नेताजी : सच क्या है?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस से सम्बन्धित 64 फाइलों को पश्चिम बंगाल की सरकार द्वारा सार्वजनिक किए जाने के बाद अब केन्द्र सरकार पर भी दबाव है कि उसके पास इनके बारे जो 130 फाइलें बंद हैं उन्हें भी सार्वजनिक किया जाए। समझा गया था कि नेताजी की ताईवान के तायहोकु हवाई अड्डे पर 18 अगस्त 1945 को हवाई हादसे में मौत हो गई थी लेकिन तब से ही देश में यह चर्चा रही है कि नेताजी की इस हादसे में मौत नहीं हुई थी। उनके परिवार के कुछ सदस्यों का तो कहना है कि ऐसा कोई हादसा हुआ ही नहीं था। कुछ और लोगों का कहना है कि जिस विमान हादसे में उनकी मौत की बात कही गई उसमें वह सवार नहीं थे। मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का कहना है कि इन फाइलों में बहुत से पत्र हैं जिनसे पता चलता है कि नेताजी 1945 के बाद भी जीवित थे। किसी गुमनामी बाबा का भी जिक्र है जिनकी 18 सितम्बर 1985 को फैजाबाद में सरयू नदी के किनारे मौत हो गई थी। कहा गया कि उनकी शकल नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिलती थी। यह भी चर्चा रही कि 1964 में जब जवाहरलाल नेहरू का देहांत हुआ तो चुपचाप सुभाष चंद्र बोस उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचे थे। एक तस्वीर भी है जिसमें एक शख्स जिनकी नेताजी के साथ शकल मिलती है, नेहरू के शव के पास खड़े हैं। यह सवाल भी है कि 1948 और 1968 के बीच आईबी को बोस परिवार की जासूसी में क्यों लगाया गया था? क्या तब के सत्तासीन लोग यह जानते थे कि नेताजी जीवित हैं और अपने परिवार से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं? और वह इसे रोकना चाहते थे? क्या उन्हें नेताजी से राजनीतिक खतरा था?
दूसरी तरफ बहुत से इतिहासकार हैं जो मानते हैं कि वास्तव में अगस्त 1945 में नेताजी की हवाई हादसे में मौत हो गई थी। सुभाष चन्द्र बोस पर 1959 में लिखी अपनी किताब ‘द स्प्रिंगिंग टाइगर’ में ह्यू टोय लिखते हैं, ‘‘नेताजी की उड़ान 18 अगस्त 1945 को फारमोसा (अब ताईवान) में तायहोकु पहुंच गई थी। दोपहर अढ़ाई बजे जहाज ने फिर उड़ान भरी लेकिन उड़ान भरते ही जहाज का एक प्रोपैलर गिर गया। जहाज में आग लग गई और वह तेजी से नीचे गिर कर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। बाकी लोगों के साथ बोस तथा हबीब-उर-रहमान मुश्किल से बाहर निकले। बोस के कपड़ों को आग लग चुकी थी…सिर पर चोट लगी थी। इसके अलावा उनके चेहरे तथा शरीर के कुछ हिस्से जल गए थे। अंत से कुछ मिनट पहले उन्होंने हबीब से कहा, ‘‘मैं समझता हूं कि मेरा अंत आ गया है…मेरे देशवासियों को बता दो कि भारत बहुत जल्द आजाद हो जाएगा।’’ लेखक के अनुसार रात 8 और 9 बजे के बीच उनका देहांत हो गया। ह्यू टोय लिखते हैं, ‘‘यह मानवीय तौर पर पक्का है कि उनकी मौत 18 अगस्त 1945 को तायहोकु के जापानी सैनिक अस्पताल के नामोन वार्ड में हुई थी।’’
पूर्व तृणमूल कांग्रेस सांसद कृष्णा बोस जो नेताजी की रिश्तेदार भी हैं, का मानना है कि उनकी मौत हवाई हादसे में हुई थी। नेताजी की बेटी अनीता का भी यही मानना था। वह इस हवाई हादसे में बच गए कई लोगों से मिली थीं जिन्होंने बताया था कि विमान हादसे में उनके पिता की मौत हो गई थी। नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस भी इससे सहमत थे। इस मामले में बैठाए गए पहले दो आयोग का भी यही निष्कर्ष था जबकि तीसरा मुखर्जी आयोग इस बात से सहमत नहीं था कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई थी। कई विशेषज्ञ तथा विद्वान भी मानते हैं कि वह बच गए थे, या इस विमान में थे ही नहीं। हकीकत क्या है? शायद यह कभी भी मालूम न पड़े।
