गतिरोध से ग्रस्त संसद इसका प्रतीक बन गई है। आपसी द्वेष और कड़वाहट संसद की कार्रवाई का अब हिस्सा बन गई है। 24 वर्ष से ब्रिटिश सांसद चले आ रहे मेघनाथ देसाई ने लिखा है कि उन्होंने वहां एक बार भी किसी सांसद को चीखते चिल्लाते नहीं देखा। न वह अपनी जगह छोड़ते हैं। पूरी मर्यादा रखी जाती है पर यहां तो सोनिया गांधी भी वैल में पहुंच चुकीं हैं। वरिष्ठ नेता नारेबाजी करते हैं। राजनेताओं के बीच आपसी शिष्टाचार ही खत्म हो गया लगता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा देश के प्रधानमंत्री को ‘मनोरोगी’ कहना तो पतन की पराकाष्ठा है। बदतमीजी है।
संसद का इस तरह अप्रासंगिक हो जाना हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। आखिर 80 करोड़ मतदाता हर बात के लिए संसद की तरफ आशा से देखते हैं पर यहां अंधेरा नज़र आता है। सरकार जो कानून बनाना चाहती है उसे वह पार्टी रोक कर बैठ गई है जिसके मात्र 45 सांसद हैं। आखिर में सरकार संसद के बिना कामकाज चलाने के लिए मजबूर हो जाएगी।
जो ऊपर होता है उसका प्रभाव नीचे तक पहुंचता है। हर प्रदेश में अराजकता है। उत्तर प्रदेश के दादरी में एक भीड़ ने बीफ खाने के शक में अखलाक नाम के शख्स को पीट-पीट कर मार डाला। पंजाब में एक अकाली नेता के फार्महाउस पर एक दलित युवक के हाथ-पैर काट दिए गए। अरे यार, कानून किधर गया? दिल्ली में 2 साल की तथा 4 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया गया जबकि संसद में नाबालिग अपराधी की उम्र कम करने का विधेयक पास तो हो गया पर संसद इस पर भी विभाजित नज़र आई।
इस साल में असहिष्णुता को लेकर बहुत बड़ी बहस हुई। यहां भी देश दो हिस्सों में बंट गया। मामला तो इतना बेतुका हो गया कि अरबों रुपए कमाने वाले बालीवुड के बादशाह शाहरूख खान और आमिर खान ने भी महसूस करना शुरू कर दिया कि उन्हें भी तकलीफ है। वर्ष के अंत में अपनी फिल्म बचाने के लिए शाहरूख खान ने माफी तो मांग ली लेकिन उसकी फिल्म का विरोध बताता है कि फिजूल क्रिया की बराबर प्रतिक्रिया होती है।
यह वह साल था जब सलमान खान बरी हो गया और सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी को नेशनल हेराल्ड मामले में अदालत में पेश होना पड़ा। सलमान खान के बरी होने से न्याय प्रणाली का मज़ाक बन गया कि शराबी वह नहीं था, कार थी! कानूनी कार्रवाई पर राहुल गांधी बार-बार ‘बदला’ ‘बदला’ कहते रहे हैं। सोनिया गांधी को इंदिरा गांधी याद आ गईं जबकि वह इंदिरा गांधी नहीं। यह आर्थिक घपले का मामला है सत्ता के दुरुपयोग का नहीं। इस मामले में ‘मैजसटी आफ लॉ’ अर्थात् कानून की सर्वोच्चता फिर सिद्ध हो गई। आप कितने भी बड़े हों, किसी भी परिवार से हों कानून आपसे ऊपर है।
साल के अंतिम पखवाड़े में अरुण जेतली ने अरविंद केजरीवाल तथा साथियों पर मानहानि का मामला दर्ज कर दिया। आरोप है कि 24 करोड़ रुपए का स्टेडियम 100 करोड़ रुपए से अधिक में बनाया गया। इस मामले में मेरा बहुत तजुर्बा तो नहीं पर इतना बता दूं कि 24 करोड़ रुपए में कोई स्टेडियम आजकल नहीं बन सकता।
भाजपा के लिए यह साल अच्छा नहीं रहा। दिल्ली में बुरी हार मिली। बिहार में प्रधानमंत्री की सभाओं के बावजूद पार्टी पराजित हो गई। इसका यह भी नुकसान हुआ है कि विपक्ष को आगे का रास्ता नजर आ गया। अगर उन्होंने भाजपा की बराबरी करनी है तो उन्हें सभी मतभेद छोड़ कर इकट्ठा होना है। बिहार का चुनाव देश को नीतीश कुमार में एक भावी विपक्षी नेता दे गया। उनमें वह परिपक्वता है जो राहुल गांधी तथा अरविंद केजरीवाल में नहीं है।
