लाल कृष्ण आडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी की अनुपस्थिति में अमित शाह फिर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बन गए हैं। जिस तरह उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समर्थन मिला हुआ है संभावना यही लगती है कि पार्टी अमित शाह के नेतृत्व में ही अगले चुनाव मैदान में भी उतरेगी। उनके नेतृत्व में पार्टी ने 2014 का चुनाव जीता। उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड तथा जम्मू कश्मीर में एक के बाद एक चुनाव पार्टी जीतती चली गई। जम्मू कश्मीर में पहली बार भाजपा सत्ता में घुसपैठ करने में सफल रही चाहे इस वक्त इस गठबंधन का भविष्य अनिश्चित नज़र आता है। लेकिन जहां इतनी कामयाबी मिली हो कहीं लापरवाही भी आ जाती है जिसका परिणाम दिल्ली तथा बिहार में पराजय था। बिहार अमित शाह की रणनीति तथा राजनीति की घोर असफलता थी। किसी भी स्थानीय नेता को आगे पेश नहीं किया गया। केवल दो चेहरे, नरेन्द्र तथा अमित शाह ही थे जो गुजराती हैं। प्रधानमंत्री की तो बात समझ आती है पर अमित शाह ने कैसे समझ लिया कि बिहारी उनके प्रति आकर्षित होंगे? नीतीश कुमार ने बिहारी बनाम बाहरी का मुद्दा बना कर भाजपा को ध्वस्त कर दिया और बिहार अमित शाह के लिए एक प्रकार से वाटरलू साबित हुआ। अचानक 11 करोड़ कार्यकर्ताओं की भर्ती का आंकड़ा फर्जी लगने लगा है।
आगे रास्ता बहुत कठिन है। 2016-17 में सात राज्यों, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम, पुड्डुचेरी, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं। शाह को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पूरा समर्थन है तथा दूसरा उन्हें संगठन की समझ है। जहां तक प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन की बात है यह तो रहेगा क्योंकि प्रधानमंत्री यह प्रभाव दे रहे हैं कि अमित शाह के अलावा उनका कोई विश्वासपात्र नहीं है लेकिन इस समर्थन को कायम रखने के लिए अमित शाह को भी बेहतर प्रदर्शन दिखाना होगा। नरेन्द्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए उन्हें विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश जीतना होगा लेकिन उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव में जीत के बाद पार्टी लगभग हर चुनाव हारती आ रही है जिनमें उपचुनाव तथा स्थानीय चुनाव भी शामिल हैं। स्थानीय चुनाव में तो भाजपा दोनों नेताओं के गृह प्रदेश गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भी उस कांग्रेस से पिट गई है जो 20 वर्षों से सत्ता से बाहर है। महाराष्ट्र में भी पार्टी पिट गई। जो सात चुनाव आगे हैं उनमें भाजपा केवल असम में कुछ बेहतर स्थिति में है। अर्थात् इन चुनावों में अमित शाह की कथित संगठनात्मक क्षमता का इम्तिहान होने वाला है और अगर वह इसमें सफल नहीं होते तो दोस्तियां तथा वफादारियां दोनों कमजोर पड़ जाएंगी। उनकी वैसे भी असफलता है कि न वह लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे मार्गदर्शक मंडल के वरिष्ठ सदस्यों के अनुभव का लाभ ले सके और न ही वह शत्रुघ्न सिन्हा तथा कीर्ति आजाद की बगावत को ही रोक सके। उल्लेखनीय है कि अमित शाह के साथ लम्बी वार्ता के बावजूद कीर्ति आजाद खामोश होने को तैयार नहीं हुए।
सरकार तथा पार्टी की छवि का इन 20 महीनों में पतन हुआ है। नरेन्द्र मोदी का जादू कमजोर पड़ा है। देश में फिर निराशा का वातावरण फैल रहा है। निश्चित तौर पर पार्टी के विरोधी इसे हवा देने में मदद कर रहे हैं लेकिन पहले दादरी और अब हैदराबाद में दलित छात्र की आत्महत्या के बारे लम्बी चुप्पी रख कर प्रधानमंत्री भी यह एहसास दे रहे हैं कि उन्होंने देश की नब्ज़ से हाथ हटा लिया है। जो शोक उन्होंने प्रकट किया उसे वह पांच दिन पहले क्यों नहीं प्रकट कर सके? यह दलित समाज में उबाल आने के बाद ही क्यों व्यक्त किया गया?
