नरेन्द्र मोदीजी, हमारा प्रधानमंत्री लौटा दो
पहला संकेत उस वक्त मिल गया था कि भाजपा के लिये बिहार विधानसभा में सब कुछ सही नहीं चल रहा जब अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहा था कि ‘गलती से अगर हम हार गये तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।’ यह इस चुनाव की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी थी। अब बिहार में पटाखे फूट रहे हैं और लोगों ने अमित शाह का ही पटाखा बना दिया। जो चुनाव विकास के मुद्दे से शुरू हुआ था उसका अंत पाकिस्तान तथा गाय के पोस्टर से हुआ। अफसोस है कि इस चुनाव अभियान मेें प्रधानमंत्री के पद का भी अवमूल्यन किया गया। नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। हमने उन्हेें देश के विकास के लिये चुना था लेकिन दुर्भाग्यवश वह यह प्रभाव दे गये कि उनकी गहरी दिलचस्पी प्रादेशिक चुनावों में है। नकारात्मक अभियान की भी सीमा होती है। प्रादेशिक नेताओं को पीछे डाल कर और केवल नरेन्द्र मोदी तथा अपने पोस्टर लगा कर जीत तथा हार की जिम्मेवारी प्रधानमंत्री पर डाल दी गई। ऐसे देश का बहुत अहित किया गया।
प्रधानमंत्री देश के नेता हैं। उनसे वह अपेक्षा है कि वह देश को वैसा नेतृत्व देंगे जैसे विभाजन की त्रासदी के बाद जवाहर लाल नेहरू ने दिया था। ठीक है चुनाव जीतना या हारना एक लोकतंत्र में बहुत महत्व रखता है लेकिन हर चुनाव चाहे वह लोकसभा का हो, या विधानसभा का हो, या स्थानीय निकाय का हो, प्रधानमंत्री की जिम्मेवारी नहीं होनी चाहिये। जिस तरह अपनी छाती के साथ सब कुछ लगा कर अमित शाह रखते हैं उससे भाजपा का विस्तार रूक जाएगा। जो नरेन्द्र मोदी हमने बिहार चुनाव में देखे उनसे निराशा हुई है। नरेन्द्र मोदी में देश के बदलने की क्षमता है लेकिन उसके लिये उन्हें देश का नेता बनना होगा, देश का पथ प्रदर्शक बनना होगा और उन्हें देश के भविष्य का एजेंडा तय करना है। वह केवल देश की सबसे बड़ी पार्टी के नेता ही नहीं हैं वह देश की अंतर्रात्मा के संरक्षक भी हैं।
इस देश में साम्प्रदायिक टकराव होते रहते हैं पर याद रखना चाहिये कि देश साम्प्रदायिक तनाव पसन्द नहीं करता। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद हुए चारों विधानसभा चुनाव भाजपा हार गई थी। प्रधानमंत्री एक वर्ग के नेता नहीं हैं उन्हें देश के आगे आचरण के मानक तय करने हैं। नरेन्द्र मोदी का विशेष स्तर है। वर्षों के बाद किसी नेता को अपने बल पर बहुमत मिला है। अगला प्रादेशिक चुनाव जीतना ही उनका लक्ष्य नहीं होना चाहिये। पूरे देश का नेता बनने कि उनकी अनिच्छा से निराशा होती है। हम नहीं चाहते कि सामाजिक या सांस्कृतिक दरारेें और बढ़ें क्योंकि आगे और चुनाव भी हैं। पहले दिल्ली और अब बिहार से यही संदेश है कि लोग विकास चाहते हैं झगड़े नहीं। उनका सर्वधर्म समभाव मेें पूरा विश्वास है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पराजय से कोई सबक नहीं सीखा गया। वास्तव में इस पर सार्थक बहस ही नहीं हुई। वह कोई तुक्का नहीं था। बिहार का संदेश बहुत स्पष्टï है। दो या तीन लोग मिल कर देश नहीं चला सकते। कुछ हाथों में सत्ता का जमाव लोगों को पसंद नहीं। अनुभवी मार्गदर्शक मंडल की उपेक्षा क्यों की जा रही है? आपकी नीति कुछ भी हो लोग मज़बूत विपक्ष चाहते हैं और निरंकुश शासन पसंद नहीं करते। प्रादेशिक नेताओं तथा प्रतिभा की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। लोग अपने घर में क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, यह किसी और का मामला नहीं। नागरिक आजादी से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। जिस तरह के बयान भाजपा के कुछ नेता देते रहे उसने बहुत नुकसान किया है। नफरत की राजनीति की कोई जगह नहीं। प्रधानमंत्री ने नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षा को सही पहचाना है लेकिन यह कैसे सोच लिया कि देश का युवक अनुदार तथा संकुचित है? हैरानी है कि जो हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का दम भर रहे हैं उन्हें यह भी समझ नहीं कि हिन्दू एक विभाजित, आपस में झगड़ रहे भारत को पसंद नहीं करते। आरक्षण पर मोहन भागवत का बयान बहुत गलत समय चुनाव के बीच आया है लालू प्रसाद यादव ने तो मुद्दा दोनों हाथों पकड़ लिया। लेकिन इस सरकार तथा इस पार्टी को सबसे अधिक दादरी की घटना नुकसान कर गई। 