
आतंकी बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के हाथों हुई मौत के बाद कश्मीर अभी तक अशांत चल रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि जब से वहां पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार बनी है तथा वहां पंडितों की वापिसी और सैनिक कालोनी बनाने का प्रयास हो रहा है तब से असंतोष बढ़ गया है। यह बात आंशिक तौर पर ही सही है। ठीक है पीडीपी-भाजपा गठबंधन अभी तक मजबूत तथा उद्देश्यपूर्ण सरकार नहीं दे पाया लेकिन असंतोष तो वहां आज से नहीं पिछले 30 वर्षों से है। प्रदर्शन उनके डीएनए में है। कश्मीर अंतरराष्ट्रीय जेहाद और जिसे फ्रांस के राष्ट्रपति ने ‘इस्लामिक टैरर’ कहा है, से भी अछूता नहीं रह सकता। बुरहान वानी एक जेहादी टैररिस्ट था। पाकिस्तान का कहना है कि ‘कश्मीरी नेता’ बुरहान वानी की मौत से नवाज शरीफ सदमे में हैं। उनका सदमा उन्हें मुबारिक!
अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मुद्दा उठाने पर पाक की खूब खिंचाई हुई है। अमेरिका में तो एक प्रभावशाली वर्ग यह मांग उठा रहा है कि पाकिस्तान के नेताओं तथा जरनैलों के अमेरिका प्रवेश पर पाबंदी लगनी चाहिए। उनकी संसद में पाक पर बहस के दौरान एक सांसद ने तो यहां तक कह दिया कि ऐसा प्रतीत होता है कि हम माफिया की मदद कर रहे हैं। कश्मीरी नेता बराबर दोषी हैं। उमर अब्दुल्ला जो खुद श्रीनगर की हॉट सीट पर बैठ चुके हैं, का ट्वीट कि ‘मारा गया बुरहान वानी अब अधिक लोगों को मिलिटैंसी की तरफ आकर्षित करेगा’, अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। वह तो यह आभास दे रहे हैं कि जैसे उसका काम तमाम कर सरकार ने बहुत बड़ी गलती की है।
विपक्ष के नेता रहते महबूबा मुफ्ती मारे गए हर आतंकी के घर अफसोस करने पहुंचती थीं। तर्क था कि यह ‘हमारे लड़के हैं।’ आज ऐसे ही कुछ लड़के मारे गए और कई घायल हैं और वह डल झील के किनारे अपने शानदार बंगले में बंद बैठी हैं। अतीत ने वर्तमान को जकड़ लिया है। वह वही आजादी के नारे सुन रही हैं जो उमर सुनते थे। जिम्मेवारी सिर पर पडऩे के बाद महबूबा कुछ परिपक्वता जरूर दिखा रही हैं। वह मारे गए पुलिस जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जा रही हैं और उन्होंने बेबाक कहा है कि पंडितों को वापिस लाना है और वह इसके लिए दृढ़संकल्प हैं। उनका कहना था कि पहले उन्हें अस्थायी कैम्पों में रखना पड़ेगा क्योंकि एकदम ‘कबूतरों को बिल्लियों के बीच नहीं रखा जा सकता।’
यह कश्मीर का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों तथा नेताओं की स्पर्धा भी चैन नहीं लेने देती। किसी में हिम्मत नहीं कि सही रास्ता दिखाए। सब कश्मीरी मुसलमानों में असंतोष को बढ़ावा देते रहते हैं कि जैसे हिन्दोस्तान में वह रह नहीं सकते। उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात बार-बार की जाती है पर यह वही लोग हैं जिन्होंने लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने घरों से निकाल दिया था। क्या कश्मीरी अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार नहीं हैं? एक भी कश्मीरी नेता ने उस समय उनके पलायन का विरोध नहीं किया। दम होता तो उनके काफिले के आगे लेट जाते कि मर जाएंगे, आपको जाने नहीं देंगे।
कश्मीरी अलगाववादी नेता अपने घरों में नजरबंद हो जाते हैं और दूसरों के लड़कों को भड़का कर गोलियां खाने के लिए आगे कर देते हैं। पुलिस की कार्रवाई में 12-13 साल तक के लड़के जख्मी हैं। इन्हें क्या समझ है? पर इन्हें भड़काया जा रहा है। इन कश्मीरी नेताओं की अपनी औलाद कश्मीर से बाहर सुरक्षित और संपन्न है। जेहाद दूसरों के बच्चों के लिए है। चाहे अब्दुल्ला परिवार हो या मुफ्ती परिवार हो या मीरवायज़ या गिलानी या अंद्रोबी का परिवार हो, इन्होंने बुरहान वानी क्यों नहीं पैदा किए?
