दिल्ली में प्रदूषण की मात्रा के हर सभ्य मापदंड से ऊपर निकल जाने के बाद तथा बड़ी अदालत द्वारा शहर को ‘गैस चैम्बर’ कहे जाने के बाद कुछ हरकत नज़र आ रही है। दिल्ली सरकार ने घोषणा की है कि प्रदूषण कम करने के लिए दिल्ली में एक-एक दिन छोड़ कर सम-विषम के नम्बर के वाहन चलाए जाएंगे तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में नए डीजल वाहन की रजिस्ट्रेशन पर रोक लगा दी है। पर अपनी आरामपरस्त जिन्दगी के आदी दिल्ली वाले प्रदूषण से बचने के लिए अपने लाइफ स्टाइल में कोई भी कुर्बानी देने को तैयार नहीं। चारों तरफ विरोध हो रहा है। केजरीवाल सरकार के कदम को ‘तुगलकी फरमान’ कहा जा रहा है। लेखक चेतन भगत ने दिल्ली सरकार के निर्णय को काला कानून की संज्ञा दे दी है। उनका कहना है कि अभी तो यह स्पष्ट₹ नहीं कि दिल्ली में प्रदूषण का स्रोत क्या है? पर जब तक यह पता चलेगा चेतन भगतजी सब कुछ खाक हो जाएगा। जहां अदालतों का रवैया सकारात्मक है और मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि जज भी कार पूल करने के लिए तैयार हैं वहां दिल्ली के अधिकतर नागरिक बदलने को तैयार नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने तो डीजल उड़ाती लग्जरी एसयूवी पर भी पाबंदी लगा दी है जो न केवल दिल्ली बल्कि सारे देश में स्टेटस सिम्बल बन चुकी है। सितम्बर से लेकर नवम्बर तक के 91 दिनों में 33 बार दिल्ली का प्रदूषण खतरे के निशान से ऊपर गया है पर बार-बार यही तर्क दिए जा रहे हैं कि केजरीवाल सरकार के कदम क्यों सफल नहीं होंगे। पर विकल्प क्या है कोई नहीं बताता?
दिल्ली में 88 लाख वाहन हैं। रोजाना 1300-1400 नए वाहन रजिस्टर हो रहे हैं। इनके अलावा एनसीआर में गुडग़ांव, फरीदाबाद, नोएडा, बहादुरगढ़ में भी बड़ी मात्रा में वाहन रजिस्टर होते हैं। रोज़ाना आसपास से बड़ी संख्या में वाहन भी राजधानी में प्रवेश करते हैं जिनके कारण दिल्ली की हालत खराब हो रही है और वह बीजिंग को पछाड़ते हुए तेजी से दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बनती जा रही है।
अंतर यह है कि चीन स्थिति से निबटने की कोशिश कर रहा है जबकि हमारा लापरवाह लोकतंत्र इसकी इज़ाजत नहीं देता जिस कारण अदालतों को दखल देनी पड़ रही है। दिल्ली में अस्थमा तथा सांस की बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है। धुंध की ऐसी चादर वहां रहती है कि लोगों का सांस लेना मुश्किल हो रहा है। बच्चों को तारे कम ही वहां नज़र आते हैं। पर दिल्ली वालों के नखरे नहीं जाएंगे। वह तबाह हो जाएंगे लेकिन जीवनशैली में कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बीमार रहते हैं पर दिल्ली वालों को समझना चाहिए कि अगर जरूरत पड़ी तो केजरीवाल इलाज के लिए बेंगलुरु के आयुर्वेद केन्द्र चले जाएंगे, आप कहां जाओगे?
शिकायत है कि इस मामले में कोई बहस नहीं की गई और न ही कोई ठोस नीति है। सरकार को यह भी पता नहीं कि इससे प्रदूषण कम होगा या नहीं? अगर कम होगा तो कितना होगा? यह शिकायतें बहुत गलत नहीं। दुनियाभर में कई जगह ऐसा परीक्षण किया गया लेकिन सीमित सफलता ही मिली है। पेरिस ने कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुई। बीजिंग ओलम्पिक से पहले प्रदूषण की मात्रा कम करने के लिए तीन सप्ताह वाहनों पर पाबंदी लगा दी गई लेकिन ऐसी पाबंदी अधिक देर तो चल नहीं सकती। मैक्सिको सिटी ने भी यह प्रयोग शुरू किया परिणाम यह हुआ कि लोगों ने दो-दो वाहन रखने शुरू कर दिए जिससे प्रदूषण कम होने की जगह और बढ़ गया। अब दिल्ली के बारे भी सवाल किया जा रहा है कि क्या इस सम-विषम नम्बर वाले निर्णय से दिल्ली में भी वाहनों की मात्रा दोगुणी तो नहीं हो जाएगी? लोग दो-दो वाहन रखने शुरू कर देंगे?
