाहिए। भारत की जनता केवल मूकदर्शक ही नहीं, हमारा हक है फसल-ए-बहार पर।
क्या सटीक विश्लेषण किया है? देशहित में संसद में काम होना जरूरी है । संसद को ठप्प करके केवल अपनी राजनीति चमकाना देशवासियों के साथ विश्वासघात है। इस गतिरोध के लिए सत्तापक्ष से कहीं अधिक विपक्ष की भूमिका साफ नजर आ रही है।