भाजपा के लिए 2016 चुनौती भरा साल होगा। आगे कई विधानसभा चुनाव हैं। असम के अतिरिक्त किसी और प्रदेश से अधिक आशा नहीं। हर पार्टी हर चुनाव नहीं जीत सकती पर भाजपा के नेतृत्व ने यह प्रभाव दे दिया था कि जैसे उनके अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को कोई रोक नहीं सकता इसलिए अब समस्या आ रही है। पर अधिक नुकसान भाजपा के योगी आदित्यनाथ जैसे अपने लोग उग्र बयानों से दे गए। ऐसे वफादारों से दुश्मन बेहतर रहते हैं। इन्होंने तो बीफ को ही मुद्दा बना दिया।
अफसोस की बात तो यह है कि 2015 ऐसा उलझा वर्ष नहीं होना चाहिए था। विदेशी मामलों में इस सरकार विशेषतौर पर प्रधानमंत्री मोदी की उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की जरूरत रहती है। कई कलाबाजियां खाने के बाद भारत तथा पाकिस्तान का रिश्ता कुछ सुधरता लगता है। पर पाक सेना को यह सुधरता रिश्ता रास आता है या नहीं, इस पर भविष्य निर्भर करेगा। प्रधानमंत्री की लाहौर की संक्षिप्त यात्रा से माहौल सुधरा है पर परिणाम की इंतजार रहेगी क्योंकि ऐसे लम्हें पहले भी आ चुके हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। एक साल में विदेशी निवेश में 40-50 फीसदी वृद्धि हुई है। मिडल क्लास भी बढ़ रही है। OROP का मामला काफी हद तक सुलझा लिया गया है। पर जिसे गवर्नेस कहा जाता है उसमें नीचे तक सुधार नहीं हुआ। शायद यह आज तक का सबसे साफ मंत्रिमंडल है लेकिन नीचे तक भ्रष्टाचार में फर्क नहीं पड़ा। न ही आम आदमी के दैनिक जीवन में अंतर ही पड़ा। यह सरकार की बड़ी कमजोरी है।
रोजगार अधिक बढ़ा नहीं। न केवल विदेशों से भारतीयों का अवैध धन वापिस नहीं आया बल्कि जो बड़े मगरमच्छ बैंकों का अरबों रुपए निगल कर यहां बैठे हुए हैं उनके खिलाफ भी उचित कार्रवाई नहीं हुई। न ही सरकारी शिक्षा और न ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा में बेहतरी हुई है। पर्यावरण की हालत है कि राजधानी दिल्ली को ही बड़ी अदालत ने ‘गैस चैम्बर’ कह दिया है।
मैं स्वीकार करता हूं कि इस सरकार को सत्तारूढ़ हुए अभी डेढ़ साल ही हुआ है इस दौरान तारे तोड़ कर वह नहीं ला सकते थे पर समस्या यह है कि बहुत वादे किए गए जबकि नीचे तक फल को पहुंचने में समय लगेगा। सरकार की सबसे बड़ी असफलता यही है कि उसने विपक्ष को राजनीतिक एजेंडा तय करने की अनुमति दे दी। प्रधानमंत्री ने संविधान दिवस पर बढ़िया भाषण दे कर तथा मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी को चाय पर बुला कर पहल छीनने की कोशिश की थी लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम फिर हाथ से फिसल गया। आपसी मतभेद बुरी बात नहीं। भारत जैसे देश में सबकी एक राय नहीं हो सकती लेकिन हर मामले में विभाजित देश भी सही नहीं।
क्या भारत सुधरेगा? क्या वर्ष 2016 बेहतर होगा या उसी तरह हमें घसीटता ले जाएगा जिस तरह 2015 ले गया था? बहुत कुछ उस व्यक्ति पर निर्भर करेगा जिन्होंने 1 दिसम्बर को राज्यसभा में अपने बढ़िया भाषण में कहा था, ‘बिखरने के बहाने इतने बड़े देश में बहुत मिल जाएंगे पर कुछ लोगों का दायित्व है कि जोड़ने का अवसर खोजें।’
मेरा अभिप्राय देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से है। देश को जोड़ने का दायित्व सबसे अधिक उनका बनता है और वह यह काम कर सकते हैं। और केवल वह ही कर सकते हैं।