सुविधाजनक अंतरात्मा
देश के बुद्धिजीवियों तथा साहित्यकारों द्वारा इस्तीफों का सिलसिला जारी है। एक भेड़चाल शुरू हो गई है। बहुत लोगों की अंतरात्मा जाग उठी है। उनकी शिकायत है कि देश के अंदर असहिष्णुता बढ़ रही है। बुद्धिजीवी तथा साहित्यकार होने के नाते उनसे और बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है इसलिए विरोध जताने के लिए वह अपना इस्तीफा दे रहे हैं। एमएम कालबुर्गी जैसे तर्कवादी लेखक की हत्या निंदनीय है। हमारी विभिन्नता ही हमारी ताकत है। भारत का अभिप्राय ही यह है। सवाल उठने चाहिए। अगर किसी का तर्क पसंद न हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी हत्या कर रास्ते से हटा दिया जाए। दादरी की घटना और भी भयानक है जहां 100 लोगों की भीड़ ने एक व्यक्ति को केवल इसलिए मार दिया क्योंकि अफवाह थी कि उसके घर में गौ मांस है। लेकिन सवाल उठता है कि इससे पहले भी तो ऐसी घटनाएं इस देश में होती रही हैं तब यह सज्जन क्यों खामोश रहे? नयनतारा सहगल ने यह सिलसिला शुरू किया उनसे दो सवाल किए जा सकते हैं। (1) उन्हें 1986 में यह सम्मान मिला था जिससे दो साल पहले अर्थात् 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए थे। उस वक्त उन्होंने विरोध प्रकट क्यों नहीं किया? (2) उनका परिवार इस बात पर गर्व करता है कि वह कश्मीरी हैं फिर जब कश्मीरी पंडितों को जबरदस्ती कश्मीर से निकाला गया उस वक्त उन्होंने विरोध में साहित्य अकादमी से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? 14 सितम्बर 1989 को पंडित टिका लाल टपलू की हत्या से वहां हत्याओं, बलात्कार तथा लूटपाट का सिलसिला शुरू हुआ। मस्जिदों से घोषणा की गई कि वह निकल जाएं नहीं तो उन्हें खत्म कर दिया जाएगा।
कश्मीरी पंडितों को वहां से निकालना नस्लीय सफाई का ऐसा प्रयास था जिसे दुनिया ने पहले हिटलर के समय ही देखा था लेकिन नयनतारा समेत हमारे बुद्धिजीवी आज तक इस बारे खामोश हैं। किसी ने उनकी त्रासदी पर उपन्यास नहीं लिखा, चित्र नहीं बनाए, फिल्म नहीं बनाई। अगस्त-सितम्बर 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगों में 62 लोग मारे गए। उसके बाद जनवरी की ठंड में 25 लोग वहां राहत कैम्प में मारे गए पर हमारी बुद्धिजीवियों की आत्मा रजाई ओढ़ कर सोई रही। उनके बारे इतना शोर इसलिए नहीं मचा क्योंकि उस वक्त केन्द्र में कांग्रेस नियंत्रित यूपीए सरकार थी जबकि आज भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है? कालबुर्गी की ही तरह नरेन्द्र दाबोलकर तर्कवादी थे। वह अंधविश्वास के खिलाफ अपने तर्क देते थे। उनकी हत्या अगस्त 2013 में पुणे में की गई थी। केन्द्र तथा महाराष्ट्र दोनों में कांग्रेस की सरकारें थीं। इस हत्या के खिलाफ उस वक्त इस्तीफों का सिलसिला क्यों नहीं शुरू हुआ? कांग्रेस के शासन में अनेक दंगे हुए। उत्तर प्रदेश में ही मुरादाबाद, सहारनपुर, मेरठ आदि में दंगे हो चुके हैं। असम में 2012 में कोकराझार जिले में 70 लोग दंगे में मारे गए। किसी की अंतरात्मा को आघात नहीं पहुंचा। लेखक के उत्पीडऩ की बात की जाती है पर क्या यह सज्जन भूल गए कि तसलीमा नसरीन के साथ क्या हुआ था? उन्हें तो छिप छिप कर अपनी जान बचानी पड़ी थी। सलमान रुश्दी की किताब को यहां 1988 में प्रतिबंधित कर दिया गया। सरकार राजीव गांधी की थी। क्या तब किसी ने इस्तीफा दिया? अंतरात्मा सुविधाजनक तरीके से क्यों जाग रही है?
