पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि जब चुनाव जीत कर कोई जनप्रतिनिधि बनता है तो उसका पहला काम झूठ बोलना होता है क्योंकि वह खर्च का झूठा ब्यौरा दाखिल करता है। लेकिन सच्चाई इससे भी बड़ी है कि न केवल शुरू में झूठ बोला जाता है बल्कि हमारी सारी राजनीति ही झूठ की बुनियाद पर टिकी है। जो लोग हमारे लिए कानून बनाते हैं उनकी अपनी बहुत गतिविधियां गैरकानूनी हैं। खर्च का ब्यौरा देने से पहले यहां टिकटें बिकती हैं, काला राजनीतिक चंदा इकट्ठा किया जाता है और कोई पूछने वाला नहीं। क्योंकि सब इस बहती गंगा में नहाते हैं इसलिए कोई दूसरे पर उंगली नहीं उठाता और न ही इसे सही करने में इनकी रुचि है। जब जून 2014 में मुख्य सूचना अधिकारी ने राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अधीन लाने की कोशिश की थी तो सभी दलों ने मिलकर इस प्रयास को असफल कर दिया था। पारदर्शिता तो दूसरों के लिए है। आम आदमी के लिए है। जो हमारे जन प्रतिनिधि हैं वह महान हैं, हम सबसे ऊपर हैं।
आजकल लोग नोटबंदी से परेशान हैं पर राजनीतिक दलों का पसीना नहीं बह रहा क्योंकि आयकर कानून के अनुसार राजनीतिक दलों को आय के सभी साधनों पर पूर्ण छूट है। इसके अतिरिक्त कानून कहता है कि 20,000 रुपए से कम चंदे के बारे उन्हें उसका स्रोत बताने की जरूरत नहीं। यह कौन लोग हैं जो 20,000 रुपए से नीचे चंदा देते हैं? जिन नेताओं के पास काला धन है उन्होंने अपने खातों में नहीं बल्कि अपनी अपनी पार्टी के खातों में जमा करवा दिया है। बाद में खर्चे के लिए निकाल लेंगे। कोई तहकीकात नहीं, कोई सवाल पूछने वाला नहीं। जरूरी तो यह है कि सब राजनीतिक दल सार्वजनिक करें कि 8 नवम्बर को नोटबंदी के बाद उनके खाते में कितनी लहर आई है?
पोलिटिकल फंडिंग अर्थात राजनीतिक चंदे पर निगरानी रखने की जरूरत है क्योंकि कालेधन को खत्म करने के लिए राजनेता-उद्योगपति-अधिकारी की मिलीभगत तोड़ने की जरूरत है। हमारी अर्थव्यवस्था में जो काली धारा बह रही है उसकी गंगोत्री राजनीति है। राजनेता अपनी गतिविधियों के लिए पैसे लेते हैं जिस कारण उन्हें उद्योगपतियों तथा अधिकारियों की अवैध गतिविधियों को बर्दाश्त करना पड़ता है। अगर देश में इतनी व्यापक बेईमानी है कि रिजर्व बैंक के अधिकारी भी पकड़े जा रहे हैं तो इसका बड़ा कारण है कि राजनीति गंदी है और गंदी मिसाल कायम कर रही है।
गोपीनाथ मुंडे ने माना था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 8 करोड़ रुपए खर्च किए थे। इंडिया टुडे के अनुसार लोकसभा के पिछले चुनाव पर 35,000 करोड़ रुपए लगे थे। लेकिन अधिकृत तौर पर लोकसभा चुनाव में खर्चा केवल 7000-8000 करोड़ रुपए ही माना गया जिसका अर्थ है कि बाकी 27,000 करोड़ रुपया शुद्ध काला धन था। अगर यही नियम विधानसभा के चुनावों पर भी लगाया जाए तो पता चल जाएगा कि हमारे चुनाव कितना विशाल काला धन पैदा करते हैं।
राजनीति किस तरह लज़ीज़ बन गई है यह हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम ज़ैदी ने बताया है। उनके अनुसार देश में 1900 राजनीतिक दल पंजीकृत हैं पर 2005-15 के बीच केवल 400 ने ही चुनाव लड़े हैं बाकी काला धन संभालनेे के काम आते हैं। कितनी गंभीर बात है कि मुख्य चुनाव आयुक्त मान रहे हैं कि कई राजनीतिक दल फर्जी हैं पर फिर भी वह कुछ करने में बेबस हैं। क्योंकि राजनीतिक दलों को केवल 20,000 से ऊपर के चंदे के बारे ही बताना पड़ता है इसलिए उसके नीचे वह किसी राम-श्याम , मधुबाला-मीना कुमारी के नाम की रसीद काट सकते हैं कोई पूछने वाला नहीं।
