राहुल गांधी बहुत समय से उतावले हो रहे थे। धमकियां दे रहे थे कि अगर उन्होंने मुंह खोला तो भूकम्प आ जाएगा। 170 घंटे के बाद आखिर में गुजरात में मेहसाणा में राहुल ने अपना मुंह खोला तो वही घिसे पिटे आरोप प्रधानमंत्री मोदी पर दोहरा दिए जिन्हें पहले प्रशांत भूषण अदालत में तथा अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में लगा चुके हैं कि नरेन्द्र मोदी को सहारा तथा बिड़ला से करोड़ों रुपए मिले थे। ऐसा किसी डायरी में लिखा हुआ है लेकिन इन आरोपों को सुप्रीम कोर्ट बार-बार रद्द कर चुका है कि यह बेबुनियाद हैं, ज़ीरो हैं, फर्जी हैं।
लेकिन उन आरोपों को राहुल गांधी ने भरी सभा में मेहसाणा में दोहरा दिया जिससे अंग्रेजी का मुहावरा याद आता है कि मूर्ख वहां भागे चले आते हैं जहां फरिश्ते कदम रखने से घबराते हैं। यह केवल गैर जिम्मेवारी ही नहीं बल्कि अत्यंत शर्म की बात है कि बिना ठोस सबूत के देश के प्रधानमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं। अब कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री जवाब दें। चारा खाने वाले और जेल भुगतने वाले लालू प्रसाद यादव ने भी मांग की है कि ‘राहुल गांधी ने जो आरोप लगाए हैं उनके बारे पीएम खुद बात स्पष्ट करें कि तथ्य क्या हैं?’
अर्थात् पहले आरोप लगा दो फिर कहो कि स्पष्टीकरण दो चाहे आरोपों में दम न भी हो। जैन हवाला मामले में भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि डायरी में नोटिंग पर्याप्त नहीं इसका समर्थन करने वाले और सबूत चाहिए। वर्तमान आरोप 2013 से सम्बन्धित है जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस वक्त अरुण जेतली नहीं पी. चिदम्बरम वित्तमंत्री थे उन्होंने जांच क्यों नहीं करवाई? और इन कथित डायरियों में तो शीला दीक्षित तथा जयंती नटराजन के नाम भी हैं। कांग्रेस ने उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की? शीला दीक्षित तो इसे बकवास कह रहीं हैं। अगर शीला दीक्षित दोषी हैं तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तरफ से उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कैसे पेश किया जा रहा है? लेकिन यह अलग बात है। और कल को अगर किसी की डायरी में राहुल या केजरीवाल को डाकू लिखा मिल जाए तो क्या उसे सही मान लिया जाए?
राहुल गांधी तथा दूसरे विपक्षी नेताओं की कुंठा समझ आती है। उन्हें नरेन्द्र मोदी का तोड़ नहीं मिल रहा पर उनके खिलाफ अभियान चलाते वक्त जोश के साथ होश भी चाहिए। केवल गालियां निकालना पर्याप्त नहीं। राहुल विशेषतौर पर बहुत गैर जिम्मेवारी दिखा रहे हैं। वह मोदी विरोधी विपक्ष का नेता बनना चाहते हैं इसलिए उन पर ‘जवानों के खून की दलाली’ तक का आरोप भी लगा चुके हैं। बेबुनियाद आरोपों से देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री एक संवैधानिक संस्था हैं उस पर इस तरह मिट्टी फेंकने का प्रयास निंदनीय है, शर्मनाक है और गैर जिम्मेवारी की पराकाष्ठा है। जहां बाकी बहक रहे हैं वहां ममता कैसे पीछे रह सकती हैं? दूर तमिलनाडु में मुख्य सचिव के निवास पर छापे की कार्रवाई जिसमें लाखों के नए नोट के अतिरिक्त बहुत कुछ और बरामद हुआ है, के बाद ‘तूं कौन, मैं खामखां’ की नीति पर चलते हुए ममता ने कहा है कि मोदी सरकार में दम है तो उन्हें गिरफ्तार कर दिखाए। छापा चेन्नई में पड़ा भड़क उठी कोलकाता में ममता बैनर्जी। इस महिला की मानसिक स्थिति अब चिंताजनक बन रही है।
चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव में भाजपा की बम्पर जीत यह स्पष्ट संकेत है कि नोटबंदी से लोग कितने भी परेशान हों, अपना पैसा निकालने में कितनी भी दिक्कत हो, जहां तक चुनावों का सवाल है इनके लिए भाजपा अभी भी पसंदीदा पार्टी है। नरेन्द्र मोदी के साथ जनता का लव अफेयर अभी जारी है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि दूसरी तरफ राहुल हैं। इससे पहले महाराष्ट्र तथा गुजरात में हुए स्थानीय चुनावों से भी यही संदेश गया है। ठीक है कि नगर निगम के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं पर 26 में से 20 सीटों पर भाजपा की जीत बताती है कि नाराज़गी है ही नहीं और अगर है तो यह केवल बैंकों तथा एटीएम तक सीमित है, मतदान केन्द्र तक नहीं पहुंची। दूसरा बड़ा संदेश है कि कांग्रेस को लोग अभी भी पसंद नहीं करते।
कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि उनका राष्ट्रीय नेतृत्व बेकार है। नोटबंदी की भारी तकलीफ के बीच भी कांग्रेस को 26 में से मात्र 4 सीटें ही मिली हैं। फिर ऐसा मौका कब मिलेगा? राहुल मेहनत तो बहुत कर रहे हैं लेकिन पप्पू वाली उनकी छवि अभी भी कायम है। विशेषतौर पर जब कांग्रेस का नेतृत्व भ्रष्टाचार के आरोप लगाता है तो मज़ाक लगता है। लेकिन असली बात है कि नरेन्द्र मोदी की काट विपक्ष के पास नहीं है। न अगंभीर राहुल गांधी, न अपरिपक्व अरविंद केजरीवाल, न चीखती चिल्लाती ममता बैनर्जी ही नरेन्द्र मोदी का विकल्प बनने की क्षमता और लोकप्रियता रखते हैं। अरविंद केजरीवाल को भी समझना चाहिए कि नकारात्मक राजनीति की भी सीमा है।
इस परिणाम का पंजाब के चुनाव पर क्या असर पड़ेगा? चंडीगढ़ के चुनाव को पंजाब के चुनाव का बैरोमीटर समझा जाता है। और अगर बैरोमीटर है तो कम से कम अकाली दल के लिए बहुत बुरी खबर है क्योंकि जहां भाजपा 22 में से 20 वार्ड जीतने में सफल रही वहां अकाली दल अपने कोटे के चार में से तीन वार्ड गंवा बैठा। इसलिए अगर प्रकाश सिंह बादल कहें कि यह तो ट्रेलर है, असली फिल्म विधानसभा के चुनाव में देखने को मिलेगी तो यह फिल्म दो कार्यकाल का शासन विरोध झेल रहे अकाली दल के लिए बहुत बदगुमान लगती है।
पर चंडीगढ़ के संदेश को अखिल भारतीय रुझान नहीं समझना चाहिए। चंडीगढ़ वैसे भी सामान्य भारतीय शहर नहीं है। यह तो चमकता टापू है जहां कभी बिजली नहीं जाती और केन्द्र उदारता से पैसा देता है जबकि पंजाब विधानसभा के चुनाव प्रादेशिक मुद्दों पर लड़े जाएंगे और पंजाब में परिवारवाद, कुशासन तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे हावी होंगे। तब तक नोटबंदी की हालत बिगड़ भी सकती है और सुधर भी सकती है। 30 दिसम्बर के बाद प्रधानमंत्री राहत देने की बड़ी घोषणा भी कर सकते हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि नोटबंदी से विपक्ष को जो मौका मिला था उसका विपक्ष के अनाड़ी नेता फायदा नहीं उठा सके। इसलिए इस वक्त तो भाजपा को राहत मिली है और कहा जा सकता है कि,
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए थे पै तमाशा न हुआ!