वर्तमान, और इतिहास के गढ़े मुर्दे
पुराना रिश्ता है। भारत ब्रिटेन के साम्राज्य के मुकुट का हीरा कहा जाता था। समय बदलता गया और संतुलन हमारी तरफ झुकता गया लेकिन ब्रिटेन में अभी भी वह लोग हैं जो समझते हैं कि वह भारत को फटकार सकते हैं, लैक्चर दे सकते हैं। मोदी तथा कैमरान के संयुक्त पत्रकार सम्मेलन में एक पत्रकार ने भारत में ‘बढ़ती असहिष्णुताÓ तथा लंदन में प्रधानमंत्री के खिलाफ प्रदर्शन की बात उठा दी। हिंसा की 5-10 घटनाओं के आधार पर कह दिया जाता है कि भारत में असहिष्णुता की लहर चल रही है। ‘द गार्जियन’ अखबार में भारतीय मूल के शिल्पकार अनीस कपूर का लेख छपा है कि ‘भारत में हिन्दू तालिबान तेज़ी से फैल रहा है।’ क्या बकवास है। बाकी अखबारों का भी यही रवैया था कि जैसे वह भारत को डांट डपट सकते हैं। ठीक है कुछ घटनाएं हुई हैं जो नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर आप भारत की विशाल जनसंख्या को देखें तो इनका अनुपात बहुत कम है। प्रति एक हजार व्यक्ति देखें तो ब्रिटेन या अमेरिका हमारे से कहीं अधिक असहिष्णु होंगे। दोनों में नसली हिंसा होती रहती है लेकिन क्योंकि हमारा विपक्ष, मीडिया तथा कथित बुद्धिजीवी वर्ग शोर मचाता रहता है इसलिए दुनिया भर में यह प्रभाव जा रहा है कि भारत असंतुलित हो रहा है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा के बीच कांग्रेस के प्रवक्ताओं के बयान भी समझदारी प्रकट नहीं करते और इससे ब्रिटेन में विंसटन चर्चिल, जो समझते थे कि भारत ‘तिनकों से बने लोगों’ का देश है, की औलाद को हमें रगड़ा लगाने का मौका मिल जाता है। द टैलीग्राफ ने ब्रिटिश सरकार को सलाह दी थी कि गुजरात दंगों में तीन ब्रिटिश नागरिकों की मौत के बारे मोदी से सवाल किए जाएं।
आप हम से सवाल करने वाले होते कौन हैं? आपका अपना इतिहास क्या है? मेरा सम्बन्ध उस परिवार से है जिसके एक समय सभी वयस्क पुरुष सदस्य ब्रिटिश जेल में थे। पिताजी वीरेन्द्रजी को तो 18 वर्ष की आयु में लाहौर में सौंडर्स हत्याकांड में जेल में फेंक दिया गया था। बुरी यातनाएं दी गई थीं। ठीक है हम अतीत के कैदी नहीं रह सकते लेकिन जब वह लोग हमें मानवाधिकारों या धार्मिक सहिष्णुता के बारे लैक्चर देते हैं तो खून खौलने लगता है। ठीक है हमारा समाज सम्पूर्ण और निष्कलंक नहीं है। हम में कई कमजोरियां हैं लेकिन कौन सा समाज सम्पूर्ण है? क्या ब्रिटेन का समाज सम्पूर्ण है जिसने शताब्दियों एशिया तथा अफ्रीका के लोगों को लूटा और उनकी गरीबी बढ़ाने में अपना बहुमूल्य योगदान डाला? भारत पुराना भारत नहीं बल्कि उभरती महाशक्ति है जबकि ब्रिटेन ढलान पर है। दुनिया का हर देश भारत से जुड़ना चाहता है। ब्रिटेन को भी समझ आनी चाहिए कि जितनी भारत को उनकी जरूरत है उससे अधिक ब्रिटेन को भारत की जरूरत है, जैसे उनके अखबार इंडीपेंडेंट ने भी लिखा है। प्रधानमंत्री ने भी वेम्बले स्टेडियम में बता दिया कि हमें किसी की मेहरबानी नहीं बल्कि बराबरी चाहिए। लंदन से एशियाई मामलों के विशेषज्ञ गैरथ प्राइस लिखते हैं, ‘भारत के लिए युनाइटेड किंगडम कई याचकों में से एक है…कई अन्य प्रतिद्वंद्वियों से (हमारी) जेबें हलकी हैं।Ó
