
पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पर तैनात बीएसएफ के जवान तेज बहादुर यादव ने वीडियो जारी कर जवानों को मिल रहे घटिया खाने की शिकायत की है। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ में रहने वाले तेज बहादुर के परिवारजनों का भी कहना है कि वह कई बार शिकायत करता था कि ‘पशुओं वाला खाना मिलता है।’ उसका यह भी आरोप है कि सरकार उनके लिए जरूरी चीज़ें खरीदती है पर अफसर उसे अवैध तरीके से बाजार में बेच देते हैं।
जैसा अपेक्षित था बीएसएफ की प्रतिक्रिया आई है कि संगठन अपने जवानों के कल्याण के प्रति संवेदनशील है और व्यक्तिगत खामियां अगर कोई हैं तो इनकी जांच की जाएगी। इसी के साथ तेज बहादुर के चरित्र पर भी उंगली उठाई जा रही है कि अतीत में उसके खिलाफ अनुशासनहीनता को लेकर चार बार कार्रवाई हो चुकी है। यह बातें सही हो सकती हैं। यह भी सही है कि तेज बहादुर ने बल का अनुशासन तोड़ा है क्योंकि जवानों द्वारा वीडियो क्लिप या फोटो जारी करने पर पाबंदी है। लेकिन इस जवान का चरित्र हनन कर बीएसएफ के अधिकारियों ने भी स्वयं पर कई सवाल खड़े कर लिए हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अगर यह जवान ‘आदतन दोषी’ है, ‘चिरकारी शराबी’ है और ‘मानसिक तौर पर अस्थिर है’ तो फिर उसे ऊंचाई वाले फार्वर्ड क्षेत्र में तैनात क्यों किया गया?
पूर्व डीजी प्रकाश सिंह ने कहा है कि ‘बीएसएफ में 2,00,000 जवान हैं और अगर 200 भी वीडियो जारी करने लगें तो संकट पैदा हो जाएगा।’ लेकिन मुद्दा उसकी अनुशासनहीनता का ही नहीं, असली मुद्दा उसके द्वारा घटिया भोजन की शिकायत है और यह एहसास है कि अधिकारियों का जवानों के साथ सम्पर्क टूटा हुआ है नहीं तो उसे इतनी ऊंची शिकायत करने की जरूरत न पड़ती। याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान के खिलाफ बीएसएफ हमारी सुरक्षा की पहली पंक्ति है। वह 3000 किलोमीटर सीमा के प्रहरी हैं। यह बल बहुत बहादुरी से अपनी जिम्मेवारी निभा रहा है। कई अफसर तथा जवान शहादत पा चुके हैं लेकिन बीएसएफ को वह सुविधाएं प्राप्त नहीं जो सेना और उसके अधिकारियों तथा जवानों को प्राप्त हैं।
तेज बहादुर के वीडियो के बाद कुछ और जवानों ने अपनी शिकायतें सोशल मीडिया की मार्फत करनी शुरू कर दी हैं। सेना के एक जवान बलबीर सिंह ने ‘सेवादारी प्रणाली’ के खिलाफ शिकायत की है। उसका कहना है कि यह सैनिक के सम्मान के खिलाफ है कि उससे बूट पॉलिश करवाया जाए या अफसरों के बच्चों की देखभाल करवाई जाए। वह देश के लिए जान देने को तैयार है, बूट पॉलिश करने को तैयार नहीं। कुछ साल पहले सेना के एक जवान ने इसी तरह मुझसे सम्पर्क किया था। उसकी शिकायत थी कि वह तो देश की सेवा के लिए सेना में शामिल हुआ था पर उसे अफसर के घर मैडम कपड़े प्रैस करने में लगा देती है। किचन में काम करवाती थी।
यह प्रथा अंग्रेज़ों के जमाने से चली आ रही है जब सेना के अफसरों को बैटमैन मिलते थे जो घरों में नौकरों की तरह सेवा करते थे। अब उन्हें बैटमैन नहीं ‘सहायक’ कहा जाता है पर कई अफसरों के घरों में अभी भी सैनिकों से घर का काम लिया जाता है। आजकल के जमाने में यह बिलकुल जायज़ नहीं। किसी अफसर के घर में काम करना सैनिक के स्वाभिमान पर गहरी चोट है। इस मामले में थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का कहना था कि जवानों को कोई शिकायत है तो उनसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं लेकिन सोशल मीडिया में शिकायतें सार्वजनिक करने पर उन्हें दंडित भी किया जा सकता है।
चीफ की बात जायज़ है पर जनरल रावत को भी मालूम होगा कि कई अफसरों के घरों में ‘सहायक’ का इस्तेमाल सेवादार की तरह किया जाता है। आप्रेशन के समय सहायक की भूमिका है पर फैमिली स्टेशन में क्यों जरूरी है? अगर वायुसेना तथा नौसेना के अफसर इनके बिना अच्छा गुजारा कर सकते हैं तो थलसेना के अफसर क्यों नहीं कर सकते? दुनिया में और भी तो बड़ी सेनाएं हैं। अगर अमेरिका या रूस या चीन की सेना बिना ऐसे ‘सहायक’ के काम कर सकती हैं तो भारतीय सेना क्यों नहीं कर सकती?
