
पांच विधानसभा चुनावों के परिणाम बता गए हैं कि भाजपा के अच्छे दिन फिर आ रहे हैं और कांग्रेस का दु:स्वप्न जारी है। असम और केरल कांग्रेस के हाथ से निकल गए हैं। पार्टी में बेचैनी बढ़ रही है। ममता बैनर्जी की धमाकेदार जीत हुई है और जयललिता एमजीआर के बाद पहली मुख्यमंत्री बनी हैं जिन्हें दोबारा सत्ता मिली है। त्रिपुरा तक सीमित वाम को केरल से राहत मिलेगी पर पश्चिम बंगाल में मिली कुचलने वाली पराजय से पता चलता है कि देश कांग्रेस मुक्त ही नहीं कामरेड मुक्त होने की दिशा में भी चल रहा है।
असम में भाजपा की सरकार उत्तर पूर्व की पहली भाजपा सरकार होगी। इससे भाजपा को दिल्ली तथा बिहार की पराजय से उभरने का मौका मिलेगा और केन्द्र में और मजबूती मिलेगी। पार्टी फिर राजनीतिक पहल छीनने में सफल हो गई है जो उसने दिल्ली तथा बिहार की हार के बाद खो दी थी। अभी से ममता बैनर्जी कह रही हैं कि वह जीएसटी के मामले में केन्द्र सरकार का समर्थन करेंगी। सरकार के लिए संसद में अपना कामकाज निपटाना आसान हो जाएगा। राहुल गांधी के नखरे सहने की जरूरत नहीं रहेगी। यूपीए के समय के ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसे जुमलों की हवा निकाल तथा साध्वी प्रज्ञा जैसी नेता को रिहा करवा सरकार हिन्दुओं को सीधा संदेश भेज रही है। चाहे सैक्युलरवादियों ने बहुत आलोचना की थी पर जिस तरह सरकार जेएनयू की मिनी बगावत से निपटी है उसका भी भाजपा को फायदा पहुंचा है। पार्टी राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने में सफल रही है।
इन चुनावों से अमित शाह को भी राहत मिलेगी। असम में हेमंत विश्व सरमा को खोना भी कांग्रेस को महंगा पड़ा। उनकी शिकायत थी कि कई महीने राहुल गांधी ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया और जब तीन मिनट मिलने का समय दिया तो राहुल अपने कुत्ते से ही खेलते रहे। अपने शासन के दो वर्ष मना रही भाजपा के लिए यह चुनाव बहुत बड़ी खुशखबरी है। तोहफा मिल गया। इसके साथ अगर यह देखा जाए कि अर्थव्यवस्था में फिर से गति पैदा हो रही है और मौसम विभाग सही मानसून की भविष्यवाणी कर रहा है तो नरेन्द्र मोदी के लिए बम-बम समय आने वाला है और यह तो स्पष्ट ही है कि लोकप्रियता के मामले में कोई भी नेता नरेन्द्र मोदी का मुकाबला नहीं कर सकता, न भाजपा के बाहर, न ही भाजपा के अंदर। उन्हें शासन विधि और बेहतर करने तथा लोगों की जिन्दगी की गुणत्ता बढ़ाने की तरफ और ध्यान देना है।
शारदा तथा नारदा घोटालों के बावजूद दीदी को मिल रहा अधिक समर्थन बताता है कि जनता का अभी भी उनमें विश्वास है। कामरेडों ने कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में गठजोड़ किया तो केरल में दोनों आमने सामने थे। इस बेईमानी का भी वोटर पर प्रभाव पड़ा। शहरी क्षेत्रों में अवश्य कुछ आलोचना थी। बताया गया कि ‘भद्रलोक’ नाराज़ है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ममता को खूब समर्थन मिला। प्रभाव यह है कि वह भ्रष्ट लोगों से घिरी हुई हैं पर खुद साफ हैं। पश्चिम बंगाल को फिर से खड़ा करने के लिए ममता को केन्द्र की सहायता चाहिए इसलिए उन्हें अपना रवैया नरम करना चाहिए। हर वक्त युद्धरत नहीं रहा जा सकता।
कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य जारी है। पश्चिम बंगाल में वामदलों तथा तमिलनाडु में द्रमुक के लिए कांग्रेस का सहयोग KISS OF DEATH से कम नहीं रहा। अब कांग्रेस को गठबंधन के लिए और साथी ढूंढना बहुत मुश्किल होगा। जिस पार्टी का कभी पूरे देश पर शासन था अब केवल 6 प्रतिशत जनसंख्या पर ही शासन कर रही है जबकि 45 प्रतिशत जनसंख्या भाजपा के नीचे है। 2013 के बाद कांग्रेस 12 विधानसभा चुनाव हार चुकी है। वह अकेले चुनाव लड़े या किसी के साथ गठबंधन में जैसे पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडु में, नतीजा एक सा ही है। अब कांग्रेस केवल छ: प्रदेशों में सत्ता में है, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मिजोरम, मेघालय तथा मणिपुर। बड़ा प्रदेश केवल कर्नाटक रह गया है। राहुल गांधी एक प्रकार से कांग्रेस के बहादुर शाह जफर बन रहे हैं। अंतिम मुगल! उनका हर कदम उलटा पड़ रहा है। सदैव अपनी कुर्सी की चिंता रहती है कि कोई प्रादेशिक नेता इतना बड़ा न बन जाए कि चुनौती दे दे इसलिए पार्टी प्रदेशों में कमजोर पड़ गई है। असम में एआईयूडीएफ से गठबंधन से इन्कार कर दिया तो तमिलनाडु में बदनाम द्रमुक के साथ मिल कर चुनाव लड़ा। यह उस वक्त किया गया जब देश भ्रष्टाचार तथा परिवारवाद दोनों से मुक्ति चाहता है और जब नरेन्द्र मोदी की सरकार के इन दो वर्षों में शीर्ष पर एक भी घोटाला नहीं हुआ।
और जनाब रात को जेएनयू में क्या करने गए थे? जिस जगह भारत के टुकड़े टुकड़े करने के नारे लग रहे थे वहां समर्थक के तौर पर कांग्रेस के उपाध्यक्ष क्या करने गए थे? उन्हें अंग्रेजी के टीवी चैनल देखने बंद करने चाहिए क्योंकि यह भी जमीनी हकीकत से उतने ही दूर हैं जितने खुद राहुल गांधी। देश के लिए कन्हैया कुमार, अनिर्बान भट्टाचार्य तथा उमर खालिद हीरो नहीं खलनायक हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने अपने नकली सैक्युलरवाद तथा अल्पसंख्यकवाद के कारण राष्ट्रवाद की बहस में भी खुद को अलग थलग कर लिया था। अगस्ता वैस्टलैंड में इतालवी कनैक्शन ध्वस्त कर गया।
कांग्रेस लगातार गिरती जा रही है और भाजपा एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी रह गई है। कांग्रेस के नेतृत्व को समझ नहीं आई कि नरेन्द्र मोदी देश का एजेंडा बदलने में सफल रहे हैं। पार्टी अब बदहवास हो रही है पर वह नेतृत्व नहीं जो संभाल सके। हालत तो यह बन रही है,
किस रहनुमा से पूछें मंजिल का कुछ पता
हम जिससे पूछते हैं उसे खुद पता नहीं!
बार बार प्रियंका को लाने की मांग भी बताती है कि कांग्रेसजन किस कद्र घबराए हुए हैं। बीच में राबर्ट वाड्रा का कामेडी शो भी पार्टी को और बदनाम कर रहा है। क्या कांग्रेस की दिशा तथा नेतृत्व में परिवर्तन आएगा? दिग्विजय सिंह बड़ी सर्जरी की बात कर रहे हैं। लेकिन चम्मचों से भरी कांग्रेस पार्टी में बदलने की क्षमता है भी? सिंधिया संसद में सोनिया गांधी के बारे यह कह चुके हैं कि ‘शेरनी हैं, शेरनी।’ पर अब तो शेरनीजी के दो दांत और टूट गए! जहां चम्मचागिरी को कला में परिवर्तित कर लिया गया हो वहां परिवर्तन होगा कैसे?
पश्चिम बंगाल में वाम की दुर्गत भी उनके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। देश धीरे धीरे कामरेड मुक्त भी हो रहा है। उनकी विचारधारा अप्रासंगिक होती जा रही है। कामरेड देश की मुख्यधारा से कटते जा रहे हैं। कोई लाल सलाम करने को तैयार नहीं। युवाओं को अच्छी नौकरी चाहिए और घिसी पिटी विचारधारा नहीं। जिस तरह की गतिविधियां जेएनयू तथा जाधव विश्वविद्यालय में नज़र आईं वह कोई स्वाभिमानी देश और समाज बर्दाश्त नहीं कर सकता।