यह पहली बार नहीं कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में किसी दलित छात्र ने आत्महत्या की हो लेकिन भाजपा के मंत्रियों की दखल ने मामला नाजुक बना दिया। दलित युवकों की हताशा का जवाब सरकारी अहंकार से दिया गया। एकदम दलित और युवा नाराज़ हो गए। एक सवाल और। खुद भाजपा अध्यक्ष हैदराबाद क्यों नहीं जा सके? क्या उन्हें केवल चुनावी राजनीति में ही दिलचस्पी है उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि समाज के अंदर ऐसी घटनाओं ने किस तरह बेचैनी पैदा कर दी है? रोहित की शिकायत कि ‘मेरा जन्म ही हादसा था’ हर संवेदनशील भारतीय को परेशान करने वाली है। इसी प्रकार बिहार के चुनाव से पहले दादरी कांड के बारे शुरुआती चुप्पी घातक सिद्ध हुई। असहिष्णुता का मुद्दा विकास पर हावी हो गया और भाजपा इसके बीच खो गई। हर मोर्चे पर सम्बित पात्रा नहीं लड़ सकते बड़े नेताओं को भी निकलना चाहिए। रोहित वेमुला की आत्महत्या का प्रकरण भाजपा तथा संघ दोनों का भारी नुकसान कर गया है।
पठानकोट एयरबेस पर हुआ हमला भी बता गया कि सरकार का प्रबंधन सही नहीं है। अभी तक यह भी मालूम नहीं कि चार आतंकी थे या छ:? संकट की घड़ी में यह एहसास मिला कि नियंत्रण कहीं कमजोर है। और न ही आर्थिक क्षेत्र में अभी फल सामने आए हैं। तेल की कीमतों में भारी गिरावट तथा 7 प्रतिशत की दर से विश्व की सबसे तेज़ गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था होने के बावजूद जमीन पर कुछ नज़र नहीं आ रहा। मार्केट 2014 के स्तर तक गिर चुकी है। रुपया गिरावट का रिकार्ड कायम कर रहा है। मैं स्वीकार करता हूं कि अभी 40 महीने पड़े हैं लेकिन देश के अंदर नैराश्य है।
इसी स्थिति को संभालने की तत्काल जरूरत है। केवल सरकारी स्तर पर ही नहीं पार्टी स्तर पर भी। राम मंदिर का मुद्दा उछाल कर लोगों को भरमाया नहीं जा सकता क्योंकि सब जानते हैं ऐसा उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर किया जा रहा है। दंगे तो पहली सरकारों के समय में भी होते रहे हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी जैसे सख्त प्रशासक से आशा थी कि वह देश को संभाल कर रखेंगे। बेचैनी बढ़ी है, लोकप्रियता का पतन हुआ है। स्टार्टअप जैसे कार्यक्रम सबको बराबर का मौका देंगे, ऐसा भारत बनाने में सफल होंगे कि पैदायश सफलता के रास्ते में रुकावट नहीं रहेगी। अर्थात् सोच सही है पर अमल में कमजोरी है। बड़े बड़े कार्यक्रमों की चकाचौंध और आकर्षित नारों से ऊपर उठ कर आम आदमी से सम्पर्क स्थापित करने की बहुत जरूरत है जो कहीं कमजोर पड़ गया है। शिकायत है कि भाजपा अध्यक्ष को मिलना बहुत कठिन है। कई कई महीने वह मुलाकात का समय नहीं देते। अमित शाह अपने किले में बंद केवल पार्टी कार्यक्रमों में नज़र आते हैं। उन्हें इन तीन वर्षों में खुद को लोगों से जोडऩे का प्रयास करना चाहिए और अगर वास्तव में शहनशाह बनना है तो खुद को जनता तथा पार्टी का सेवक समझना होगा। लोग इस समय जरूर नाराज़ हैं पर इस सरकार को सफल होते भी देखना चाहते हैं। नरेन्द्र मोदी पर लोगों को भरोसा है, अमित शाह को भरोसा अभी अर्जित करना है।