सवाल तो यह है कि अगर नेताजी उस हादसे में मारे नहीं गए तो वह गए किधर? क्या तत्कालीन भारत सरकार को मालूम था कि वह जिंदा हैं और उन्हें देश से बाहर रखने का प्रयास किया गया? उनकी संघर्षमय जिन्दगी को देखते हुए यह मानना मुश्किल है कि वह संन्यासी बन गए थे। गांधीजी की हत्या हुई, सरदार पटेल की मौत हुई, देश 1962 में चीन से हारा लेकिन सुभाष चन्द्र बोस गुमनाम ही रहे? अर्थात् आजादी के शुरुआती सालों में बहुत कुछ हुआ पर नेताजी गुमनाम रहे तो क्यों? अगर वह जीवित थे तो आजादी के बाद उनके जैसे प्रखर राष्ट्रवादी ने सार्वजनिक जीवन में अपनी न्यायोचित जगह पाने तथा देश को संभालने में योगदान डालने का प्रयास क्यों नहीं किया? वह तो बराबर के नेता थे। ठीक है जवाहरलाल नेहरू के साथ उनके गंभीर मतभेद थे। अंग्रेजी के खिलाफ वह आक्रामक हिंसक रवैया अपनाना चाहते थे जबकि नेहरू का गांधी की अहिंसा में विश्वास था। नेहरू पूरी तरह लोकतंत्र में विश्वास रखते थे जबकि बोस का झुकाव तानाशाही की तरफ भी था। उनका यह अजीब तर्क था कि आजाद भारत के लिए केवल डिक्टेटरशिप ही माफिक बैठेगी। 1943 में सिंगापुर में अपने भाषण में उन्होंने ‘फौलादी तानाशाही’ जो भारत पर 20 वर्ष शासन करे, की वकालत की थी पर क्या इस आजाद ख्यालात वाले देश को कोई तानाशाह संभाल सकता है, चाहे वह कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो?
अपने आखिरी दिनों में उनका मानना था कि वह ही सही हैं। गांधी को तो वह एक प्रकार से चला हुआ कारतूस समझते थे। लेकिन अगर वह जीवित थे तो यह मतभेद उनकी गुमनामी का कारण नहीं हो सकते। क्या उन्हें कहीं बंदी बना कर रखा गया? चीन? जापान? रूस? विभिन्न सरकारों द्वारा उनकी फाइलों को दबा कर रखने के कारण यह रहस्य और गहरा हो गया है। बताया गया कि 87 टॉप सीक्रेट फाइलेें सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं क्योंकि वह नाजुक किस्म की हैं और इससे दोस्त देशों के साथ समस्या हो सकती है। यह तर्क कभी भी समझ नहीं आया। आजादी के 68 वर्ष बाद अब क्या ‘समस्या’ होगी? यह भी मालूम नहीं कि इन फाइलों में बचा क्या है क्योंकि यह भी समाचार है कि 1972 में पश्चिम बंगाल में कुछ अति गोपनीय फाइलेें नष्ट₹ कर दी गई थीं। कांग्रेस की सरकारों के बारे तो फिर भी समझ आता है क्योंकि आजादी के बाद बहुत समय एक ही परिवार का शासन रहा लेकिन मोदी सरकार की तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं, उन्हें तो सच्चाई जो भी है, सामने लानी चाहिए। कांग्रेस ने नेहरू के राजनीतिक विरोधियों को उनका न्यायोचित सम्मान नहीं दिया। जो भी जवाहर लाल नेहरू के बराबर थे उन्हें पृष्ठ₹भूमि में धकेलने का प्रयास किया गया। सरदार पटेल को 1991 में भारत रत्न दिया गया जबकि सुभाष चंद्र बोस को 1992 में देने का प्रयास किया गया जो विवादों में फंस कर रह गया। दूसरी तरफ जवाहरलाल नेहरू (1955), इंदिरा गांधी (1971) तथा राजीव गांधी (1990) भारत रत्न से सम्मानित किए गए। अर्थात् पटेल तथा सुभाष चंद्र बोस की बारी राजीव गांधी के बाद आई जबकि उन्हें नेहरू के साथ भारत रत्न मिलना चाहिए था। यह भी उल्लेखनीय है कि दोनों को सम्मानित करने का प्रयास तब किया गया जब प्रधानमंत्री गांधी परिवार से नहीं थे।