भारत के प्रधानमंत्रियों के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की जफ्फी खतरनाक साबित हो रही है। 25 दिसम्बर को लाहौर में दोनों प्रधानमंत्रियों नरेन्द्र मोदी तथा नवाज शरीफ ने जफ्फी डाली और एक सप्ताह के बाद पठानकोट के वायुसेना अड्डे पर फिदायीन हमला कर पाकिस्तान की आतंकी व्यवस्था ने इसका जवाब दे दिया। हमारे बहादुर जवानों ने शहीदी दी लेकिन बचाव यह हुआ है कि वह किसी सम्पत्ति तक नहीं पहुंच सके। अगर वह किसी विमान या हैलीकाप्टर को तबाह करने में सफल हो जाते तो स्थिति गंभीर हो जाती। इसी तरह जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 19 फरवरी 1999 को बस में लाहौर जाकर नवाज शरीफ को जफ्फी डाली थी तो कारगिल हो गया। इन 17 सालों में दुनिया बहुत बदल गई लेकिन पाकिस्तान की व्यवस्था में जो लोग भारत से नफरत करते हैं उनकी नफरत खत्म नहीं हुई। वर्तमान हमला करवाने वाला संगठन जैश-ए-मुहम्मद है या लश्कर-ए-तोयबा, या कोई और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तार उन्हीं लोगों के साथ जुड़ी हुई है जिन्होंने 2001 में संसद पर और 2008 में मुम्बई पर भी हमला करवाया था।
पाकिस्तान के विदेश विभाग का कहना है कि उनका देश शांति के प्रति कटिबद्ध है और भारत के साथ मिल कर आतंकवाद का खात्मा करेगा। यह बात समझ नहीं आती। इस मामले में कैसी साझेदारी? उन्होंने तो दाऊद इब्राहिम को वहां छिपाया हुआ है। पाकिस्तान 26/11 के मुम्बई के हमले के अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। यह घुसपैठ भी जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय सीमा पर हुई है। अब पंजाब में शरारत हो रही है। पंजाब पुलिस भी सावधान नहीं है। गृहमंत्री का फिर कहना है कि हम मुंहतोड़ जवाब देंगे। ऐसा कहते कहते राजनाथ सिंह थक नहीं गए? सिर्फ वार्ता के लिए वार्ता तो अर्थहीन है। मुलाकातों का कोई फायदा नहीं अगर इनसे कुछ ठोस नहीं निकलता। नवाज शरीफ प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन जैसे कहा जाता है, उनके पल्ले भी कुछ है?
भारत सरकार, विशेष तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, के आगे अब बड़ा धर्म संकट है। काबुल से लौटते वक्त लाहौर रुक नरेन्द्र मोदी ने दोनों बड़प्पन तथा दिलेरी दिखाई थी लेकिन एक सप्ताह के बाद उधर से सब प्रयास पर पानी फेर दिया गया है और उनकी कूटनीति को भारी चुनौती मिल गई। भाजपा और नरेन्द्र मोदी की ‘आतंकवाद और वार्ता एक साथ नहीं चल सकते’ तथा आतंकवाद के प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीतियों की अब अग्निपरीक्षा हो रही है। यहां विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो रहा है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पाकिस्तान अब क्या कार्रवाई करता है। मुझे ऐसी किसी ठोस कार्रवाई की आशा नहीं। याद रखना चाहिए कि अरबों डालर की सहायता के बावजूद अमरीका भी अफगानिस्तान में पाकिस्तान को सही रास्ते पर चलाने में नाकामयाब रहा था भारत को सफलता मिलना तो और भी संदिग्ध है।
वहां भारत नीति पर नियंत्रण पाक सेना तथा आईएसआई का है जो बदलने को तैयार नहीं। मैंने पिछले लेख में लिखा था, ‘पाक सेना को यह सुधरता रिश्ता रास आता है या नहीं, इस पर भविष्य निर्भर करता है।’ मेरी बात सही साबित हो गई। वह जन्नत भेजने के नाम पर अपने लोगों को मरवाते रहेंगे जबकि यहां एक एक जवान की शहीदी पर बहुत दर्द होता है। एक दशक में मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने पाकिस्तान की जमीन पर कदम रखा। ऐसा करते वक्त उन्होंने अपनी सुरक्षा की भी चिन्ता नहीं की। जब अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पाकिस्तान गये थे तो हवाई अड्डे पर कई जहाज उतारे गये ताकि मालूम न पड़े कि अमरीका का राष्ट्रपति किस जहाज में आ जा रहा है। जब बराक ओबामा नई दिल्ली गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने के लिये आए तो राजपथ पर वह अपनी कार में पहुंचे जो एक टैंक से भी अधिक सुरक्षित है, पर 25 दिसम्बर को भारत के प्रधानमंत्री ने खुद को लगभग पूरी तरह से पाकिस्तान की सुरक्षा पर आश्रित कर दिया था। यह दिलेरी थी, समझदारी नहीं। मामला नरेन्द्र मोदी का नहीं, भारत के प्रधानमंत्री की सुरक्षा का है इसके प्रति लापरवाही नहीं होनी चाहिये, मौका चाहे कैसा भी हो। इस साल प्रधानमंत्री फिर सार्क सम्मेलन के लिये पाकिस्तान जा रहे हैं। उन्हेें संभल कर जाना चाहिये क्योंकि पठानकोट एयरबेस पर हमला बता रहा है कि स्थिति उनके मेजबान के नियंत्रण मेें बहुत कम है। जिनके नियंत्रण में जेहादी कारखाना है उन्होंने पठानकोट मेें हमला करवा कर उन्हें तथा नवाज शरीफ दोनों को संदेश भेज दिया है कि बटन हमारे हाथ में है।
शनिवार शाम को गृहमंत्री ने ट्वीट किया था कि सब आतंकी मारे गए पर बाद में इस ट्वीट को उन्होंने रद्द कर दिया। इस ‘ट्वीट किस्से’ से पता चलता है कि इस मामले में कितनी अफरातफरी है। बहुत से सवाल उठ रहे हैं कि बहुत पहले अलर्ट मिलने के बावजूद तथा पूरी जानकारी के बावजूद आतंकी सुरक्षित एयरबेस में दाखिल होने में कैसे सफल हो गए? गुरदासपुर के एसपी सलविंदर सिंह ने भी तत्काल अधिकारियों को बता दिया था कि कम से कम पांच आतंकी पठानकोट के आसपास घूम रहे हैं। उसी के बाद नेशनल सिक्योरिटी गार्ड पठानकोट भेज दिए गए। आमतौर पर ऐसे हमले के बारे खुफिया एजेंसियां बाद में जागती हैं पर इस बार खुफिया एजेंसियों ने स्पष्ट और सपाट जानकारी दी थी लेकिन इसके बावजूद तथा लगभग 250 अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती के बावजूद आतंकी एयरबेस के अंदर घुसने में तथा हमारे 7 लोगों को शहीद करने तथा कईयों को घायल करने में सफल रहे। यह सही है कि वायुसेना के ‘असैट्ज’ सुरक्षित रहे लेकिन उनका दीवार फांद कर दाखिल होना कम गंभीर हरकत नहीं है। और हमें अपनी एक एक जान प्यारी है।
जुलाई में दीनानगर में हमला करने वाले तथा अब पठानकोट पर हमला करने वालों ने एक ही जगह से घुसपैठ की थी। बीएसएफ चौकस क्यों नहीं थी? मुम्बई 26/11 के हमले के समय भी यही घपला देखा गया था पर एक अंतर है कि मुम्बई के बारे हमें ऐसी स्पष्ट जानकारी नहीं थी जैसी पठानकोट के बारे थी। इसके बावजूद वह 12 फुट ऊंची दीवार फांद कर अंदर दाखिल हो गए। गफलत कहां हुई? यह सवाल भी उठता है कि सीमा पार कर कई घंटे वह किधर रहे? क्या पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र में आतंकियों के स्लीपर सैल हैं जिन्होंने उन्हें आश्रय तथा खाना-पीना दिया? दीनानगर में भी और यहां भी वाहन कहां से मिले? निश्चित तौर पर सीमा की बेहतर हिफाज़त की जरूरत है।
यह मौका नहीं लेकिन बाद में पूरी जांच के बाद लापरवाही की जिम्मेवारी तय करना जरूरी होगा। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पठानकोट एयरबेस पर हमला तथा अफगानिस्तान में मज़ार-ए-शरीफ में हमारे दूतावास पर हमला बताता है कि पाकिस्तान की सैनिक व्यवस्था पर काबिज लोग भारत-पाक रिश्ते को बेहतर होता बर्दाश्त नहीं कर सकते। अब देखते हैं कि भारत सरकार इस दुस्साहस का जवाब क्या देती है? उन्हें समझना चाहिए कि छद्म युद्ध का जवाब कूटनीतिक चाय पर चर्चा नहीं है। हमले और भी हो सकते हैं। मियां साहिब की जफ्फी भारत के प्रधानमंत्रियों के लिए बहुत महंगी साबित होती है।
जफ्फी नंबर दो (Hug Number Two) ,