50 साल बाद पंजाब और हरियाणा (Punjab and Haryana after 50 Years)

देश की आजादी के समय हुए पंजाब के विभाजन के 19 साल बाद 1 नवम्बर 1966 को पंजाब का फिर विभाजन कर दिया गया। यह तो स्पष्ट ही है कि अधिक फायदे में हरियाणा रहा। जिस क्षेत्र को पंजाब के नेता पिछड़ा समझते थे और पिछड़ा रखते थे वह हरियाणा बन इतना तरक्की कर गया कि पंजाब से भी आगे निकल गया। 2015-16 में पंजाब की प्रति व्यक्ति आय 1,10,498 रुपए थी जबकि हरियाणा की 1,32,251 रुपए। पंजाब की विकास की दर 5.96 प्रतिशत थी जबकि हरियाणा की 8.2 प्रतिशत।
उस वक्त पंजाबी भाषा के नाम पर सिख सूबा प्राप्त करने की इतनी जल्दी थी कि अकाली उस पंजाबी सूबे को स्वीकार कर गए जिसे पंजाबी सूबा मोर्चा के डिक्टेटर संत फतह ने खुद ‘लंगड़ा’ कहा था। समझा गया कि पूरे पंजाब में सिख अल्पमत में ही रहेंगे और उनकी राजनीतिक ताकत कमजोर रहेगी। अकाली विशेषतौर पर शासन नहीं कर सकेंगे। लेकिन पंजाबी भाषा का कितना अहित किया गया यह इस बात से पता चलता है कि जो पंजाबी भाषा पहले दिल्ली तक पढ़ाई जाती थी उसका प्रभाव अंबाला से पहले शम्भू बैरियर तक सीमित कर दिया गया।
प्रदेश के बंटवारे के समय कोई भी मसला तय नहीं किया गया। न पानी का मसला तय किया गया, न ही पंजाबी बोलने वाले क्षेत्रों का। यही हाल चंडीगढ़ का हुआ। आज पंजाब के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रीगण तथा अफसर चंडीगढ़ प्रशासन के किराए के मकानों में रहते हैं। यही स्थिति हरियाणा सरकार की भी है। हरियाणा को इस हालत के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उन्हें तो बैठे बैठे फल गोद में गिरा मिला लेकिन पंजाब का नेतृत्व, विशेषतौर पर सिख नेतृत्व, जवाबदेह है कि सब मसले तय किए बिना उन्होंने यह विभाजन स्वीकार करने की जल्दबाजी क्यों की?
जिस पंजाबी सूबे की मांग जवाहरलाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री ने स्वीकार नहीं की थी उसे इंदिरा गांधी ने स्वीकार कर लिया। प्रताप सिंह कैरों भी इसके खिलाफ थे। वह भी जानते थे कि इस मांग के पीछे भाषा का हित नहीं बल्कि यह मांग साम्प्रदायिक है। अकाली सिख स्टेट चाहते हैं। यह जानते हुए पंजाब के हिन्दुओं ने जिनमें जनसंघ भी शामिल था, ने इसका जबरदस्त विरोध किया था। इसी आधार पर विभाजन ने एक दिन सिख उग्रवाद को बढ़ावा दिया। इंदिरा गांधी स्थिति को संभाल नहीं सकीं और खुद इसका शिकार हो गईं।
और यह भी नहीं कि अकालियों का ही यहां शासन रहा है। आठ साल पंजाब में राष्ट्रपति शासन रहा। अगर अकाली दल का 22 वर्ष शासन रहा तो 19 वर्ष कांग्रेस का भी शासन रहा। अकाली दल जो कभी एक आंदोलन था आखिर में एक ही परिवार पर आकर आधारित हो गया। इस सारी विभाजन की कवायद का पंजाब की तरफ कोई विजेता रहा तो वह केवल बादल परिवार है जिसका सत्ता पर पूरा कब्ज़ा है। जहां तक पंजाब का सवाल है मैं बुद्धिजीवी पूर्व उपकुलपति डा. एसएस जौहल से सहमत हूं कि विभाजन पंजाब के हित में नहीं गया।
पंजाब के विभाजन से सबसे अधिक घाटे में पंजाबी हिन्दू रहे। अचानक उनका प्रभाव कमजोर हो गया। उसी के साथ हिन्दी भी पंजाब में अपना प्रभुत्व खो बैठी। अंग्रेजी को यहां बर्दाश्त किया जाता है, हिन्दी को नहीं चाहे अब कई प्रमुख सिख परिवारों के बच्चे हिन्दोस्तानी बोलते हैं क्योंकि उन्होंने अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना होता है। लेकिन पंजाबी हिन्दू समुदाय में भी बहुत दम है जो इस बात से पता चलता है कि एक ‘पंजाबी’ मनोहर लाल खट्टर हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए हैं। कुछ शुरुआती अनिश्चितता तथा कमजोरी के बाद मनोहर लाल सरकार अब स्थिर हो गई है। मुख्यमंत्री खुद ईमानदारी तथा सादगी की मिसाल कायम कर रहें हैं। हरियाणा पहला राज्य बना है जिसने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की हैं। पंजाब तो अभी इसके बारे सोच भी नहीं सकता। मनोहर लाल खट्टर के मुख्यमंत्री बनने से हरियाणा में सभी पुराने समीकरण तहस नहस हो गए हैं। जाट आंदोलन इसका जवाब था क्योंकि उनके एकाधिकार को चुनौती दी गई।
