सुखबीर सिंह बादल बठिंडा में अकाली कार्यकर्ताओं को बैसाखी के दिन तलवंडी साबो में अकाली सम्मेलन में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहे थे पर जो उन्होंने वहां कहा वह अजीब था। सुखबीर का कहना था, ‘पिंडा विच बस्सां भेज दित्तियां जाण गियां पर वर्कर तो सौंह पाके लैके आणा।’ अर्थात् अकाली दल के प्रधान कह रहे थे कि आपको सम्मेलन तक मुफ्त पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम कर दिया जाएगा पर लोगों को शपथ दिलवा कर लाएं कि वह और कहीं नहीं जाएंगे। इसमें अकाली दल के सर्वेसर्वा की घबराहट छिपी थी कि माघी वाला इतिहास न दोहराया जाए जब लोग अकाली दल द्वारा भेजी बसों में सम्मेलन स्थल तक तो पहुंच गए थे पर बसों से उतर कर आप की रैली में अरविंद केजरीवाल को सुनने चले गए थे। आप की उस रैली में अकाली तथा कांग्रेस दोनों की रैलियों को मिला कर भी हाजरी अधिक थी।
बैसाखी पर रैली में ऐसा नहीं हुआ। अकाली दल की रैली अच्छी रही। लेकिन चाहे सुखबीर आप का ‘टोपीवाले’ कह कर मजाक उड़ा रहे हैं पर उनकी घबराहट बताती है कि चुनौती कैसी जबरदस्त मिल रही है। अमरेन्द्र सिंह भी कभी कहते हैं कि आप की कोई चुनौती नहीं तो कभी कहते हैं कि मुकाबला कांग्रेस तथा आप के बीच है। वह भी देख रहे हैं कि दौड़ दो की नहीं रही और दौड़ में शामिल नया खिलाड़ी, आप, सबसे तेज दौड़ रहा है। स्थिति तो ऐसी बन गई है कि अकाली दल तथा कांग्रेस एक दूसरे को कम पर उस आप को अधिक कोसते हैं जिसका उनके मुताबिक वजूद नहीं है।
लोकसभा चुनाव में आप चार सीटें जीत गई। उस वक्त आप के पास पंजाब में कोई संगठन नहीं था। लेकिन तब से लेकर अब तक बहुत परिवर्तन आ चुका है। अकाली दल का ग्राफ और गिरा है। अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व तथा आयातित जादूगर प्रशांत किशोर के मार्गदर्शन के बावजूद कांग्रेस उतना उत्साह पैदा नहीं कर सकी जितनी उन्हें आशा थी। लोगों में सम्पूर्ण बदलाव का रुझान नज़र आता है। वह समझते हैं कि दोनों बादल परिवार तथा अमरेन्द्र सिंह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए नए परीक्षण करने पर विचार कर रहे हैं। एक समस्या और है। अमरेन्द्र सिंह का गैर जाट सिख वर्ग से सम्पर्क नहीं। पिछली दो बार भी कांग्रेस को मार इसीलिए पड़ी क्योंकि अमरेन्द्र सिंह ने हिन्दुओं तथा दलितों जो पार्टी के परम्परागत वोटर हैं की परवाह नहीं की। जिस तरह महबूबा मुफ्ती नरम अलगाववाद की नीति पर चलती रहीं अमरेन्द्र सिंह नरम पंथक नीति अपनाते रहे।
राहुल गांधी की जीरकपुर की यात्रा पार्टी को अधिक कन्फ्यूज़्ड छोड़ गई है। समझा गया था कि कांग्रेस अमरेन्द्र सिंह को पार्टी के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करेगी। अमरेन्द्र को चुनाव अभियान का चेहरा तो घोषित कर दिया गया पर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल ने अमरेन्द्र सिंह को यह कहने के लिए माफ नहीं किया कि ‘राहुल को अभी समझ नहीं है।’ याद रखिए कि इंदिरा गांधी के समय से ही गांधी परिवार की याददाश्त बहुत लम्बी हो गई है। वह अपमान या जो अपमान जैसा नज़र आए, के लिए माफ नहीं करते। अर्जुन सिंह ने मध्यप्रदेश में पार्टी को विजयी बनवाया तो उन्हें पंजाब का राज्यपाल बना भेज दिया। भजनलाल ने हरियाणा में जीत दिलवाई तो भूपिन्द्र सिंह हुड्डा को सीएम बना दिया गया। अमरेन्द्र सिंह को भी सावधान हो जाना चाहिए।
आज पंजाब की जमीनी स्थिति के बारे कहा जा सकता है,
नया चश्मा है पत्थर के शिगाफों पर उबलने को
ज़माना किस कदर बेताब है करवट बदलने को!