कश्मीरी समझते नहीं कि जो कश्मीर में हो रहा है या होता रहा है उसे सारा देश देख रहा है। जो देश के खिलाफ इसी तरह बंदूक उठाएंगे उनका यही हश्र होगा। मार्च 1990 में जेकेएलएफ के मिलिटैंट लीडर अशफाक मजीद वानी के मारे जाने के बाद भी उपद्रव हुए थे। देश वह स्थिति झेल गया, इस स्थिति को भी झेल जाएगा। आगे भी अगर ऐसा कुछ होता है उसे झेलने की भी हम में क्षमता है। भावी बुरहान वानियों का भी यही हश्र होगा और होना चाहिए। इस बात पर राष्ट्रीय सहमति है। संदेश साफ है कि आतंकवाद के बल पर कुछ हासिल नहीं होगा। पाकिस्तान यह जानता है। वह बार-बार प्रयास कर हार चुका है लेकिन शरारत करता रहेगा।
इन मौतों पर गहरा दुख है पर जिम्मेवार कौन है? जिम्मेवार वह हैं जो पीछे से युवकों को सुरक्षाबलों पर हमला करने के लिए उकसाते हैं। हुर्रियत के नेता युवा लड़कों के खून पर अपनी दुकान सजा रहे हैं। जनरल सईद अता हसनैन जो ऊधमपुर में कोर की कमान संभाल चुके हैं, का कहना है कि कोई पीछे से भीड़ का नियंत्रण कर रहा है और उन्हें बता रहा है कि क्या करें। यह कौन लोग हैं? भीड़ बार-बार सुरक्षाबलों पर हमले बोल रही है। हथियार छीनने का प्रयास हो रहा है। चौकियों को आग लगाई जा रही है। एक पुलिस अधिकारी को उसके वाहन समेत झेलम नदी में फेंक दिया गया। ऐसी स्थिति में सुरक्षाबल हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते। अपने लोगों पर कोई गोली नहीं चलाना चाहता लेकिन जब अपने ही नियंत्रण खो बैठें तो क्या किया जाए? वाजपेयी ने कश्मीर में जाकर कहा था कि उनकी नीति इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत पर आधारित होगी पर यहां तो हैवानियत हो रही है।
बहुत लोग हैं जो कह रहे हैं कि केन्द्र ने राजनीतिक कदम नहीं उठाए। मीडिया का एक हिस्सा भी यह रट लगा रहा है। कुछ प्रमुख एंकर हैं जिनकी पत्थरबाजी कर रहे युवकों के साथ जरूरत से अधिक सहानुभूति है। लेकिन यह ‘राजनीतिक कदम’ हो क्या सकते हैं? क्या निष्पक्ष चुनाव करवाना और जनता द्वारा सरकार को चुनना राजनीतिक कदम नहीं हैं? क्या हुर्रियत कांफ्रेंस के उन नेताओं, जो दोनों तरफ से पैसे लेते हैं और चुनाव लडऩे से भयभीत हैं, से बात करना ‘राजनीतिक कदम’ हो सकता है? कश्मीर में बेहतरी तब ही होगी जब वह मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। कई युवक हैं जो अखिल भारतीय सेवाओं में नए कीर्तिमान बना रहे हैं। जो निकल सकता है वह निकल रहा है क्योंकि माहौल रहने लायक नहीं रहा।
शांतमय प्रदर्शन का इनको हक है पर हमले का नहीं। जो पुलिस या बीएसएफ या सेना पर हमले करते हैं उन्हें यही जवाब है। उनके गले में हार नहीं डाले जा सकते। जो नेता इन युवकों को प्रेरित करते हैं उन्हें भी सोचना चाहिए कि उनकी इस उग्र नकारात्मक नीति ने कश्मीर को और कब्रिस्तान के सिवाय और क्या दिया है?