अब मामला प्रधानमंत्री मोदी के पाले में है। उन्होंने नोटबंदी का बहुत जोखिम उठाया है यहां तक कि अपना पद भी दांव पर लगा दिया है। लेकिन यह तब तक सफल नहीं होगा जब तक यह गंगोत्री साफ नहीं की जाती। उन्हें विपक्ष की तरफ देखने की जरूरत नहीं उनकी सरकार एकतरफा फैसला कर सकती है जैसे नोटबंदी के मामले में किया है। वह सिद्ध भी कर चुके हैं कि वह अप्रिय कदम उठा सकते हैं। अगर लोग यह समझ गए कि सख्ती उन पर ही है राजनीतिक दल अछूते हैं तो लोगों का समर्थन कम हो जाएगा। अभी से नज़र आ रहा है कि भ्रष्ट की मौज है और ईमानदार को अपना पैसा सरकारी नखरे से मिल रहा है।
अब सरकार का कहना है कि 5000 रुपए से अधिक पुराने नोट केवल एक बार ही बदले जाएंगे। जबसे नोटबंदी की गई है 59 बार नियम बदले गए हैं। पर प्रधानमंत्री ने तो 8 नवम्बर को कहा था कि 30 दिसम्बर तक आराम से नोट बदले जा सकते हैं फिर भी पाबंदी क्यों? पैसे निकालने में भी दिक्कत और पैसे जमा करवाने में भी दिक्कत। इस सरकार की बड़ी पूंजी नरेन्द्र मोदी की विश्वसनीयता है उसे ही सरकार में बैठे कुछ लोग खत्म करने में लगे हैं। और याद रखना चाहिए कि इस देश ने बहुत पाबंदियां कभी भी बर्दाश्त नहीं कीं। हम पर नया इंस्पैक्टर राज न थोपा जाए।
सीधा सवाल है कि राजनीतिक दल तथा राजनेता आम भारतवासी से ऊपर क्यों हैं? एक कानून शासित के लिए और एक कानून शासक के लिए? न ही चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के टैक्स रिटर्न की ही जांच कर सकता है। अर्थात् यह राजनीतिक दल देश के सामान्य कानून से ऊपर हैं। कोई पारदर्शिता नहीं, कोई जवाबदेही नहीं, अछूते हैं। न आयकर विभाग का डर, न ईडी का आतंक। जनता से सख्त पूछताछ हो सकती है पर उनके प्रतिनिधियों से नहीं। जिनसे 20,000 रुपए से कम का चंदा लिया जाता है उनके पैन कार्ड या आधार कार्ड की सूचना क्यों नहीं ली जाती? और नेताओं के खिलाफ अवैध जायदाद या आय के साधनों से अधिक जयदाद के मामले लटकते क्यों रहते हैं? और क्या किसी राजनेता को आपने बैंक की कतार में लगे देखा है?
अगर वास्तव में सफाई चाहते हो तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में आयोग बनाना चाहिए जो राजनीतिक फंडिंग की जांच करे और सुधार के सुझाव दे। इस बीच सरकार का सारा जोर डिजिटल पर लगा हुआ है लेकिन यह सुरक्षित कितनी है? हाल ही में इंटरनेट प्रोवाइडर याहू ने शिकायत की है कि उसके 1 अरब यूजर्स का डेटा चोरी हो गया है। दो महीने पहले यहां 30 लाख डेबिट कार्डस की जानकारी एटीएम से लीक हो गई थी। जैसे जैसे ऑनलाइन लेनदेन बढ़ेगा ऑनलाइन फ्रॉड की संभावना भी बढ़ जाएगी। साइबर क्राइम से निबटने के लिए यहां तंत्र है ही नहीं।
अंत में : प्रधानमंत्री की प्रेरणा से मैंने भी क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन दिया था। जवाब आया कि आपकी आयु अधिक है। अर्थात् जो नया चमकता भारत मोदीजी बनाना चाहते हैं उसमें वरिष्ठ नागरिकों की कोई जगह नहीं होगी। लेकिन जगह-जगह हैक हो रहे खातों को देखते हुए अब सोचता हूं कि अच्छा ही हुआ कि कार्ड नहीं मिला। कम से कम नकदी को कोई हैक तो नहीं कर सकेगा!
देश का सबसे बड़ा झूठ (The Biggest Lie),