जिस तरह दिल्ली से गए सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर के अलगाववादी नेताओं ने बेआबरू कर अपने घरों से निकाल दिया उससे केन्द्र सरकार की आंखें खुल जानी चाहिए। पांच साल में इनकी सुरक्षा पर 506 करोड़ रुपया खर्च किया गया। यह जम्मू-कश्मीर के सर्व शिक्षा अभियान पर कुल खर्च से अधिक है। इनके होटलों के 20 करोड़ रुपए के बिल केन्द्र सरकार चुकाती है। हवाई जहाज़ के टिकट केन्द्र खरीद कर देता है। और यह हमें गालियां निकालते रहते हैं और हिंसा को उकसाते रहते हैं। पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं। मनमोहन सिंह की सरकार ने तीन बार इन्हें निमंत्रण दिया था एक बार नहीं गए हम उनकी कारों के पैट्रोल के बिल तक चुकाते रहेंगे।
इनके बैंक खाते भी खंगाले जाने चाहिए ताकि पता चले कि किन स्रोतों से इन्हें पैसा आ रहा है? हमारी एजेंसियों की असफलता स्पष्ट है। पाकिस्तान से भेजे गए पैसे को रोका क्यों नहीं गया? जो लोग लड़कों को उकसा कर बगावत की स्थिति पैदा करना चाहते हैं उन पर सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की गई? जम्मू-कश्मीर की विभिन्न प्रदेश सरकारें भी अलगाववादियों के प्रति नरम रवैया रखती रही हैं। शायद सोचा होगा कि नहीं तो यह शरारत करेंगे। लेकिन जो अब वह कर रहे हैं उससे अधिक क्या हो सकता है? रोज़ाना टीवी पर हम वहां पाक झंडे देख रहे हैं। यह हालत बर्दाश्त क्यों की जा रही है? गिलानी लगातार हड़ताल करवा रहा है। स्थिति के सामान्य होने में यह शख्स सबसे बड़ी रुकावट है लेकिन हम ‘गिलानी साहिब’, ‘गिलानी साहिब’ कर रहे हैं। उसका सारा मेडिकल बिल हम चुकाते हैं।
ठीक है बाकी पार्टियों की राय लेनी चाहिए पर आखिर में निर्णय तो केन्द्र सरकार ने लेने हैं। भारत सरकार को जरूर समझना चाहिए कि वहां रोजाना पाक झंडे देख कर बहुत तकलीफ हो रही है। हमारी प्रभुसत्ता को खुली चुनौती मिल रही है। अभी तक इस सरकार की न कश्मीर नीति और न ही पाकिस्तान नीति में स्पष्टता है। पैलेट गन की जगह नई गन भेजी गई है जो इंसान को स्तब्ध करती है हानि नहीं पहुंचाती लेकिन वहां जरूरत गन बदलने की नहीं है। जरूरत गन के इस्तेमाल की मजबूरी को खत्म करने की है। इसमें कश्मीरी नेता मदद नहीं करते क्योंकि वह बवाल चाहते हैं। उनके अपने बच्चे कश्मीर से बाहर हैं, सुरक्षित हैं और सम्पन्न हैं। इन्हें गोली का सामना नहीं करना पड़ता।
यह प्रतिनिधिमंडल देश की संसद का प्रतिनिधि था इसलिए एक प्रकार से संसद के मुंह पर दरवाज़ा बंद कर दिया गया है। अब राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि यह कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत नहीं है। उन्हें अब पता चला है? राजनाथ सिंह भूलते हैं कि वह उसी कुर्सी पर बैठे हैं जहां कभी सरदार पटेल बैठा करते थे। उनसे मजबूत इरादा तो महबूबा मुफ्ती दिखा रही हैं। जिम्मेवारी सिर पर पड़ने के बाद वह स्पष्ट पर कड़वी बात कहने की दिलेरी दिखा रही हैं। कई लोग कहते हैं कि डायलॉग करो डायलॉग करो। सवाल तो है कि डायलॉग किस से होगा और क्या होगा? क्या डायलॉग से पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों पर हमले रुक जाएंगे? कश्मीरियत की बात की जाती है। कश्मीरियत तो उसी दिन दफन हो गई थी जब लाखों कश्मीरी पंडितों को वहां से निकाल दिया गया था। अब तक उनकी वापसी के रास्ते में रुकावटें खड़ी की जा रही हैं। दुख है कि कश्मीरी पंडितों की दुर्गति के प्रति कश्मीरी नेताओं/बुद्धिजीवियों/पत्रकारों सब में एमनीसिया है कि जैसे नस्ली सफाई की ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं।