10 दिन प्रधानमंत्री खामोश रहे। अगर इसकी निंदा की होती तो परिणाम भी अलग होते।
यह सही है कि एक प्रदेश के चुनाव मोदी सरकार की कारगुजारी पर फतवा नहीं है लेकिन जिस तरह प्रधानमंत्री ने बिहार में कर्कश अभियान चलाया उसे पसंद नहीं किया गया। जो विरोधी है वह दुश्मन नहीं है। लोगों का एक और संदेश भी है। वह चाहते हैं कि उनका प्रधानमंत्री दफ्तर में अधिक बैठे। उन्होंने लगभग तीन दर्जन रैलियां वहां की थीं। क्या जरूरी था? एक प्रादेशिक चुनाव को करो या मरो की लड़ाई बना दिया। अमित शाह के लिए मुसीबतें बढ़ सकती हैं। उन्होंने डेढ़ साल में ही पार्टी की गाड़ी को दुर्घटनाग्रस्त कर दिया। ध्रुवीकरण का प्रयास उलटा पड़ा है। इन सबके विपरीत नीतीश कुमार ने मर्यादा नहीं छोड़ी। उन्होंने कभी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी। संसद में बहुत समस्या आएगी। सरकार के आर्थिक सुधार के कार्यक्रम को धक्का पहुंचेगा। कांग्रेस में भी फिर जान पड़ रही है जिसका नतीजा भाजपा को पंजाब में भुगतना पड़ेगा। आशा है कि कांग्रेस अब अधिक जिम्मेवार बनेगी और सरकार का अनावश्यक विरोध नहीं करेगी। जनादेश संसद में गतिरोध पैदा करने का कतई नहीं है। अगले साल पांच विधानसभाओं असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल तथा पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा के लिए चुनौती बढ़ेगी। भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन बनने की संभावना भी है जिसमें ममता बैनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे भी शामिल हो सकते हैं। बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि बिहार में महागठबंधन कैसे चलता है? ‘सुशासन बाबू’ की नीतीश की छवि पक्की होती है या लालू के साथ मेल महंगा पड़ता है? कांग्रेस तो परेशान नहीं करेगी क्योंकि वह जानती है कि जो कुछ मिला दूसरे की बदौलत मिला लेकिन लालू प्रसाद यादव खूब सौदेबाजी करेगा।
प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक चुनौती और है। यह है नीतीश कुमार का उत्थान जो राष्टï्रीय स्तर के नेता बन रहे हैं। जो लोग राहुल गांधी को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे वह तीसरी बार सीएम बने नीतीश को स्वीकार करेंगे। कांग्रेस का आगे चल कर नुकसान हो सकता है क्योंकि नरेन्द्र मोदी और भाजपा का एक और प्रभावशाली विकल्प खड़ा हो गया है। पर नरेन्द्र मोदी के लिए यह झटका सही समय आया है अब पथ सही करने के लिए साढ़े तीन साल मिल गए हैं। उन्हें अपने देश की उदारता तथा भिन्नता का सम्मान करना चाहिए। अपनी पार्टी के बेलगाम लोगों पर नियंत्रण करना है। वह विपक्ष से नफरत का बर्ताव नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें विपक्ष से सहयोग लेना है। उन्हें यह भी समझने की जरूरत है कि जो लोग उनकी जीत पर मिठाइयां बांट रहे थे डेढ़ साल के अंदर वह बिहार के जनादेश से प्रसन्न क्यों हैं? और उन्हें याद रखना है कि लोगों ने उन्हें सत्ता अच्छे शासन तथा विकास के लिए दी थी दोनों ही जगह उनकी सरकार अभी कमजोर है। इन्द्रप्रस्थ से लेकर पाटलीपुत्र तक लोगों का यही संदेश है कि उन्हें वह राजनीति स्वीकार नहीं जो विभाजित करती हो और जो अहंकारी हो और लोग चाहते हैं कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन कर रहें, वह प्रादेशिक स्तर के नेता न बनें।