ओलम्पिक खेलों में भारत महान् 67वें नम्बर पर रहा। लंदन ओलम्पिक में हमें छ: मैडल मिले थे लेकिन इस बार हम सिंधू के रजत तथा साक्षी के कांस्य पदक पर ही अटक गए। पीवी सिंधू, साक्षी मलिक तथा दीपा करमाकर जैसे खिलाड़ी वास्तव में देश के रत्न हैं। हाकी का भी पुनरुत्थान हो रहा है। पर साफ है कि लंदन ओलम्पिक के बाद हमारे खेल में सुधार होने की जगह पतन हुआ है। अधिकतर खिलाड़ियों ने अपने राष्ट्रीय रिकार्ड से कम प्रदर्शन किया और बाक्सिंग तथा पहलवानी घपले का शिकार हो गई जो नरसिंह यादव के मामले से पता चलता है। 84 प्रतिशत अपने क्वालीफाइंग मार्क से नीचे रहे। 34 में से केवल 4 एथलीट फाइनल में पहुंचे। अधिकतर का एशियाई तथा कॉमनवैल्थ खेलों में बेहतर प्रदर्शन था। लेकिन इसका सही आंकलन करने की जगह हम दो पदक प्राप्त करने के जश्न में डूबे हैं। कोई संतुलन नहीं जबकि हमारा प्रदर्शन शर्मनाक रहा है।
ऐसा लिखते हुए मैं अपने खिलाड़ियों की मेहनत को कम नहीं आंक रहा। बहुत खिलाड़ी बहुत विपरीत परिस्थिति को पार कर यहां पहुंचे हैं। वह यहां तक केवल अपने खून और पसीने से पहुंचे हैं। अधिकतर खेल व्यवस्था के कारण नहीं बल्कि उसके बावजूद वहां पहुंचे हैं। दीपा करमाकर को पहले अपना फिजियोथैरेपिस्ट साथ ले जाने की इज़ाजत नहीं दी गई। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ने इज़ाजत तब दी जब वह फाइनल के लिए क्वालीफाई कर गई जबकि सब जानते थे कि वह जोखिम भरे प्रोडूनोवा वाल्ट में हिस्सा ले रही थी। डाक्टर के तौर पर रेडियोलोजिस्ट को भेजा गया जिसे खिलाड़ियों की जरूरतों और दवाइयों के बारे कोई जानकारी नहीं थी। उसकी एकमात्र योग्यता थी कि वह ओलम्पिक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष के साहिबजादे है।
बहुत युवा खिलाड़ी ऐसे हैं जो विपरीत परिस्थितियों, कुपोषित बचपन, गरीब व अनपढ़ अभिभावक, आशाविहीन युवा अवस्था, खराब कोचिंग, शून्य इन्फ्रास्ट्रक्चर, मामूली आर्थिक सहायता के बावजूद यहां तक पहुंचे हैं। जो सरकारें तथा संस्थाएं आज उन पर पैसा बरसा रही हैं उन्होंने उनकी तब मदद नहीं की जब वह संघर्ष कर रहे थे। जब कोई जीत जाता है तो सब उस जीत का हिस्सा बनना चाहते हैं। सलमान खान भी एक करोड़ रुपया दे कर इसी गंगा में नहाने की कोशिश कर रहे हैं। तेंदुलकर बीएमडब्ल्यू कारें बांट रहें हैं। पहले मदद नहीं की।
हमारी खेल संस्थाओं को पैसे तथा प्रभाव के लिए कामधेनु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या है कि 117 खिलाड़ियों के साथ 80 अधिकारी रियो गए थे। इनमें से कई ऐसे भी होंगे जिन्होंने जिन्दगी में पिट्ठू भी नहीं खेला होगा! खिलाड़ी 36 घंटे इकोनिमी क्लास में सफर कर थके हारे रियो पहुंचे थे जबकि स्पोर्ट्स अधिकारी बिजनेस क्लास में सफर कर रहे थे। अधिकतर खिलाड़ी जब लौट गए तो कई अधिकारी वहां अंतिम दिन तक डटे रहे। आखिर उन्होंने समापन समारोह देखना था! स्पोर्ट्स टूरिज़्म का बढ़िया मौका था।
