नोटबंदी का एक महीना पूरा होने के बाद सबको अहसास है कि हालात सही नहीं चल रहे। बैंकों तथा एटीएम के आगे कतारें पहली जैसी लम्बी ही हैं। अपना पैसा निकालना ही पहाड़ जैसी मुसीबत बन गई है। जो 24,000 रुपए साप्ताहिक निकालने की अनुमति है वह भी नहीं मिल रहे। वेतन देना और लेना दोनों मुश्किल हो गया है। बैंकों के आगे झगड़े शुरू हो गए हैं। जब नोटबंदी की प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी तो आम आदमी ने उत्साहित होकर समर्थन दिया था। लोगों का मानना था कि नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार तथा कालेधन के खिलाफ भी सर्जिकल स्ट्राईक की है। बेहतर भविष्य तथा अच्छे दिन की आशा में लोग तकलीफ सहने को तैयार थे।
लेकिन यह तब की बात थी। एक महीने में लोगों का मिज़ाज बदल गया है। शुरू में जिस जोश से समर्थन दिया गया वह पैसे न मिलने और कई मामलों में रोजगार ठप्प होने के कारण धीमा पड़ रहा है। जो मज़ा पहले मालदार लोगों को कालाधन संभालने में आ रही समस्या देखकर आ रहा था वह अपनी रोजमर्रा जिंदगी चलाने तथा अपने कारोबार तथा रोजगार पर लगी अनिश्चितता के दुख पर केन्द्रित होने लगा है। और कहीं एहसास है कि मालदार को फिर बच निकला। उसके लिए बचने के बहुत रास्ते थे।
भारत में कतार में लगना कभी भी बड़ी बात नहीं थी नरेंद्र मोदी के वायदे पर भी विश्वास था कि 50 दिन में सब कुछ सही हो जाएगा। गुजरात और महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों में भाजपा को मिले समर्थन से भी यही संदेश मिला था कि लोगों का इस योजना का खामोश समर्थन है। लेकिन अब बदलाव नज़र आ रहा है। रिजर्व बैंक बार-बार कह रहा है कि पर्याप्त नोट जारी कर दिए गए हैं फिर लोगों को खाली हाथ वापिस क्यों आना पड़ रहा है? कई शहरों से फर्जी खातों में करोड़ों रुपए जमा करवाने की खबरें आ रही हैं। अहसास हो रहा है कि एक माफिया जिसमें सरमायेदार, बिचौलिए, कुछ खाताधारी, बैंकों के अधिकारी, नोटबंदी का फायदा उठा रहा है आम आदमी की तकलीफे बढ़ा रहा है। वह सरकार की योजना को साबोताज़ करने में लगा है। जो प्रभावी हैं, साधन सम्पन्न हैं, वह काले को सफेद करने के रास्ते ढूंढ गए हैं।
हमारे समाज की दबी बेईमानी बाहर आ गई है। बेईमानों को पैसे बनाने का धंधा मिल गया। यहां तक कि मंदिरों के पुजारी तथा प्रबंधक काले को सफेद करने में लगे हैं। मंदिरों में भी चढ़ावा पहले से बहुत बढ़ गया है। बैंक और ज्यूलर्स बैक डेट से और बैक डोर से बहुत कुछ कर गए हैं। हवाला कारोबार भी खूब तेज़ हो गया है। कृषि आय पर कर नहीं इसलिए किसानों और गरीबों के खातों में पैसा जमा करवाया गया है। इस बहती गंगा में राजनेता तथा राजनीतिक दल किस तरह नहा रहे होंगे इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। काले को सफेद करने के आरोप में आरबीआई का एक वरिष्ठ अधिकारी गिरफ्तार हो चुका है। रक्षक ही भक्षक बन गए। बैंकिंग की साख गिरी है।
