
जम्मू-कश्मीर स्कूल बोर्र्ड की दसवींं की परीक्षा में 99 प्रतिशत बच्चोंं ने हिस्सा लिया। इतनी अच्छी उपस्थिति तो यहां भी नहीं मिलती। एक-दो जगह शरारतियों ने पथराव का प्रयास किया था लेकिन अब वह भी खामोश हो गए क्योंकि स्पष्ट हो गया कि मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं और बच्चे पढ़ना चाहते हैं। इससे पहले 30 के करीब स्कूल जलाए जा चुके हैं। अलगाववादी अपने एजेंडे पर चल रहे हैं जबकि कश्मीरी मां-बाप को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है। वह देख चुके हैं कि किस तरह एक कश्मीरी युवक शाह फैज़ल आईएएस परीक्षा का टॉपर रहा है। बांदीपुरा जिला जहां सबसे अधिक स्कूल जलाए गए, की 8 वर्ष की बच्ची तजामुल विश्व में किक बाक्सिंग चैम्पियन बनी है। कश्मीर की तालीम की परम्परा है। कश्मीरी पंडित जिन्हें वहां से निकाल दिया गया था, शत-प्रतिशत शिक्षित समुदाय है। लगभग यही स्थिति अब कश्मीरी मुस्लिम समुदाय की है। वह चाहते हैं कि उनके बच्चे गलत रास्ते पर न जाएं और पढ़-लिख कर काम काज में लग जाएं जबकि अलगाववादी उनके हाथों में पत्थर पकड़वाना चाहते हैं और उन्हें गोली का सामना करने के लिए तैयार करना चाहते हैं।
कश्मीरी में अलगाववादियों का वही एजेंडा है जो तालिबान का है। दोनों तालीम के दुश्मन हैं और युवकों को जाहिल बनाना चाहते हैं ताकि वह उनके जेहाद के काम आ सकें। इसीलिए स्कूल जलाएं गए। पहले भी कश्मीर में चरार-ए-शरीफ जैसे सूफी दरगाह जलाई जा चुकी है। महिलाओं पर तेजाब के हमले हो चुके हैं क्योंकि उन्होंने चेहरा नहीं ढका था। सिनेमा, वीडियो लाईब्रेरी जलाए जा चुके हैं। इस प्रयास के खिलाफ अब यह शैक्षणिक विद्रोह है। कश्मीरी बच्चों ने इस प्रयास को रद्द कर दिया है। वह सामान्य जिन्दगी चाहते हैं।
कश्मीर में यह भी प्रयास हो रहा था कि उन मूल्यों को खत्म कर दिया जाए जिनका आदर भारत करता है। शिक्षा हमारे मूल्यों का बड़ा हिस्सा है इसीलिए दूरगामी गांवों में भी बच्चे स्कूल जा रहे हैं। अगर भारत तरक्की कर रहा है तो इसका बड़ा कारण है कि हमारे पास पढ़े-लिखे नौजवान है। यही कश्मीरी अलगाववादी नहीं चाहते। उन्हें उदार धर्मनिरपेक्ष शिक्षा जहर लगती है क्योंकि यह उनकी विचारधारा को काटती है। उन्हें चिंता है कि बच्चे आजाद सोचने लग पड़े तो वह अप्रासंगिक हो जाएंगे आगे से उन्हें पत्थर फैंकने वाले नहीं मिलेंगे। कश्मीर में वहाबी इस्लाम के आयात करने की कोशिश की गई जबकि कश्मीर का सूफी इस्लाम उदारवादी है। वह चाहते हैं कि महिलाएं घर से बाहर न निकलें और आधुनिक शिक्षा तो उनके लिए हराम है जबकि कश्मीर में सदैव ही महिलाओं के लिए खुला माहौल रहा है। वह बराबर का काम करतीं हैं।
8 जुलाई को बुरहान वानी की मौत के बाद हुई हिंसा केवल आक्रोश से ही नहीं थी यह पूरी तरह कश्मीर केे जनजीवन को तबाह करने की कपटी साजिश थी। कश्मीर को उजाड़ने की कोशिश की गई। न टूरिस्ट आए, न आर्थिक गतिविधि हो, न रोजगार रहे, न बच्चे पढ़े, केवल अलगाववादियों के फरमान चले। लेकिन यह अलगाववादी एक बहुत बड़ी गलती कर गए। उन्होंने स्कूल जलाने शुरू कर दिए। उसके बाद कश्मीरियों को समझ आ गई कि यह लोग तो उनका भविष्य तबाह करना चाहते हैं और भावी पीढ़ियों को जाहिल बनाना चाहते हैं। उसके बाद कश्मीर का मूड बदला। खुद अपने बच्चों को प्रदेश से बाहर निकाल कर अलगाववादी नेता दूसरे बच्चों का भविष्य तबाह करने में लगे हैं।