समय बदल गया है। आजकल के भारत में अंग्रेजों वाली साहबी खत्म होनी चाहिए। बहुत जवान शिक्षित हैं जो नौकरों वाला काम नहीं करना चाहते। आशा है सेना इस घृणित प्रथा को पूरी तरह बंद करने की तरफ कदम उठाएगी। आजाद भारत में ऐसी गुलामी की इज़ाजत नहीं होनी चाहिए। सैनिक को सैनिक रहने दो। बहुत अफसर हैं जो अपने सहायक को स्नेह और इज्ज़त के साथ रखते हैं पर बहुत बड़ा अपवाद भी तो है। इससे असंतोष बढ़ रहा है।
उस जवान की शिकायत के बाद मैं पशोपेश में पड़ गया। अगर उसकी शिकायत सार्वजनिक कर देता तो उसका कोर्ट मार्शल हो जाता। मैंने कुछ वरिष्ठ अफसरों से बात कर उसे शिकायत निवारण का रास्ता सुझाया। उसके बाद उसने मेरे साथ सम्पर्क नहीं किया। शायद उसकी शिकायत का निवारण हो गया क्योंकि सेना में ऐसी व्यवस्था है जो अर्धसैनिक बलों में उपलब्ध नहीं। पर सेना में भी जबरदस्ती ऐसी सेवा करवाना अफसर के कोर्ट मार्शल का मामला बनना चाहिए।
घरों और परिवारों से हजारों मील दूर दुर्गम क्षेत्रों में अमानवीय परिस्थिति में तैनात अधिकारी तथा जवान तनाव में रहते हैं। उनसे लगातार सम्पर्क की जरूरत है। बहुत खामोशी से सह जाते हैं पर कई तेज बहादुर की तरह ऊंची शिकायत करते हैं।
अब सीआरपीएफ के जवान जीत सिंह ने भी वीडियो के द्वारा शिकायत की है कि ‘हमारे दर्द को कोई नहीं समझता।’ उसकी शिकायत है कि उन्हें वह सुविधाएं नहीं मिलतीं जो सेना के जवानों को मिलती हैं जबकि वह बराबर की ड्यूटी देते हैं। कोई पैंशन इत्यादि भी नहीं मिलती। 20 साल के बाद जब वह रिटायर हो जाएगा तो उसके पास कोई काम नहीं रहेगा। लगभग 10 लाख नफरी वाले अर्धसैनिक बल देश की सीमा की रक्षा तथा आंतरिक सुरक्षा का महत्वपूर्ण काम करते हैं। वह भारत को सुरक्षित रखते हैं। उनकी शिकायतों की तरफ ध्यान देने की बहुत जरूरत है।
बहरहाल मामले की जांच हो रही है। तेज बहादुर और उसके जैसे दूसरे जवानों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का कोई फायदा नहीं क्योंकि वह तो संदेशवाहक है। कार्रवाई तेज बहादुर के खिलाफ नहीं बल्कि उसके द्वारा दिए गए संदेश के बारे होनी चाहिए और उन अफसरों से भी पूछताछ होनी चाहिए जिनके अधीन यह नौबत आ गई। इससे बल में असंतोष के प्रति आंखें खुल जानी चाहिए।
सेना के जवानों की स्थिति बहुत सुधरी है। लेकिन बीएसएफ तथा सीआरपीएफ में बराबर सुधार नहीं हुआ। विशेषतौर पर भोजन के मामले में लापरवाही या कंजूसी या हेराफेरी बिलकुल स्वीकार नहीं होनी चाहिए। जैसी महत्वपूर्ण इन जवानों की जिम्मेवारी है वैसी सुविधाएं भी उन्हें मिलनी चाहिए।
संदेशवाहक को गोली मत मारो (Don't Shoot The Messenger),