पेरिस मुम्बई नहीं है
26 नवम्बर को मुंबई पर हमले के सात साल हो जाएंगे। मुम्बई पर 26/11/2008 तथा पेरिस पर 13/11/2015 के आतंकी हमलों में समानता के बारे बहुत कुछ लिखा गया है। मुम्बई पर हुए हमले को विशेषज्ञ ‘थोड़ी लागत पर बड़ा धमाका’ वाला आतंकी हमला कहते हैं। मुम्बई तथा पेरिस दोनों ही जगह वहां हमले किए गए जो भीड़ भरी थीं ताकि अधिक से अधिक लोग हताहत हों और अधिक से अधिक दहशत फैले। मुम्बई में हमारी प्रतिक्रिया धीमी रही थी। पेरिस में तत्काल सेना की टीमें घटनास्थलों पर तैनात कर दी गईं और आतंकियों को खत्म कर दिया गया जबकि मुम्बई के लिए कमांडो दिल्ली से भिजवाए गए जहां शुरू में उन्हें जहाज ही नहीं मिला। हम शायद इसलिए बेतैयार थे क्योंकि यह ऐसा पहला बड़ा हमला था। यह भी महत्वपूर्ण है कि आतंकवादियों को खत्म करते वक्त उनके सुरक्षा कर्मियों का कोई जानी नुकसान नहीं हुआ जबकि हम इतने बेतैयार थे कि शुरुआती समय में ही मुम्बई में हमारे कई बड़े पुलिस अफसर मारे गए थे।
मुम्बई दुर्भाग्यवश भविष्य की आतंकी कार्रवाई के लिए अनुकरणीय बन गया है। पेरिस के हमले के बाद बताया गया कि मुम्बई हमले का दोनों, आतंकवादियों तथा आतंकवादियों का मुकाबला करने वालों, ने अध्ययन किया था क्योंकि यह हमला इस बात की मिसाल है कि किस तरह धर्मांध आत्मघाती छोटा जत्था एक बड़े शहर को आतंकित कर सकता है। अल कायदा ने 2009 के अंतिम दिनों में डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन पर हमले की योजना बनाई थी जो मुम्बई जैसा हमला होना था लेकिन अमेरिकी एजेंसी एफबीआई ने एक पाकिस्तानी-अमरीकी को गिरफ्तार कर यह हमला रुकवा दिया। यह व्यक्ति डेविड हेडली था जिसने पांच बार मुम्बई की रेकी की थी तथा उन जगहों का चयन किया था जहां हमला करवाया जाना था। उल्लेखनीय है कि सहयोग के सारे दावों के बावजूद अमेरिका ने डेविड हेडली को हमें नहीं सौंपा। अब मुम्बई की एक अदालत ने आदेश दिया है कि डेविड हेडली पर मुकद्दमा चले लेकिन इस बात की संभावना शून्य के बराबर है कि उसे अमेरिका हमारे कानून के सामने खड़ा करेगा।
गृह मंत्रालय ने देश को अलर्ट किया है कि हमें भी आईएस से खतरा है। श्रीनगर में तो आईएस के काले झंडे लहराए जा चुके हैं। हमारे देश से भी कुछ मुस्लिम युवक आईएस में शामिल होने के लिए वहां गए हैं। इनकी संख्या कितनी है इसके बारे स्पष्ट आंकड़े तो नहीं हैं पर यह बहुत नहीं हैं। 23 का आंकड़ा दिया जाता है जिनमें से छ: मारे जा चुके हैं। कुछ वापिस आ गए हैं तो कुछ जाते वक्त पकड़े गए हैं। हैदराबाद हवाई अड्डे पर पकड़े गए सलमान मोहीयुद्दीन जो अमेरिका से लौटा था, का कहना था कि वह आईएस की तरफ इसलिए आकर्षित हुआ क्योंकि मुस्लिम होने के नाते अमेरिका में उससे भेदभाव किया गया। लेकिन उसका यह भी कहना था कि वह आईएस में शामिल होने सीरिया जाना चाहता था ताकि वापिस आकर ‘भारत के खिलाफ युद्ध कर सके।’ पर हमें असली चुनौती आईएस से नहीं बल्कि अपने पड़ोसी देश के पाले-पलोसे आतंकी संगठनों से है। पाकिस्तान के पास लश्कर-ए-तोयबा है जिसका काम केवल भारत में आतंकी हमला करवाना है। अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ तथा लेखक ब्रूस रीडल ने लिखा है, ‘मुम्बई पर हमला लश्कर-ए-तोयबा का काम था। उसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई तथा अल कायदा का समर्थन था। यह हमला तीन वर्ष की प्लानिंग के बाद किया गया।’ ब्रूस रीडल ने एक और बहुत अर्थपूर्वक बात कही है, ‘लश्कर-ए-तोयबा ने इस हमले की कोई कीमत अदा नहीं की। न उसके पाकिस्तानी संरक्षकों ने ही अदा की। इस संगठन के वरिष्ठ नेता खुलेआम पाकिस्तान में घूम फिर रहे हैं क्योंकि उन्हें पाकिस्तान की सेना का संरक्षण प्राप्त है। लश्कर-ए-तोयबा आज पहले से अधिक खतरनाक है।’