और पंजाब की राजनीति भी बदली है। चाहे अकाली दल एक सिख पार्टी थी उन्हें भी समझ आ गई है कि गैर सिखों के समर्थन के बिना वह सत्ता में नहीं रह सकते। अकाली दल ने अपने दरवाजे हिन्दुओं के लिए खोल दिए। कांग्रेस की 2012 की पराजय का कारण भी यह था कि अमरेन्द्र सिंह बड़े जाट सिख नेता बन गए जबकि अकाली नेतृत्व सभी को साथ लेकर चलने में सफल रहा। बादल सरकार की हजार कमजोरियों के बावजूद प्रदेश में साम्प्रदायिक सद्भाव बने रहना इसकी बड़ी कामयाबी रहेगी। पंजाब को साम्प्रदायिक राजनीति से निकालने का बड़ा श्रेय सुखबीर बादल को जाता है जिन्होंने लोगों का ध्यान पंथ से हटा दिया। वह समझ गए कि परिस्थिति बदल चुकी है। लेकिन विडम्बना है कि जब यहां श्रीगुरू ग्रंथ साहिब की बार-बार बेअदबी की शर्मनाक घटनाएं घटीं तो अकाली दल भी सिखों का विश्वास खोने के कगार तक पहुंच गया था।
लेकिन इन 50 वर्षों की असली सफलता की कहानी हरियाणा है। वह सचमुच खट गए। प्रदेश ने दिल्ली को तीन तरफ से घेरा हुआ है इसी का बहुत फायदा उठाया गया। एफडीआई में भी हरियाणा पंजाब से बहुत आगे निकल गया है। यहां तक कि खेलों में भी वह पंजाब को पछाड़ रहा है। ड्रग्स की समस्या के कारण पंजाब खेलों में पिछड़ गया है। यह समस्या इतनी विकराल नहीं जितनी राहुल गांधी कहते हैं, लेकिन समस्या तो है।
यह रोचक है कि 1960 और 1970 के दशक में जब बाकी देश 2 प्रतिशत की दर से प्रगति कर रहा था तब पंजाब कैलिफोर्निया के बराबर 8 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा था। 1984 के बाद से ही भट्ठा बैठ गया। यह ब्लू स्टार का वर्ष था। इस कार्रवाई ने सिखों को बहुत चोट पहुंचाई थी लेकिन इसके लिए जिम्मेवार केवल वह ही नहीं थे जिन्होंने सेना वहां भेजी थी, वह भी थे जिन्होंने उग्रवाद को खामोश समर्थन दिया और जिन्होंने स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र स्थल को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों का अड्डा बना दिया था। सिख विरोधी दंगे देश के माथे पर सदैव कलंक रहेंगे।
उस घटनाक्रम से उभरने में 20 साल बर्बाद हो गए। जब देश की आर्थिकता बदल रही थी पंजाब का नेतृत्व ब्लू स्टार के प्रतिक्रम से निबटने में उलझा हुआ था। कर्जा भी बहुत बढ़ गया। इस बीच खेती लाभदायक नहीं रही। पंजाब का किसान आत्महत्या करे यह तो कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। पंजाब विकास का नया मॉडल तैयार करने में सफल नहीं रहा।
अब जबकि दोनों प्रदेश अपनी अपनी स्वर्ण जयंती मना रहे हैं पंजाबियों के लिए खुशी मनाने का कोई विशेष कारण नहीं। पानी और चंडीगढ़ के मसले उसी तरह लटक रहे हैं। पंजाबियों ने लाहौर पाकिस्तान को खो दिया था पर जवाहरलाल नेहरू ने हमें क्षतिपूर्ति में ‘सिटी ब्यूटीफुल’ चंडीगढ़ दिया था। आज पंजाब इस शहर में किराएदार है और जैसे मनोहर सिंह गिल ने भी लिखा है कि एक एसएचओ वहां पंजाब के मुख्यमंत्री पर केस दर्ज कर सकता है। लेकिन पंजाबी इस बात से संतोष कर सकते हैं कि नई दिल्ली पर पंजाबी संस्कृति हावी है। नई दिल्ली पंजाबियों का नया लाहौर है!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.