‘‘मैं आपको विश्वास दिलवाता हूं कि मेरी अनुमति के बिना कोई अंदर नहीं आ सकेगा। यह आतंकी जो आए वह अंतिम थे।’’
-रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर,
पठानकोट एयरबेस पर हमले के बाद
2 जनवरी को पठानकोट एयरबेस से लेकर 18 सितम्बर को उरी की 12वीं ब्रिगेड पर हुआ हमला छठा ऐसा हमला है जो सेना या अर्धसैनिक बलों पर किया गया है। सेना और अर्धसैनिक बलों के कैम्पों पर हमले हो चुके हैं। सेना के काफिलों पर हमला हो चुका है। हम सब बर्दाश्त कर गए लेकिन उरी पर हमला जिसमें अब तक 20 जवान मारे गए के बाद लै. जनरल सईद अता हसनैन जो इस ब्रिगेड के कमांडर रह चुके हैं, के शब्दों में भी, ‘इतने वर्ष पाकिस्तान हमले करता रहा पर ध्यान रखा कि हमलों से भारत की सहनशीलता को चुनौती न मिले। लेकिन अब वह यह सीमा पार कर गया लगता है।’
देश गुस्से में उबल रहा है। ठीक है चार फिदायीन भी मारे गए लेकिन हमारे तो (अब तक) 20 जवान मारे जा चुके हैं। यह कैसा अनुपात है? सेना पर अरबों रुपए खर्च करने तथा दुनिया में सबसे बड़ी सेनाओं में से एक रखने का क्या फायदा अगर हम अपने देश, अपने लोगों और यहां तक अपने सैनिकों की रक्षा नहीं कर सकते? अरबों डालर का सैनिक साजो सामान हैं पर सीमा असुरक्षित है। यह पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। अगर यह भी पहले जैसी सरकारों की तरह कमज़ोर रहेगी तो लोगों का मनोबल और सरकार की विश्वसनीयता गिरेगी।
याद करिए मई 2012 में कालूचक्क पर हमला हमारे 36 लोग मारे गए जिनमें अधिकतर सैनिकों के निहत्थे पारिवारिक सदस्य थे। याद करिए 8 जनवरी 2013 जब पुंछ सैक्टर में राजपुताना राइफल के लांस नायक हेमराज और सुधाकर सिंह के सिर काट कर वह ले गए थे और बाद में एक सिर के साथ वहां फुटबाल खेलने का क्लिप भी जारी किया गया। इससे पहले मुम्बई पर 26/11/2008 का हमला हो चुका है। पाकिस्तान तो हमें चिढ़ा रहा लगता है, ‘हमने किया है। और भी करेंगे। बार-बार करेंगे।’ वे हमें चुनौती देते रहे लेकिन हम गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ यह कह कर कि ‘मुंह तोड़ जवाब देंगे’ या मनोहर पार्रिकर की तरह फिजूल की डींग मार कर खामोश बैठ जाते हैं।
पाकिस्तान के साथ मैत्री के प्रयास में इस सरकार के हाथ भी उसी तरह झुलस गए हैं जैसे पहली सरकारों के झुलसे थे। सही कहा गया है कि जो इतिहास से सबक नहीं सीखते उनसे इतिहास दोहराया जाता है। दुनिया भर में भारत तथा भारत की सेना की छवि को धक्का पहुंचा है। न ही कूनटीति से जमीन पर कुछ बदला है। दुनिया भर में हम घूम कर आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर नहीं। इंदिरा गांधी ने 1971 में जो किया उससे सबक सीखना चाहिए।
उन्होंने बांग्लादेश युद्ध से पहले सभी बड़े देशों को आगाह कर दिया था। यहां तक कि जब दोस्त रूस ने हिचकिचाहट दिखाई तो उसे भी बता दिया कि हम आप के बिना भी कार्रवाई करेंगे लेकिन इसका रिश्तों पर असर होगा। आज यही संदेश अमेरिका को देने की जरूरत है कि अगर वह पाकिस्तान पर असहनीय दबाव नहीं डालता तो इस कथित ‘सामरिक साझेदारी’ का कोई मतलब नहीं। मोदी सरकार की सबसे बड़ी समस्या है कि इनसे लोगों को बहुत आशा थी कि इनकी रक्षा तथा विदेश नीति तगड़ी होगी। अब विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लग रहा है। सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश भी हैं कि ‘हमें 15 लाख मत दो, पाकिस्तान को जवाब दो।’ यह प्रभाव भी मिल रहा है कि पाकिस्तान नरेन्द्र मोदी को गंभीरता से नहीं लेता नहीं तो पठानकोट के बाद उरी पर हमले की जुर्रत न करता।