यह जो करवट बदलने वाली स्थिति पंजाब में बनती जा रही है इसने अकाली तथा कांग्रेस के नेतृत्व की नींद हराम कर दी है। एक पार्टी जिसने यहां कभी शासन नहीं किया, जिसकी चुनावी मशीनरी नहीं, लोकसभा चुनाव में अधिकतर मेज़ तथा बूथ नहीं लगे थे, कोई पक्का नेतृत्व नहीं वह उन पार्टियों के लिए गंभीर चुनौती बन गई है जो छ: दशकों से यहां जमी हुई हैं। पंजाब की जनसंख्या का 70 प्रतिशत युवा है। इनका अधिकतर रुझान आप की तरफ है। पंजाब में आप का उभार सब राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी है कि जब लोग अपने सामने पुराने विकल्पों से नाराज़ हो जाते हैं तो अपना विकल्प खुद बना लेते हैं।
सुखबीर बादल को मैं यह श्रेय देना चाहता हूं कि उन्होंने अकाली दल का स्वरूप बदल कर उसे धर्म की जकड़ से निकाला है। अब अकाली दल लगभग एक सैक्युलर पार्टी है। इससे पंजाब का हित हुआ है पर अकाली दल की पकड़ कमजोर हुई है। अगर प्रशासन अच्छा दिया जाता तो इसका अकाली दल को बड़ा फायदा होता। पर बंद होते कारखाने, बढ़ती बेरोजगारी, एक परिवार का एकछत्र शासन, खेती का संकट, गिरती विकास दर, ड्रग्स तथा फैले हुए भ्रष्टाचार ने अकाली दल को दिशा परिवर्तन का फायदा नहीं लेने दिया। बादल साहिब स्थिति को समझते हैं इसलिए कभी कभार पंथक मामले उठा लेते हैं। सतलुज-यमुना लिंक नहर का मसला भी अब इसीलिए निकाला गया है पर इसका भी चुनावी लाभ कम मिलेगा क्योंकि लोगों का ध्यान दूसरे मसलों पर है। अकाली नेतृत्व में कितनी घबराहट है यह इस बात से पता चलता है कि दो साल के बाद सुखबीर बादल श्री हरिमंदिर साहिब में भिंडरावाला स्मारक जिसे ब्लू स्टार स्मारक भी कहा जाता है, पर माथा टेकने पहुंच गए। जब आदमी फंसता है तो चारों तरफ हाथ पैर मारता है।
अकाली दल के साथ जो अविश्वास है तथा भाजपा की अपनी आंतरिक कमजोरी है वह पंजाब भाजपा के नए अध्यक्ष विजय सांपला के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है। हाईकमान की नीति भी समझ से बाहर है, वह न मरने देते हैं और न जीने देते हैं! बहुत समय से यह जरूरत समझी जा रही है कि मंत्रिमंडल में भाजपा के मंत्री प्रभावी नहीं और इन्हें बदला जाए लेकिन नई दिल्ली मामला लटकाए जा रहा है। भाजपा को उसके हाईकमान ने अकालियों को आउटसोर्स कर दिया है। हाईकमान जानता है कि इनके पास अकेले दम नहीं चुनाव लड़ने का। अब भाजपा बड़ी शान से गठबंधन धर्म की बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी देने जा रही है।
आप के सामने भी कई समस्याएं हैं। पंजाब के दो सांसद धर्मबीर गांधी तथा हरिन्दर सिंह खालसा निलंबित हैं। यह शिकायत भी है कि सिख रैडिकल तथा पूर्व नक्सलवादी पार्टी में घुसपैठ कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी है कि मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने के लिए आप के पास कोई चेहरा नहीं। केजरीवाल खुद हरियाणा से हैं जिसके साथ पंजाब का पानी का झंझट है। अकाली पहले ही चुनौती दे रहे हैं कि केजरीवाल यह स्पष्ट करें कि पानी के झगड़े में किसके साथ खड़े हैं? भगवंत मान तथा गुरप्रीत घुग्गी लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं पर सरकार चलाने के लिए हंसी मज़ाक ही काफी नहीं। केवल जुमलों से सरकार नहीं चल सकती क्षमता चाहिए।
क्या आप ऐसा कोई नेता पेश करेगा? क्या आप के पास ऐसा कोई नेता है भी? यह सवाल ही मेरे उस सवाल का जवाब तय करेंगे कि पंजाब में अरविंद केजरीवाल तथा उनकी पार्टी का राज आएगा या नहीं?