यह नहीं कि जो आपत्ति कर रहे हैं उनकी बातों में वज़न नहीं है। डीजल के वाहनों पर पाबंदी लगा दी गई पर बीजिंग जहां प्रदूषण का स्तर भयावह है वहां डीजल के वाहन तो चलते ही नहीं और अगर मान लिया जाए कि सरकार के निर्णय के बाद केवल आधी 44 लाख गाडिय़ां ही दिल्ली की सड़कों पर रह जाती हैं तो इनके नम्बर प्लेट चैक करने के लिए पुलिस बल कहां है? क्या इससे पहले से पुलिस के भ्रष्ट₹ाचार में वृद्धि नहीं होगी? क्या यह नहीं होगा कि लोग दो-दो नम्बर प्लेट बना कर रख लेंगे एक एक दिन के लिए तो दूसरी दूसरे दिन के लिए? ऐसी संभावना को हमारे देश में जहां कानून तथा अनुशासन की लोग बहुत इज्ज़त नहीं करते, रद्द नहीं किया जा सकता।
यह शिकायत भी जायज़ है कि दिल्ली के प्रदूषण का कारण केवल वाहन प्रदूषण ही नहीं है। पड़ोसी प्रांत हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में पराली जलाने से भी दिल्ली का प्रदूषण बढ़ा है। दिल्ली की और बड़ी समस्या है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट अभी कमजोर है। पर्याप्त बसें नहीं। 10,000 बसें चाहिए जबकि केवल 4500 हैं। मैट्रो केवल 8 प्रतिशत लोगों को लेकर ही जाती है। मैट्रो स्टेशन से घर तक जाने की समस्या है। विशेषतौर पर शाम या रात के वक्त अकेली महिला का चल कर जाना खतरे से भरा है। लेकिन यह भी समस्या है कि जो लोग मैट्रो में जा सकते हैं वह भी गाड़ी लेकर जाते हैं। दरवाजे से दरवाजे तक जाने की आदत पड़ गई है। पैदल चलने को हम तैयार नहीं चाहे सेहत के लिए यह अच्छा है। और यह भी सही है कि प्रदूषण केवल कारें तथा ट्रक ही पैदा नहीं करते, टू व्हीलर तथा ऑटो भी करते हैं। दिल्ली से गुजर रहे ट्रक प्रदूषण पैदा करने में बड़ा योगदान डाल रहे हैं। दिल्ली को नई रिंग रोड की तत्काल जरूरत है ताकि जिस ट्रक का दिल्ली में कोई काम नहीं वह बाहर से निकल जाए। दिल्ली में चारों तरफ निर्माण हो रहा है लेकिन उनके द्वारा पैदा हो रहे प्रदूषण पर कोई नियंत्रण नहीं। अवैध कालोनियों जिन्हें वैध करना राजनेता अपनी बड़ी जिम्मेवारी समझते हैं, के कारण भी गंदगी तथा प्रदूषण फैलता है।
लेकिन कहीं तो शुरू होना है। इस वक्त तो शहर बीमार हो रहा है पर किसी के कान में जूं नहीं रेंग रही। स्कूली बच्चे, बुजुर्ग और सांस की बीमारियों से पीडि़त सब परेशान हैं लेकिन दिल्ली के बिगड़े लोग बदलने को तैयार नहीं। दुनिया के कई बड़े शहर हैं जहां व्यस्त मार्गों पर गाडिय़ां चलाने पर पाबंदी है लेकिन हम इसके लिए भी तैयार नहीं होंगे। सवाल तो यह है कि जिसे केजरीवाल ने ‘प्रदूषण आपातकाल’ कहा है, से निबटने के और रास्ते क्या हैं? यह मामला राजनीति का भी नहीं यह मामला दिल्ली की भावी पीढिय़ों की जिन्दगी का है। अगर हम नहीं चाहते कि वह भी इस ‘गैस चैम्बर’ में रहें तो इसके लिए कुर्बानी करने की जरूरत आज है।
अंत में : जहां अरविंद केजरीवाल दिल्ली में प्रदूषण कम करने की कोशिश कर रहे हैं वहां वह शाब्दिक प्रदूषण बहुत बढ़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री के बारे उन्होंने जो संज्ञाएं इस्तेमाल की हैं वे बिल्कुल आपत्तिजनक हैं। राजनीति में रहते हुए चुनौतियों का सामना मर्यादा में रह कर भी किया जा सकता है।