महात्माजी इनसे पीठ कर लीजिए
जब ब्रिटिश संसद में भारत की आजादी को लेकर बहस हो रही थी तो उनके पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘यह तिनकों से बने लोग हैं…यह आपस में लड़ते झगड़ते रहेंगे और भारत राजनीतिक कलह में खो जाएगा।’ अब जबकि भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पछाड़ चुकी है दुख है कि जो बात उस कट्टर भारत विरोधी ने कही थी कि ‘भारत राजनीतिक कलह में खो जाएगा’ उसे सही सिद्ध करने में हमने पूरा जोर लगा दिया है। हाल का संसद अधिवेशन देश को निराश तथा भौचक्का छोड़ गया है। ललित मोदी जैसे मामूली व्यक्ति के कारण संसद ठप्प रही और महत्वपूर्ण आर्थिक कदम रोक दिए गए। जीएसटी जो खुद मनमोहन सिंह तथा पी. चिदम्बरम के दिमाग की उपज थी, को ही कांग्रेस का अनाड़ी नेतृत्व रोक कर बैठ गया। 16 दिन संसद में कामकाज नहीं हुआ क्योंकि सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी ने इसके चलने की इज़ाजत नहीं दी। ठीक है लोग इस गैर जिम्मेवार तथा देश विरोधी रवैये की सज़ा देंगे पर नुकसान तो हो गया।
सवाल केवल कांग्रेस के आत्मघाती नेतृत्व से ही नहीं है, सवाल सरकार से भी है कि भाजपा को पहली बार इतना बहुमत मिला और कांग्रेस को अपने इतिहास में पहली बार लोगों ने इतना कम समर्थन दिया, फिर सरकार संसद चलाने में असमर्थ क्यों रही? देश ने उत्साह के साथ आप को वोट दिए थे कि क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा लेकिन आज वह आशा नज़र नहीं आ रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिले से राष्ट्र को सम्बोधित किया पर पिछले साल जैसा उत्साह क्यों नहीं था? न उनमें, न जनता में। न प्रधानमंत्री ने संसद में गतिरोध पर ही बात की, न ही उन्होंने पाक फायरिंग में मर रहे नागरिकों के बारे कुछ कहा। उन्होंने बैंकाक में हुए आतंकी विस्फोट पर ट्वीट किया पर न दीनानगर और न ही ऊधमपुर की घटना तथा न ही नियंत्रण रेखा तथा सीमा पर पाक फायरिंग में मारे गए हमारे नागरिकों के बारे उन्होंने मुंह ही खोला। दुबई में उन्होंने जरूर कहा कि आतंकवाद के खिलाफ ‘निर्णायक लड़ाई’ का समय आ गया है। इसका मतलब क्या है?
अब घबराहट है कि शरदकालीन अधिवेशन का भी यही हश्र होगा। उस वक्त तो कांग्रेस तथा उसका साथी विपक्ष ‘इस्तीफा नहीं तो संसद नहीं’ पर अड़ा हुआ था लेकिन जब बहस हुई तो कांग्रेस के पास सही जवाब नहीं था। मल्लिकार्जुन खडग़े प्रभावी नहीं और राहुल गांधी का जवाब कि ‘सुषमाजी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा बेटा…’ इत्यादि तो एकता कपूर के धारावाहिक का हिस्सा नज़र आता है। कांग्रेस को तीन तरह का नुकसान हुआ। एक, यह साबित हो गया कि मनमोहन सिंह सरकार ने चार साल ललित मोदी को भारत लाने का सार्थक प्रयास नहीं किया। अब नरेन्द्र मोदी सरकार उसके खिलाफ रैड कार्नर नोटिस निकालने जा रही है जिससे उसे भारत ला कर देश के कानून के आगे खड़ा किया जा सकेगा।
दूसरा नुकसान यह हुआ कि राहुल गांधी का नेतृत्व एक बार फिर अनाड़ी साबित हो गया। राजनीति में एकदम टॉप गियर में नहीं जाते विशेषतौर पर जब आप के पास केवल 44 सांसद ही हों। यह अच्छी बात है कि वह संसद की कार्रवाई में दिलचस्पी लेने लगे हैं पर कुछ समझदारी तो होनी चाहिए। ‘चढ़ जा बच्चा सूली पे, भगवान भली करेगा’ की नीति कांग्रेस को बिलकुल खत्म कर देगी। उनकी राजनीति भाजपा के उन नेताओं की कुर्सी पक्की कर गई है जिनका वह इस्तीफा मांग रहे थे उलटा अब आरोप उन पर चिपक गया कि वह देश की विकास यात्रा में अवरोधक बन रहे हैं। तीसरा, उनके कारण उनके परिवार का वह अतीत फिर जीवित हो गया जो जबरदस्ती दफना दिया गया था। सुषमा स्वराज ने सवाल कर कि सोनिया गांधी ने क्वात्रोचि से कितने पैसे लिए या राजीव गांधी ने यूनियन कारबाइड के एंडरसन को भारत से क्यों भगा दिया, परिवार का वह अतीत खोल दिया जिसे वह भूलना चाहेंगे। कांग्रेस का हाल है कि न खुदा ही मिला, न वसाल-ए-सनम। कुछ हासिल नहीं हुआ और अतीत फिर जाग उठा।