अफसोस है कि कश्मीर अब उनका कैदी बन चुका है। हर वक्त वहां गड़बड़ की आशंका बनी रहेगी। जिस दिन वहां से कश्मीरी पंडितों को निकाला गया था उस दिन ही कश्मीर के पतन की नींव रखी गई थी। जो ‘दूसरे’ हैं उन्हें जबरदस्ती वहां से निकाल दिया गया। जो उस वक्त खामोश रहे वह अब अपनी खामोशी की कीमत अदा कर रहें हैं। कश्मीरी पंडितों को वहां से निकालना और अब स्कूलों को आग लगाना एक ही प्रक्रिया का हिस्सा हैं। कश्मीर को कट्टर इस्लामी प्रदेश बनाने की कोशिश की जा रही है जहां बच्चों के हाथ में लैपटॉप न हों, केवल पत्थर तथा पाकिस्तानी झंडे हों।
कश्मीरी अब इसका विरोध कर रहे हैं। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि हिजबुल कमांडर बुरहान वानी के पिता मुजफ्फर वानी जो खुद एक हैडमास्टर रहे हैं ने कहा है कि बच्चों की शिक्षा के साथ खिलवाड़ गलत है और स्कूलों को जलाया जाना बर्दाश्त नहीं होगा। जिस लड़के की मौत के बाद से ही कश्मीर में बवाल मचा हुआ है उसके पिता ही इस बवाल पर सवाल खड़े कर रहे हैं। जो खुद एक अध्यापक रहे हैं वह जानते हैं कि तालीम का कितना महत्व है। वह नहीं चाहते कि आज के युग में कश्मीरी बच्चे ज़ाहिल बनें इसलिए व्यक्तिगत पीढ़ा को एक तरफ रख उन्होंने विवेक की आवाज उठाई है।
इस बीच यह दिलचस्प समाचार भी आया है कि सईद अली शाह गिलानी, जो वहां अलगाववादियों का सबसे बड़ा नेता है, की अपनी पोती वहां के एक सीबीएसई पब्लिक स्कूल में इंटर्नल परीक्षा दे रही थी। अर्थात् जो शख्स चाहता है कि दूसरों के बच्चे स्कूल न जाएं, पत्थरबाज बन जाएं वह अपने परिवार के बच्चों को शिक्षित करवा रहा है। यह बंद दूसरों के बच्चों के लिए था, गिलानी के अपने परिवार को छूट थी!
अब तो खैर लंगड़ाते हुए कश्मीर सामान्यता की तरफ लौट रहा है। लेकिन यह स्थायी रहता है या नहीं, कोई नहीं कह सकता। आगे क्या होता है यह बहुत कुछ केन्द्र तथा प्रादेशिक सरकार पर निर्भर करता है। ऐसे लम्हे पहले भी आए हैं जब लगा कि कश्मीर सामान्य हो रहा है पर हर साल दो साल के बाद धक्का पहुंच जाता है। प्रदेश सरकार को संवेदनशील प्रशासन देना चाहिए जो अभी तक वह नहीं दे सकी। महबूबा मुफ्ती अब बात तो अच्छी करतीं हैं लेकिन बहुत प्रभावी प्रशासक नहीं हैं। उनके विधायक भी अपने अपने घर में दुबके बैठे रहते हैं कोई चुनाव क्षेत्र में जाने की जुर्रत नहीं करता।
बड़ी जिम्मेवारी केन्द्र सरकार की है कि उसे कश्मीर के इस्लामीकरण के प्रयास को फेल करना है। बाहर से जो पैसा आता है उसे नोटबंदी से अस्थायी धक्का पहुंचा है लेकिन वह फिर नया रास्ता निकाल लेंगे। ऐसे रास्तों को बंद करने में हमारी नाकामी बहुत महंगी साबित हुई है। कश्मीर में पाकिस्तान तथा आईएस के झंडे खुलेआम लहराए जाते हैं पर अब कश्मीरी बच्चों ने आवाज बुलंद की है कि वह जेहादी नहीं बनना चाहते। वह बुरहान वानी नहीं बनना चाहते। इस मौके का सही इस्तेमाल होना चाहिए।
कट्टरवाद का कैदी कश्मीर (Kashmir Prisoner of Extremism),