इस वक्त ब्रिटेन में सबसे अधिक रोजगार देने वाली कम्पनी टाटा मोटर्स है। इसी से समझ जाना चाहिए कि पासा किस तरह पलट गया है। अगर हमें निवेश चाहिए तो उन्हें हमारे आर्डर चाहिए ताकि उनके कारखाने चलते रहें। मामला यहां से पाउंड अर्जित करने का है। प्रधानमंत्री डेविड कैमरान भी भारत की क्षमता को समझते हैं इसीलिए बार-बार भारत की यात्रा कर चुके हैं। इस देश ने 2013 तक गुजरात दंगों के कारण नरेन्द्र मोदी को वीजा नहीं दिया था पर अब उनके प्रधानमंत्री मोदी के आगे पीछे फिर रहे हैं। पश्चिम के देशों को एक और कारण से भी हमारी जरूरत है। वह उभरते चीन का मुकाबला करने के लिए भी भारत का उत्थान चाहते हैं। चीन पुरानी विश्व व्यवस्था को चुनौती दे रहा है और उसकी बढ़ती ताकत ने संतुलन बदल दिया। पुरानी विश्व व्यवस्था खुद को बनाए रखने के लिए अब भारत को साथ लेना चाहती है इसीलिए अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, आस्ट्रेलिया सब भारत में इतनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। पेरिस में हुए कई विस्फोट बताते हैं कि दुनिया को कैसी-कैसी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है? आतंकवाद का सामना करने का भारत का अपना विशेष अनुभव है।
मैसूर के शासक टीपू सुलतान की जयंती मनाने के कर्नाटक की सिद्धरमैया सरकार के फैसले से वहां व्यापक हिंसा फैल गई जिसमें विश्व हिन्दू परिषद के एक नेता समेत दो लोगों की हत्या हो चुकी है। अफसोस की बात तो यह है कि टीपू की जयंती मनाने की मांग कहीं से नहीं उठी थी। कांग्रेस शायद फिर से सैक्युलर/नॉन सैक्युलर का खेल खेल रही थी जो उलटा पड़ा है। बिना कारण वहां एक सांस्कृतिक युद्ध शुरू कर दिया गया है और अनावश्यक तनाव पैदा कर दिया गया। सरकार ने अव्वल दर्जे की असंवेदनशीलता भी दिखाई है क्योंकि टीपू सुलतान से वहां का एक बड़ा वर्ग नफरत भी करता है और आयोजक यह भी नहीं कह सकते कि विरोध संघ परिवार करवा रहा है क्योंकि ईसाई भी टीपू को दिए जा रहे सम्मान का बराबर विरोध कर रहे हैं क्योंकि आरोप है कि उसने न केवल हिन्दुओं बल्कि ईसाइयों का भी क्रूर दमन किया और उन्हें धर्म बदलने पर मजबूर किया।
टीपू सुलतान के व्यक्तित्व के दो पहलू हैं। एक तरफ वह ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन का विरोध करने वाला जांबाज़ शासक था जिसकी बहादुरी के किस्से स्कूल के बच्चे इतिहास की किताबों में भी पढ़ते हैं। उसे मैसूर का टाइगर कहा जाता था। पर टीपू सुलतान की दूसरी छवि भी है। उसे एक धर्मांध शासक भी समझा जाता है जिससे दो सौ साल के बाद भी हिन्दू तथा ईसाई नफरत करते हैं। हैरानी है कि ऐसे शासक को कर्नाटक की सरकार आदर्शवादी शासक घोषित कर रही है। लेकिन मन में एक सवाल और उठता है। हम कब तक इतिहास के गढ़े मुर्दे उखाड़ते रहेंगे? कब तक अतीत के मसलों में उलझते रहेंगे? हमारे इतिहास में बहुत ज्यादतियां की गई हैं। कई औरंगजेब जैसे मुस्लिम शासक धर्मांध और क्रूर थे जिनमें टीपू भी शामिल है पर अब इन मामलों पर आपस में लड़ने का आज क्या तुक है? क्या जो 225-250 साल पहले हुआ उसके कारण आज हिंसा कर तथा दो बहुमूल्य जानें गंवा कर तथा एक प्रदेश में आग लगा कर हम उन लोगों को सही सिद्ध नहीं कर रहे जो कह रहे हैं कि भारत अधिक असहिष्णु हो रहा है? हम अपनी वर्तमान राजनीतिक जरूरत के लिए अतीत का दुरुपयोग क्यों करते हैं?
ब्रिटेन की संसद में दिया गया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषण बहुत प्रभावशाली था। उमर अब्दुल्ला तक ने भी इसकी तारीफ की है। प्रधानमंत्री मोदी वहां एक विश्व स्टेट्समैन नज़र आ रहे थे। हमें अपने प्रधानमंत्री का यह रूप पसंद है। जो रूप हम बिहार चुनाव में देख कर हटे हैं उसे बिहार की जनता ही नहीं, देश भी नापसंद करता है।