पर यह सरकार राहुल गांधी की चीखने वाली ब्रिगेड को क्यों संभाल नहीं सकी? इसका बड़ा कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के अंदर वह नेतृत्व नहीं दिया जो उनसे अपेक्षित था। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू लगभग रोजाना संसद आते थे पूरी दिलचस्पी लेते थे। कई बार तो मंत्रियों के जवाब भी खुद देते थे। जब 1962 में हम चीन से हारे और आशंका थी कि वह असम भी निगल जाएगा तो असम के सांसदों ने नेहरू को गालियां दीं पर वह चुपचाप बैठ सुनते रहे। अफसोस है कि नरेन्द्र मोदी ने जवाहरलाल नेहरू बनने की जगह मनमोहन सिंह बनना पसंद किया। जब मोदी ने संसद की दहलीज पर माथा टेका था तो बहुत आशा थी लेकिन उनका तो संसद में आना ही अपवाद बन गया। संसद में प्रभावशाली नेतृत्व अरुण जेतली ने दिया जबकि प्रधानमंत्री दूर रहे। उन्हें संसद की कार्रवाई में हिस्सा इसलिए नहीं लेना क्योंकि राहुल गांधी इसकी मांग करते रहे हैं, उन्हें संसद की कार्रवाई में हिस्सा इसलिए लेना है क्योंकि हम देश की जनता उनसे यह अपेक्षा करते हैं। हम उन्हें संसद में सुनना चाहते हैं। हर बात भाजपा बनाम कांग्रेस नहीं होती। हम जो भारत की जनता है, का भी कुछ हक है। हमारा हक है दमदार नेतृत्व पर।
अगर कोई देश लोकतांत्रिक परिवर्तन के लिए तैयार था तो वह 2014 का भारत था। नरेन्द्र मोदी हमें किधर भी ले जाते हम जाने को तैयार थे। 2015 के मध्य तक पहुंचते पहुंचते यह भावना क्यों कमजोर पड़ गई? जोश क्यों कम हो गया? प्रशासन में कोई बदलाव नहीं आया। न पुलिस के कामकाज में सुधार हुआ न अफसरशाही में। ऊपर भ्रष्टाचार रुक गया पर नीचे परिवर्तन नहीं आया। जमीन पर स्थिति अभी बदली नहीं। आतंकवादी उसी तरह जारी है। अभी चार वर्ष पड़े हैं प्रधानमंत्री को यह माहौल बदलना होगा। केवल अपने लिए नहीं, देश के लिए। पी.वी. नरसिम्हा राव जिन्हें राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त नहीं था उन्होंने देश की आर्थिक दिशा बदल दी थी। ऐसे ही नेतृत्व की नरेन्द्र मोदी से आशा है। वह ऐसा कर सकते हैं जो बांग्लादेश तथा नगा बागियों के साथ समझौतों से पता चलता है पर उलटा हम यह दर्दनाक दृश्य देख कर हटे हैं जहां सत्तारूढ़ गठबंधन के सांसद ही ‘लोकतंत्र बचाओ’ का नारा लगाते हुए महात्मा गांधी की प्रतिमा तक मार्च करते नज़र आए। ऐसा शायद पहली बार हुआ है। सरकार इतनी बेबस क्यों है कि उसके सांसदों को इस तरह मार्च करना पड़ रहा है? हमने आपको संसद में दमदार सरकार देने के लिए भेजा था या सड़क पर तख्तियां उठा लाचार लोगों की तरह महात्मा गांधी की प्रतिमा की तरफ मार्च करने के लिए? उसी दिन कांग्रेस ने भी गांधी की प्रतिमा पर प्रदर्शन किया। अब तो महात्माजी से ही निवेदन है कि वह दोनों की तरफ पीठ कर लें। एक वह हैं जो देश की तरक्की को रोकने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरे वह हैं जो देश को सही चलाने का अपना धर्म नहीं निभा रहे। हमें दोनों से शिकायत है।