कुछ लोग मुम्बई तथा पेरिस के हमले की खूब तुलना कर रहे हैं लेकिन इन दोनों हमलों में एक बहुत बड़ा अंतर है। मुम्बई पर हमला पाकिस्तान की व्यवस्था के लोगों ने करवाया था जिन्हें आज तक इसकी सजा नहीं दी गई जबकि पेरिस में हमला किसी पड़ोसी देश ने नहीं करवाया। मुम्बई पर हमला करने वाले सभी पाकिस्तानी थे जबकि पेरिस पर हमला करने वाले फ्रांसीसी, सीरियन, मिस्र के निवासी तथा बेल्जियम के रहने वाले थे। मुम्बई पर हमला करने वाले कसाब तथा उसके साथियों को कराची के कंट्रोल रूम से निर्देश दिए गए थे। जिन लोगों ने मुम्बई पर हमला किया उन्हें हमले की योजना बनाने तथा इसकी तैयारी के लिए प्रोफैशनल मदद दी गई। पाक खुफिया एजेंसियों ने उनकी पूरी मदद की थी। पेरिस में ऐसा कुछ नहीं था। मुम्बई हमले को उस पाकिस्तान की व्यवस्था का समर्थन था जो संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है और जिसके सेनाध्यक्ष की अमेरिका मेजबानी कर हटा है। जी-20 में प्रधानमंत्री मोदी ने भी उन देशों के खिलाफ कार्रवाई की मांग रखी जो आतंकवाद के प्रायोजक हैं पर यही पेरिस तथा मुम्बई के हमलों में बुनियादी फर्क है। अमेरिका ने जो कार्रवाई ओसामा बिन लादेन के खिलाफ की वह कभी भी हाफिज़ सईद के खिलाफ नहीं करेगा। जो देश आज पेरिस पर हमले के बाद तड़प रहे हैं और हवाई हमले कर रहे हैं वह मुम्बई के हमलों के बाद हमें समझाते बुझाते रहे कि तीखी प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए। कड़वा सच है कि काले गोरों में फर्क किया जाता है। अफ्रीका में बोको हरम ने हजारों बेकसूर मार दिए लेकिन पश्चिम देशों ने इन आतंकवादियों के विरुद्ध कोई हरकत नहीं दिखाई। न ही माली के होटल पर हमला करने वालों के खिलाफ कुछ किया जाएगा। पश्चिम के देश केवल उन्हें तबाह करने का प्रयास करेंगे जो उन्हें निशाना बना रहे हैं पाक-अफगान आतंकियों पर भी कभी सीधी कार्रवाई नहीं होगी। बराक ओबामा के अश्वेत रंग के बावजूद इस मामले में गोरों में एकता है। पश्चिम का असूल लगता है कि कुछ त्रासदियां दूसरी त्रासदियों से अधिक दर्दनाक हैं और उनकी जानें हमारे से अधिक मूल्यवान हैं। दोहरा मापदंड है। अच्छी बात है कि पेरिस के हमले के बाद मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर फ्रांस के तिरंगे की नीली, सफेद तथा लाल रोशनी की गई पर क्या कारण है कि जब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर हमला हुआ था तो उसके बाद आइफिल टावर पर हमारे तीन रंगों की रोशनी नहीं की गई थी? इसीलिए पेरिस में मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति पूर्ण सहानुभूति के बावजूद मेरा कहना है कि पेरिस मुंबई नहीं था।
अंत में : फ्रांस जिस तरह पेरिस की त्रासदी से निबटा है उसमें हमारे लिए भी सबक है। कहीं विलाप करते परिवार नहीं दिखाए गए। कहीं बिखरा खून या शव नहीं दिखाए गए। विपक्ष ने भी सरकार पर नालायकी का आरोप नहीं लगाया। मीडिया की कवरेज भी उत्तेजना भरने वाली नहीं थी। अधिकतर लोग फूल रखते ही दिखाए गए। हमें संयम से प्रतिक्रिया देना उनसे सीखना है। हमारे मीडिया को भी देश का तापमान धीमा करने की तरफ ध्यान देना चाहिए।