भावुक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि उन्हें सिर्फ 50 दिन दो अगर तब तक स्थिति सही नहीं हुई तो देश जो सजा दे उसके लिए वह तैयार हैं। प्रधानमंत्री अब बार-बार नोटबंदी के अपने निर्णय के बारे लोगों को स्पष्टीकरण दे रहे हैं। उन्हें भी एहसास होगा कि लोगों का धैर्य साथ छोड़ रहा है। जो समर्थन और उत्साह 8 नवम्बर को उनकी घोषणा के बाद था वह अब नहीं रहा। बैंकों के बाहर लगी लम्बी लाइनें तथा एटीएम के ठप्प होने से लोगों का मूड बदला है। आम आदमी जिसे रोज़ पैसे चाहिए, सब्जी वाला, ढाबा वाला, मजदूर, रिक्शा वाला, सब प्रभावित हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्र जहां बैंक कम हैं और एटीएम हैं नहीं वहां अधिक मुसीबत है। बिहार तथा मध्यप्रदेश से अनाज की दुकानें लूटने की खबर है। ठीक है भ्रष्ट तथा जमाखोर लोगों के खिलाफ सख्त कदम उठाया गया है लेकिन साधारण, ईमानदार लोग भी प्रभावित हुए हैं।
बहुत लोगों को रोज़ाना की दाल-रोटी की समस्या आ रही है। सरकार को भी समझ आ रही है कि प्रबंधन में गड़बड़ है और लोग नाराज़ हैं इसलिए रियायतें दी जा रही हैं। इतना बड़ा कदम उठाने के लिए पूरी तैयारी नहीं की गई। 500 रुपए के नोट एक सप्ताह के बाद बैंकों में पहुंच रहे हैं जबकि 2000 के नोट का छुट्टा नहीं मिल रहा। बीच 1000 के नोट क्यों नहीं तैयार किए गए? एटीएम काम नहीं कर रहे क्योंकि नए नोटों का आकार पुराने नोटों से बड़ा है। नए नोट बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि एटीएम इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। हमने तो यह सोच रखा है कि ऊपर बहुत समझदार लोग हैं लेकिन अब समझ आ रही है कि उनकी समझ भी हमारे जैसी ही है! देश को कैशलैस सोसायटी अर्थात् नकद के बिना समाज इतनी जल्दी नहीं बनाया जा सकता इसके लिए लोगों को तैयार करने की जरूरत है।
एक बात और। दो वर्ग हैं जिनके पास बहुत कालाधन है पर उन्हें छेड़ा नहीं गया, अर्थात् राजनेता और अफसर। उद्योगपति या व्यापारी का पैसा तो फिर काम में लगता है इन दो वर्गों का पैसा तो फिजूल चीजों में जाता है। राजनीतिक दलों के चंदे के बारे अधिक पारदर्शिता चाहिए क्योंकि यह भी कालाधन पैदा करता है। 80 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होता है। प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा से पहल शुरू करनी चाहिए और ऐसे चंदे पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। केवल चैक के द्वारा पैसा लेना चाहिए। राजनीतिक दल लोगों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं लेकिन खुद को किसी जवाबदेही से ऊपर रखते हैं। आरटीआई को लागू नहीं होने देते।
कालेधन की रीढ़ की हड्डी पर चोट की गई है। आतंकवाद पर प्रहार हुआ है। जम्मू कश्मीर में भी स्थिति बेहतर हो रही है क्योंकि हिंसा भड़काने के लिए नोट नहीं हैं। प्रधानमंत्री के इरादे पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं। अगर बेहतर तरीके से बदलाव किया जाता तो अच्छा रहता। लेकिन अब प्रधानमंत्री को 50 दिन देने होंगे। अस्थायी तकलीफ जरूर है पर दूरगामी अच्छे प्रभाव होंगे। विपक्ष विरोध कर रहा है। उन्होंने अपना धर्म निभाना है लेकिन सरकार उनकी प्रतिक्रिया देख कर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठ सकती। कई बार राष्ट्रीय हित में कड़े कदम उठाने पड़ते हैं। केवल यह सोच कर कि उलटी प्रतिक्रिया होगी सरकार निष्क्रिय नहीं बैठ सकती। काले धन के खिलाफ एक कड़े प्रहार की जरूरत थी। राजनीति सब कुछ नहीं है।