इस असफलता से कश्मीर में उन लोगों को धक्का लगेगा जो शांति और सामान्यता चाहते हैं। वह देश विरोधियों के कैदी बन गए हैं। जो बच्चे पढ़ाई करना चाहते हैं वह स्कूल या कालेज नहीं जा सकते और जो अपना काम धंधा शुरू करना चाहते हैं लगातार हड़ताल/कर्फ्यू जैसी स्थिति से बुरी तरह से प्रभावित हैं। श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी के दैनिक अखबार ‘कश्मीर इमेजिज़’ के संपादक बशीर मंज़र लिखते हैं, ‘‘हमें अपने समाज के उस वर्ग से भी सवाल पूछने चाहिए जिन्हें आम आदमी की पीढ़ा में मज़ा आता है…उनसे पूछा जाना चाहिए कि जब वह अपने कालमों, लेखों, फेसबुक तथा ट्विटर पोस्ट के द्वारा बच्चों को सरकारी बल पर पत्थर फेंकने के लिए उकसा रहे थे तो उनके अपने बच्चे कहां थे और वह पत्थर क्यों नहीं फेंक रहे थे?’’
बेहतर होगा कि अगर इन शरारती नेताओं को कश्मीर से दूर केरल जैसी जगह या अंडेमान निकोबार में नजरबंद किया जाए ताकि शरारत की उनकी क्षमता खत्म हो जाए। जो सांसद उन्हें मिलने गए थे उन्होंने राजनीतिक नादानी दिखाई है। तीन बार पहले भी ऐसे प्रतिनिधिमंडल वहां की असफल यात्रा कर चुके हैं। इस बार कैसे आशा थी कि कुछ निकल जाएगा कि वह गिलानी के दर पर पहुंच गए? यह पाकिस्तान के खरीदे लोग हैं जो हमारी बात नहीं सुनेंगे।
असली समस्या है कि जम्मू कश्मीर में चुनौती की शकल बदल रही है। मामला अधिक स्वायत्तता या ‘आजादी’ का ही नहीं रहा। वहां अब कट्टरवाद के प्रभाव में इस्लामिक स्टेट की स्थापना का प्रयास हो रहा है। मस्जिदों तथा मदरसों द्वारा समाज को रैडिकल बनाने का प्रयास हो रहा है और हमारी नरमी ने इसकी इज़ाजत दे दी। जम्मू कश्मीर के पूर्व उप मुख्यमंत्री मुजफ्फर बेग ने माना है कि कश्मीर अब विश्वव्यापी जेहाद से अछूता नहीं रह गया और जब लोग ‘आजादी’ की मांग करते हैं तो वह वास्तव में इस्लामिक राज्य की मांग कर रहे हैं।
अर्थात् वह निजाम-ए-मुस्तफा स्थापित करना चाहते हैं। अटलजी वाला ज़माना गुज़र गया। कश्मीर में खतरे का रंग बहुत बदल गया है यह गहरा हरा हो रहा है। असली समस्या घाटी के इस्लामीकरण का प्रयास है। वह धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को रद्द कर रहें हैं। पुराने मूल्य दफन हो चुके हैं। कश्मीर सीरिया भी बन सकता है जिसकी चेतावनी महबूबा मुफ्ती ने दी भी है। इसीलिए कश्मीरी पंडितों को वहां से निकाला गया।
आशा है कि अब कुछ कठोरता दिखाई जाएगी। उससे भी अधिक जरूरी है कि नीति में स्पष्टता और निरन्तरता हो। दोस्त तथा दुश्मन दोनों को पता चलना चाहिए कि भारत सरकार की नीति क्या है? कोई भी देश अपने विरोधियों तथा बागियों की इस तरह खातिर नहीं करता जैसे हम करते हैं। पर जैसे किसी ने कहा है,
झुक कर अरज़ करने में क्या हरज है मगर
सर इतना मत झुकाओ की दस्तार गिर पड़े।