उनकी, उनके द्वारा, उनके लिए
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी का कार्यकाल एक वर्ष बढ़ाने पर किसी ने खूब ट्वीट किया है, ‘सोनिया ने सोनिया के सामने सोनिया को एक साल और अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे सोनिया ने मंजूर कर दिया!’ यह हास्यस्पद स्थिति देश की सबसे पुरानी पार्टी की है जो एक परिवार की जेबी पार्टी बन कर रह गई है। जैसे इब्राहिम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा दी थी उसी तरह कांग्रेस को भी परिभाषित किया जा सकता है, ‘गांधी परिवार की, गांधी परिवार के द्वारा, गांधी परिवार के लिए!’ जो पार्टी अपने इतिहास के सबसे कम आंकड़े, 44 सीटों, पर आकर गिर चुकी है उसकी यह दयनीय स्थिति बन गई है कि वह उसी नेतृत्व के सहारे है जिसे लोग लोकसभा के चुनाव में बुरी तरह से रद्द कर चुके हैं। अगर कोई और सामान्य पार्टी होती तो ऐसी कमरतोड़ पराजय के बाद अध्यक्ष को पद से हटा देती या वह खुद इस्तीफा दे देते। यह भी दिलचस्प है कि सोनिया गांधी के कार्यकाल को बढ़ाने का निर्णय उस कार्यकारिणी ने लिया जिसके सदस्यों का चुनाव सोनिया ने किया था। वास्तव में जब से सोनिया गांधी अध्यक्ष बनी हैं पार्टी में किसी स्तर पर चुनाव नहीं हुए। कार्यकारिणी का खुद का कार्यकाल भी खत्म हो चुका है। अधिकतर सदस्य कोई चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन उनके बल पर सोनिया और राहुल, जिन्हें हाईकमान कहा जाता है, पार्टी को चला रहे हैं। एक समय यह परिवार इस पार्टी की ताकत अवश्य था पर अब तो उलटा हो रहा है। वे इस आशा में हैं कि नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा गलती करेंगे और फल खुद टूट कर उनकी गोद में गिर जाएगा। अभी तक सरकार ने कोई ऐसी कमजोरी नहीं दिखाई जिसका कांग्रेस को फायदा हो सके। दिल्ली विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों में एबीवीपी की जीत भी बताती है कि कम से कम शहरी युवा का भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी से मोहभंग नहीं हुआ।
कांग्रेस केवल लोकसभा चुनाव ही नहीं हारी बल्कि हरियाणा, महाराष्ट्र जैसे विधानसभा चुनाव भी हार चुकी है। हाल ही में वह मध्यप्रदेश, राजस्थान और बेंगलुरु के नगरपालिका चुनाव हार कर हटी है। व्यापमं घोटाले के बावजूद शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा मध्यप्रदेश में जीत गई। इसका अर्थ यही है कि भाजपा से चाहे लोग नाराज हों वह कांग्रेस को विकल्प नहीं समझते। दूसरी पार्टियों के पास तेज तर्रार नेता हैं गांधी परिवार को केवल यैसमैन चाहिए। कांग्रेस की असली समस्या है राहुल गांधी। उनकी हालत भी ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स की तरह है जो गद्दी पर बैठना तो चाहते हैं पर मां छोड़ने को तैयार नहीं। एलिजाबेथ की ही तरह सोनिया गांधी को अपने पुत्र की क्षमता पर भरोसा नहीं लगता इसीलिए मामला लटकाया जा रहा है।