वन रैंक वन पैंशन (OROP) को लेकर पूर्व सैनिक रामकिशन ग्रेवाल की आत्महत्या वाला सारा प्रकरण अत्यंत दुखदायी है। सरकार ने OROP देने की घोषणा की है। पूर्व जनरल से लेकर पूर्व सैनिकों जिनसे मेरी बात हुई है कि वह मानते हैं कि OROP मिल रहा है। लेकिन इसके बावजूद जैसे रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर ने भी स्वीकार किया है, अभी भी एक लाख पूर्व सैनिक हैं जिन्हें OROP पूरा फायदा नहीं मिला। अर्थात् प्रयास हो रहा है पर बड़े दुख की बात है कि रामकिशन ग्रेवाल इंतजार करने के लिए तैयार नहीं थे।
लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वह बराबर दुर्भाग्यपूर्ण था। रामकिशन के परिवार के साथ संवेदना प्रकट करने की बजाए उन्हें हिरासत में रखा गया। पिटाई तक की गई। राहुल गांधी तथा अरविंद केजरीवाल जैसे जो नेता उन्हें मिलने के लिए अस्पताल पहुंचे उन्हें मिलने नहीं दिया गया और हिरासत में ले लिया गया। आप किसी नेता को ऐसे वक्त पीड़ित परिवार से मिलने से कैसे रोक सकते हो? और केजरीवाल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं उन्हें कहीं भी जाने से कैसे रोका जा सकता है? दिल्ली पुलिस की धक्केशाही और मूर्खता ने इसे बड़ा मसला बना दिया।
केजरीवाल ने रामकिशन ग्रेवाल को शहीद घोषित कर दिया है। एक करोड़ रुपए देने की घोषणा की जबकि सीमा पर शहीद हुए जवान को इससे बहुत कम मिलता है। हमारे देश में ‘शहीद’ संज्ञा का अब बहुत लापरवाह और निम्न इस्तेमाल किया जा रहा है। ‘शहीद’ की संज्ञा तो भगत सिंह जैसे लोगों के साथ जोड़ी गई थी जिन्होंने हंसते हुए फांसी का फंदा चूम लिया था।
मेरे पिताश्री वीरेन्द्र जी 23 मार्च 1931 को लाहौर की उस सैंट्रल जेल में बंद थे जहां भगत सिंह और साथियों को फांसी लगाई गई। उनसे बहुत बार सुना था कि शहीद वास्तव में कौन हैं और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के क्या अर्थ हैं? हमारे देश में तो अब लापरवाह नारे लगाए जाते हैं ‘इंकलाब जिन्दाबाद’। न ही भगत सिंह ने बसंती पगड़ी ही कभी डाली थी। जैसे रिसर्चर प्रो. चमन लाल ने भी पुष्टि की है कि भगत सिंह ने या हैट डाली थी या सफेद पगड़ी। इसलिए जो भगत सिंह के क्लोन बनने की कोशिश करते हैं उनसे प्रार्थना है कि वास्तव में जो देश के शहीद हैं उनके नाम का बेजा इस्तेमाल न करें। ‘शहीद’ की संज्ञा हमारे जवानों के लिए इस्तेमाल होती है जो दुश्मन से लड़ते हुए बहादुरी से मारे गए। ऐसे बहादुर शहीदों के साथ हम जिसने हताशा में सल्फास खा कर आत्महत्या कर ली, की तुलना कैसे कर सकते हैं? हम अपने शहीदों का अवमूल्यन क्यों कर रहे हैं?
जहां तक नोट बंदी का सवाल है, अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कालाधन निकालने के लिए और क्या कदम उठाए जाते हैं? बैंकों पर भी नज़र रखने की जरूरत है कि यहां हेराफेरी न हो। जहां लोगों के धैर्य की परीक्षा है वहां नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की भी अग्नि परीक्षा है।
अंत में : अब तो पाकिस्तान की संसद में भी यह मांग उठी है कि वहां फैले काले धन को रोकने के लिए वह भी भारत की तरह आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक करें। डॉन अखबार में एक पाठक शराफत लिखते हैं, ‘पहले खुद को सही करने के लिए पाकिस्तान अमेरिका का अनुसरण करता था, अब भारत सफलता का देश बन गया है जिसका अनुसरण होना चाहिए।’