जब तक पाकिस्तान को खुद को चोट नहीं पहुंचती तब तक वह शांत नहीं बैठेगा। उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग करने के प्रयास का भी क्या फायदा? वह तो पहले ही नंगे हैं, बेशर्म हैं, और कौन से कपड़े उतारेंगे हम? यह हमारी समस्या है हमें ही हल करनी है। कश्मीर में बवाल के बाद हमें चौकस हो जाना चाहिए था लेकिन पठानकोट की ही तरह उरी में भी हम बेतैयार पाए गए। इस हमले की सफलता हमारी सुरक्षा अक्षमता प्रदर्शन करती है। ‘हॅडज़ मस्ट रोल’ अर्थात् कार्रवाई होनी चाहिए कि नियंत्रण रेखा के इतने पास ऐसी लापरवाही कैसे हो गई कि जवान पक्की इमारत में सोने की जगह तम्बुओं में सो रहे थे? अब सेना की तरफ से कहा गया है कि जवानों के लिए वक्त तथा जगह हम चुनेंगे। ऐसा पहले भी हम सुन चुके हैं। सेना की विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुंची है। इसे फिर से स्थापित करने के लिए सेना को खुली छूट दी जानी चाहिए। तत्काल प्रतिक्रिया के लिए सेना हर वक्त तैयार रहनी चाहिए। ऐसी हरकत के 24 घंटों में उन्हें ठोंक देना चाहिए था। उलटा हम विशेषज्ञों के मुंह से यह सुनते हैं कि हम में यह कमी है, हमारे पास यह सामान नहीं है, हमें तैयार होने में इतने महीने लग जाएंगे।
पाकिस्तान आंतरिक आतंकवाद तथा पश्चिमी सीमा पर युद्ध से जूझ रहा है लेकिन फिर भी दबंग है। हमें शांति बनाए रखने या संयम अपनाने के नाम पर बहाने बनाना छोड़ना चाहिए। न ही पाकिस्तान की परमाणु धमकी से ही घबराने की जरूरत है। वह जानता है कि हम भी बड़ी परमाणु ताकत हैं। अगर पाकिस्तान ने परमाणु विकल्प का इस्तेमाल करना होता तो कारगिल में करता पर उस वक्त तो बिन बुलाए नवाज शरीफ बिल क्लिंटन के दरबार में पहुंच गया था कि हमें बचाओ, हमें बचाओ।
सीधी बात है कि हमें उरी का बदला लेना है। जनता ऐसी सजा देखना चाहती है। दुनिया को भी दिखाना है कि हम कागज़ी शेर नहीं हैं। हमारे पास बहुत विकल्प हैं। हम नियंत्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक कर सकते हैं जैसा हमने 2015 में मणिपुर में हमला करने वालों का म्यांमार में पीछा कर काम तमाम किया था। हम उन चौकियों को जहां से आतंकवादियों को भेजा गया था मटियामेट कर सकते हैं। हम पंजाब और राजस्थान सीमा पर तनाव खड़ा कर सकते हैं। मिसाइल हमला कर सकते हैं। हम रिश्तों का स्तर नीचा कर सकते हैं। अपना राजदूत वापिस बुला सकते हैं और बासित को घर वापिस भेज सकते हैं। पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित कर सकते हैं। आर्थिक रिश्ते तोड़ सकते हैं। आपसी वीजा सुविधाएं बंद कर सकते हैं। सार्क में उसे अलग थलग कर सकते हैं। प्रधानमंत्री का इस सम्मेलन के लिए पाकिस्तान जाना असमर्थनीय बन गया है। और हमारे पास सिंधु पानी समझौते को उलटाने का बड़ा विकल्प है। अगर पाकिस्तान सभ्य समाज के हर व्यवहार का उल्लंघन कर सकता है तो हम पानी के मामले में उसे प्यासा क्यों नहीं बना सकते?
भारत सरकार क्या विकल्प चुनती है यह उसने देखना है। लेकिन एक आम भारतीय नागरिक जो अपने शहीदों के शव देख कर तड़प उठता है, के नाते मेरा सवाल है कब तक? कब तक हम अपने परिवार उजड़ते देखते रहेंगे? हम सुपरपावर बनने का सपना देखते हैं पर यहां तो एक असफल देश ही बार-बार हमारे स्वाभिमान को चुनौती दे रहा है। आखिर वह ‘मुंहतोड़ जवाब’ उसे कब मिलेगा? अकर्मण्य रहना अब विकल्प नहीं रहा।