राहुल गांधी को पार्टी उपाध्यक्ष बने हुए 11 वर्ष हो गए। दो महीने के बाद बिहार चुनाव हैं और सब जानते हैं कि वहां भी कांग्रेस की सफाई होने वाली है। मोदी सरकार अभी तक अपने सभी वायदे पूरे नहीं कर सकी लेकिन लोगों में आशा है। OROP पर फैसला कर प्रधानमंत्री ने साबित कर दिया कि वह निर्णायक हैं। कांग्रेस के पास आलोचना के सिवाय कुछ नहीं बचा। कांग्रेस के लिए बिहार चुनाव के परिणाम का पूर्वानुमान लगाते हुए राहुल की ताजपोशी नहीं की गई ताकि उलटे परिणाम की प्रतिक्रिया से उन्हें बचाया जा सके, पर कब तक? कब तक राहुल विपरीत परिणाम की आशंका से अपनी मां के पीछे छिपे रहेंगे? ‘जहर का प्याला’ पीने से कब तक बचते रहेंगे? आगे पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश जैसी विधानसभाओं के चुनाव हैं। वहां भी यही हाल होगा। तो राहुल इंतजार ही करते रहेंगे? राज्यसभा में अपनी पुरानी गिनती के बल पर सरकारी कदमों को राहुल ने फिलहाल रोक दिया था। इसका भी अच्छा संदेश नहीं गया कि विपक्ष देश की प्रगति रोक रहा है।
अपनी किताब ‘द एक्सीडैंटल प्राइम मिनिस्टर’ में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू ने मनमोहन सिंह की यह टिप्पणी लिखी है, ‘देखिए आप एक बात समझ जाइए, मैंने इससे समझौता कर लिया है। सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते।’ अर्थात् पूर्व प्रधानमंत्री समझा रहे थे कि उनकी नज़र में एक ही सत्ता का केन्द्र है और वह हैं सोनिया गांधी। 10 वर्ष जो मनमोहन सिंह की सरकार रही, सोनिया गांधी ने पर्दे के पीछे रह कर खूब सत्ता चलाई। उनका वैभव किसी प्रधानमंत्री से कम नहीं था। इतना नियंत्रण तो इंदिरा गांधी का भी नहीं था सोनिया तो सर्वशक्तिमान बन गईं। इस परिवार का प्रभाव इसीलिए था क्योंकि यह चुनाव जिता कर देता था लोकसभा चुनाव ने यह धारणा खत्म कर दी है। सरकार नरेन्द्र मोदी की है जो सोनिया को महत्व नहीं देते। ‘मौत का सौदागर’ की गाली अभी वह भूले नहीं इसलिए सत्ता के गलियारों में सोनिया गांधी का महत्व लगातार गिर रहा है। गंभीर बगावत असम में हुई है जहां कांग्रेस के प्रमुख नेता हिमंत शर्मा पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। पहले ऐसे सोचा भी नहीं जा सकता था।
सोनिया गांधी का किस तरह अवमूल्यन हो गया वह कथित सैक्युलर पार्टियों की पटना की स्वाभिमान रैली से पता चलता है जहां कांग्रेस अध्यक्ष को कोने में रखा गया। उन्हें लालू तथा नीतीश से पहले बोलने को कहा गया जबकि परम्परा है कि सबसे बड़ा नेता सबसे बाद में बोलता है। लेकिन सोनिया को तो शरद यादव से भी पहले बुलवाया गया। सोनिया को यह अपमान का घूंट पीना पड़ा और 30 मिनट तक वह दूसरों के भाषण सुनती रहीं। उस रैली के जो चित्र छपे हैं उनमें यह भी दिखाया गया कि विशाल फूलों की माला के केन्द्र में नीतीश कुमार हैं, एक तरफ लालू प्रसाद यादव हैं और दूसरे कोने में सोनिया गांधी हैं। सोनिया बहुत साहस दिखा कर मुस्कराने का प्रयास तो कर रही थीं लेकिन अंदर से तो जानती हैं कि उनकी स्थिति का पतन हुआ है। अब वह सैक्युलर जमात की केन्द्र नहीं रहीं। कुछ ही सप्ताह पहले उन्होंने इन ‘सैक्युलर’ सांसदों के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च का नेतृत्व किया था। तब वह इनकी नेता दिख रही थीं। तब से लेकर अब तक लगातार उनकी पार्टी की हार हुई तथा जीत उन नरेन्द्र मोदी की पार्टी की हुई जिनसे वह व्यक्तिगत नफरत करती हैं। वैसे यह भावना दोतरफा भी है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश और राजनीति बहुत बदल गई केवल कांग्रेस नहीं बदली। कांग्रेस हाईकमान अर्थात मां-बेटे के पास संसद रोकने के अलावा कोई नुस्खा नहीं है। कुछ नए की इनसे आशा नहीं रही। जो बासी है उसे ही परोसा जा रहा है।