सरकार अब कैशलैस अर्थ व्यवस्था की तरफ देश को धकेल रही है। यह उस देश में आसान नहीं होगा जहां ग्रामीण क्षेत्रों में मीलों बैंक नहीं हैं। बिजली नहीं, इंटरनेट नहीं। जानकारी नहीं, जागरूकता नहीं। और अगर हमें कैशलैस बनाना था तो भी नोटबंदी की जरूरत नहीं थी। कालेधन से छुटकारा पाने के लिए कैशलैस अच्छा रास्ता है लेकिन इसके लिए बहुत तैयारी की जरूरत है। यह भी मालूम नहीं कि डिजीटल पेमेंट कितनी सुरक्षित है आखिर रूस ने तो हिलेरी क्लिंटन के खाते हैक कर लिए थे! पर इस वक्त तो देश हांफता हुआ कतार में लगा हुआ है। मालूम नहीं कि अपना कमाया पैसा मिलेगा भी या नहीं, और अगर मिलेगा तो कब मिलेगा? सरकार को विपक्ष के ‘भूकंप’ की चेतावनी की चिंता छोड़ आम आदमी के बदलते मिज़ाज की चिंता करनी चाहिए।
देश के श्रमिक वर्ग का भारी 80 प्रतिशत अनयमित क्षेत्र में काम करता है। जनधन योजना से कईयों के बैंक खाते खुले हैं पर सभी के नहीं हैं। करोड़ों मनरेगा मज़दूरों के खाते नहीं हैं। भारत की 60 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की अंतरराष्ट्रीय रेखा के नीचे रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लगभग 100 करोड़ लोग रहते हैं वहां प्रति एक लाख जनसंख्या के लिए 8 बैंक शाखा है। केवल 4 प्रतिशत जनसंख्या आयकर की रिटर्न दाखिल करती है। वह कैशलैस नहीं हो सकते। जहां इतना पिछड़ापन हो वहां इस प्रकार का धक्का, इरादा चाहे कितना भी नेक हो, आसान काम नहीं हो सकता।
जहां तक कालेधन का सवाल है नकदी तो इसका केवल 5-6 प्रतिशत ही है। बाकी सोना, रियल इस्टेट तथा विदेशी बैंकों में है। कुल जीडीपी का 1-1.5 प्रतिशत ही नकदी में है। न ही उन कारणों पर प्रहार ही किया गया है जो काला धन पैदा करते हैं। इतने प्रमुख राजनीतिक चंंद हैं जो कालेधन की गंगोत्री हैं। अनुमान है कि पिछले लोकसभा के चुनाव पर 35,000 करोड़ रुपए खर्च किए गए। कालेधन का बड़ा हिस्सा तो राजनेताओं के पास है। निश्चित तौर पर जब आम आदमी इस सर्दी में कतार में पसीना बहा रहा है यह सज्जन अपनी नापाक कमाई को सफेद करने में सफल रहे होंगे।
लेकिन असली चिंता और है। इससे अर्थव्यवस्था धीमी हो गई है। बाज़ार में गिरावट आई है। मैं अर्थ शास्त्री नहीं हूं इसलिए डा. मनमोहन सिंह के इस अनुमान कि इससे जीडीपी को 1 प्रतिशत का धक्का पहुंचेगा, के बारे में टिप्पणी नहीं कर सकता लेकिन आसपास धीमापन नजर आता है। मांग कम हो रही है। लोग वह खरीदना पीछे डाल रहे हैं जो जरूरी नहीं है। दुकानों में वीरानी है। उद्योग में काम करने की शिफ्ट कम हो रही हैं। जिन सैक्टर में नकदी से व्यापार होता है वहां भारी धक्का पहुंचा है विशेष तौर पर कृषि तथा ग्रामीण क्षेत्र में। इसका आगे चल कर असर पड़ेगा। रिटेल तथा निर्माण कार्य में आई मंदी से भी बुरा असर पड़ेगा। और याद रखना चाहिए कि निवेशक अनिश्चितता को पसंद नहीं करते।
अब बहुत कुछ एक व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह 30 दिसम्बर के बाद क्या करते हैं? नरेंद्र मोदी! हलकी मंदी से लोगों को तकलीफ पहुंचेगी और निराशा बढ़ेगी। नरेन्द्र मोदी सबसे विश्वासोत्पादक नेता हैं और लोग मानते हैं कि वह देश बदलना चाहते हैं। अब देखना है कि वह अर्थव्यवस्था में फिर जान डालने के लिए क्या करते हैं? और जो लोग बेवजह कतार में खड़े हैं उनकी पीड़ा खत्म करने के लिए क्या उपाय करते हैं? अगर वह स्थिति को संभालने में सफल रहते हैं तो वह इस प्राचीन देश को बदल जाएंगे लेकिन इस वक्त तो तकलीफ है। बहादुर शाह जफ़र से माफी मांगते हुए हम कह सकते हैं:
उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाए थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गए, दो एटीएम की कतार में!