ओलम्पिक खेलों में कुल 306 मैडल दिए गए। हमें केवल दो ही मिले। हमारा बहुत बड़ा समुद्र तट है लेकिन हमने एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का तैराक पैदा नहीं किया। न कोच हैं, न स्वीमिंग पूल। सरकार तथा अधिकारी स्तर की उदासीनता ने खेलों को जकड़ कर रखा है। मैराथन में दौड़ी जैशा ने आरोप लगाया कि उसे पानी पिलाने वाला कोई नहीं था। जब वह चिलचिलाती धूप में 42 किलोमीटर दौड़ पूरा करने के बाद बेहोश गिर गई तो कोई अधिकारी या डाक्टर नजदीक नहीं आया। जो मंत्री तथा अधिकारी वहां ‘खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने के लिए’ गए थे, नदारद थे। वैसे भी उनसे पूछा जा सकता है कि क्या किसी खिलाड़ी ने आप से निवेदन भी किया था कि ‘आइए महाराज, हमारा उत्साह बढ़ाइए!’ ऊपर से मंत्री विजय गोयल साहिब अपने साथ दिल्ली वाली वीआईपी कल्चर वहां भी ले गए और अपने ‘आक्रामक तथा अभद्र व्यवहार’ के कारण देश का तमाशा बना बैठे।
अमेरिका ने 121 मैडल जीते हैं पर वहां कोई खेल मंत्रालय नहीं है। उनकी कामयाबी का कारण है कि वहां का समाज खेलों को प्रोत्साहित करता है। आउटडोर एक्टिविटी के लिए वहां बहुत जोश है। हमारा ध्यान पढ़ाई की तरफ है खेलों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। शहरी बच्चे तो बेचारे स्कूल तथा ट्यूशन के चक्कर लगा लगा कर ही हताश हो जाते हैं। जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलती भारत खेलों में आशातीत सफलता हासिल नहीं कर सकेगा।
गांव के बच्चों में सफलता के लिए शायद अधिक भूख होती है। छ: फुट चार इंच का दत्तू भोकानल जिसका परिवार अभी भी कच्ची झोपड़ी में रहता है और जिसने चार साल पहले चप्पू पकड़ा था और अब ओलम्पिक स्तर का नाविक बन गया है, का मानना है कि गांव के खिलाड़ियों के बेहतर प्रदर्शन का कारण वहां की बेहतर आवोहवा तथा ‘रोटी-घी’ है। उसका यह भी मानना है कि गांव की परिस्थिति के कारण ‘बंदा थोड़ा हार्ड बन जाता है।’
हरियाणा के देहात तथा रोहतक-भिवानी जैसे शहरों में खेल संस्कृति जड़ पकड़ रही है। सुबह रोहतक की सड़कों पर युवाओं को जॉगिंग करते देखा जा सकता है। खेलों को प्रोत्साहित करने की हरियाणा सरकार की बहुत जिम्मेवारी है। चीन की तरह स्कूलों में पकड़ना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी बनाने में मदद करनी चाहिए। लेकिन असली जिम्मेवारी केन्द्र की है। चैम्पियन ढूंढने पड़ेंगे। बहुत जरूरी है कि खेल संस्थाओं को पेशेवर संभालें। हमारी 27 खेल संस्थाओं में से केवल एक पूर्व खिलाड़ी के पास है।
मेरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से विशेष निवेदन है कि वह खुद इस क्षेत्र में दखल दें। खेलों में क्रांति लाने की जरूरत है जिस तरह वह योग में लाएं हैं। अगले तीन ओलम्पिक के लिए टास्क फोर्स बनाना सही कदम है पर इसके साथ ही देश में खेल के लिए माहौल बनाना चाहिए तब ही चैम्पियन निकलेंगे। उन्होंने ‘स्वच्छ भारत’ तथा ‘जन धन योजना’ जैसे कार्यक्रम शुरू किए जिनका फल अब मिलना शुरू हो रहा है अब उन्हें ‘खेल इंडिया खेल अभियान’ शुरू करना चाहिए। इस कार्यक्रम में देश के बच्चों में खेल के प्रति रुचि बढ़ाने पर बल देना चाहिए और इसे विजय गोयल को हटाकर राज्यवर्धन सिंह राठौर जैसे ओलम्पियन तथा अनुशासित पूर्व सैनिक अफसर को संभाल देना चाहिए। इससे युवा उत्साहित होंगे और देश चार साल के बाद टोक्यो में बेहतर प्रदर्शन कर पाएगा।