सुधीन्द्र कुलकर्णी पर स्याही फेंकना बेहूदा हरकत है, गुंडागर्दी है। अगर शिवसैनिक इतने ही बहादुर हैं तो सेना या बीएसएफ में भर्ती होकर सीमा पर पाकिस्तान के साथ लड़ें। उद्धव ठाकरे को अपने परिवार के लड़कों से शुरू होना चाहिए। लेकिन बात मैं लेखकों तथा साहित्यकारों द्वारा अकादमी सम्मान वापिस करने की कर रहा था। शोभा डे का कहना था कि हमारा अधिकार है कि हम यह निर्णय लें कि किस मामले का हमने विरोध करना है, किस का नहीं। यह बात गलत नहीं पर इन बुद्धिजीवियों से मेरा कहना है कि अगर आप दूसरों पर सवाल उठा सकते हो तो आप पर भी तो सवाल उठ सकते हैं। जब इन पर सवाल किए जाते हैं तो इनका अहम तड़प उठता है। आखिर हम बड़े राइटर हैं! पर वह खुद को कितना भी उच्च तथा महान समझते हों वह कोई ‘सेकरेड कॉउज़’ अर्थात् पवित्र गाय नहीं हैं। उन्हें आजादी है कि वह अपना मुद्दा या समय चुनें पर वह भी बाकी सब की तरह जवाबदेह हैं कि ऐसा क्यों किया? यह सारा गुस्सा नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही क्यों उबल रहा है? 2002 के गुजरात दंगों के बारे तो सब शिकायत करते हैं पर मैं दो और ऐसी नृशंस और बर्बर घटनाओं का जिक्र कर रहा हूं जिनके बारे यह बुद्धिजीवी वर्ग इस तरह उत्तेजित नहीं हुआ। अक्तूबर 1989 में बिहार में भागलपुर में दंगे शुरू हुए जो दो महीने चलते रहे। 1000 लोग मारे गए, 50,000 विस्थापित हुए। भागलपुर के अलावा 200 गांवों में यह दंगे फैल गए। केन्द्र में राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार थी तो प्रदेश में भी कांग्रेस का शासन था। तब क्या किसी लेखक ने साहित्य अकादमी से इस्तीफा दिया?
हरियाणा के मिर्चपुर गांव की अप्रैल 2010 की घटना जहां एक 18 वर्ष की विकलांग दलित लड़की तथा उसके 70 वर्ष के बाप को एक भीड़ ने एक कमरे में बंद कर बाहर से आग लगा दी और वह चीखते चिल्लाते जल-जल कर मारे गए थे, के बारे इन सभी बुद्धिजीवियों की अंतरात्मा सोई क्यों रही? दादरी की घटना अति निंदनीय है पर मिर्चपुर की घटना क्या कम है? क्या दलित बाप-बेटी की बर्बर हत्या आप को उत्तेजित नहीं करती क्योंकि यह आपके सैक्युलर/नॉन सैक्युलर एजेंडे में माफिक नहीं बैठता? जातीय हिंसा ठीक ठाक है, बर्दाश्त हो सकती है आप केवल साम्प्रदायिक हिंसा से ही परेशान होते हैं? ज़ोया हसन का कहना था, ‘दादरी एक आदमी की मौत ही नहीं थी वह तो सहिष्णुता की मौत थी।’ इनसे मेरा पूछना है कि क्या मिर्चपुर भी सहिष्णुता की मौत नहीं थी? पहले सब खामोश बैठे रहे। अब अचानक सबकी अंतरात्मा ट्यूब लाइट की तरह जग गई है। सब सुर्खियां बटोर रहे हैं। पंजाब में भी कई लेखक सम्मान वापिस कर रहे हैं लेकिन क्या इन लोगों ने उस समय विरोध किया था जब बसों तथा रेलों से बेकसूर लोगों को घसीट घसीट कर मारा गया? कितनों ने तब भिंडरावाला का विरोध किया था?
जब यह बुद्धिजीवी वर्ग अपनी सुविधा या अपनी विचारधारा के अनुसार विरोध करते हैं तो इनकी ईमानदारी पर सवाल खड़ा होता है, इनकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा होता है। उनका कहना है कि असहिष्णुता बढ़ रही है पर क्या मिर्चपुर से अधिक शर्मनाक घटना हो सकती है? एक दलित बाप-बेटी के जिंदा जलाए जाने पर उनकी कलम क्यों नहीं तड़प उठी? इसलिए कि उस वक्त नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे और हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी? फिर अगर आज इन पर यह आरोप लगाया जाए कि वह राजनीति कर रहे हैं तो यह अनुचित कैसे होगा? अभिव्यक्ति की आजादी की चिंता है तो पहले भी तो किताबें बैन हुई थीं, फिल्में बैन हुई थीं? तब चिंता नहीं थी कि देश फासीवादी बन रहा है, जैसी शिकायत अब नयनतारा कर रही हैं। इतना कहते हुए मुझे यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों, सांसदों, विधायकों पर लगाम लगानी चाहिए। इनमें से बहुत बहक रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री को आगे आकर दादरी जैसी घटनाओं की स्पष्ट निंदा करनी चाहिए। वह स्पष्ट बात कह सकते हैं उन्हें राष्ट्रपति के कंधे पर रख बंदूक चलाने की जरूरत नहीं। सरकार उनकी है, एजेंडा उनका है, उन्हें दोनों की छवि के बारे चिंतित रहना चाहिए।
निःसन्देह देश में दादरी जैसी घटनाओं का घटित होना अति शर्मनाक है, परन्तु साहित्यकारों द्वारा इस प्रकार भेड़चाल में अपने साहित्य सम्मानों को लौटाना उनकी साहित्यधर्मिता और उनके निष्पक्ष व्यवहार पर प्रश्न चिह्न खड़े करता है। फिर अकेले साहित्य सम्मान ही क्यों लौटाए जा रहे हैं, पुरस्कार राशि क्यों नहीं? केवल इसलिए कि पुरस्कार राशि लौटाना उनके लिए सुविधाजनक नहीं। वह राशि भी तो साहित्य सम्मान का ही हिस्सा है।