पंजाब के चुनाव परिणाम के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े एक व्हट्सअप चैट पर मनोज सिंह का यह संदेश था, ‘‘जिन्हें लोग ‘भक्त’ कहते हैं उन्होंने एक बार फिर प्रमाणित किया कि वह सिर्फ देशभक्त हैं! और वह देश के लिए कुछ भी कर सकते हैं। वोटिंग के समय विचारधारा को छोड़ सकते हैं, पार्टी को छोड़ सकते हैं।’’
इसका अर्थ क्या है? साधारण भाषा में इसका अर्थ यह है कि पंजाब में संघ ने डूबती और अप्रासंगिक भाजपा को अपने हाल पर छोड़ कर प्रदेश को आप के अराजक शासन से बचाने के लिए कांग्रेस को वोट दिलवा दिए।
पंजाब में कांग्रेस की जीत जहां अमरेन्द्र सिंह के अनुभवी नेतृत्व पर मोहर थी वहीं यह शहरी वोटर, विशेषतौर पर हिन्दू, का भाजपा से हट कर कांग्रेस की तरफ झुकाव भी प्रदर्शित करती है। कांग्रेस की 77 सीटों में से 29 वे थीं जो या तो शहरी थीं या वे थीं जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। शहरी वोटर ने केजरीवाल की देश के अंदर और बाहर सिख उग्रवाद के साथ इश्कबाज़ी से आतंकित हो कांग्रेस को समर्थन दे दिया। अरविंद केजरीवाल ने साम्प्रदायिक राजनीति की। पुराने कट्टरवादियों को साथ लेकर चुनाव जीतने की कोशिश की। विदेशों में भी वह एनआरआई इकट्ठे कर लिए जो देश के प्रति रंजिश पालते हैं। गढ़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की गई जबकि पंजाब आगे बढ़ आया है। लोगों ने उनके अराजक एजेंडे को रद्द कर दिया। बठिंडा से हारे आप के उम्मीदवार दीपक बांसल ने खुला आरोप लगाया कि सिख रैडिकल्स के साथ नेतृत्व की नजदीकी चुनाव में पराजय का कारण बनी और हिन्दू समुदाय दूर चला गया।
पांच दिन के बाद केजरीवाल ने ईवीएम पर पराजय का दोष मढ़ दिया। ‘मैंने सुना है’, ‘लोग कहते हैं’, ‘अगर’ का सहारा लेकर देश की चुनावी प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया। पराजय से केजरीवाल बहुत तनाव में लगते हैं। उनकी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा को भी पलीता लग गया। उन्हें बेंगलुरू ट्रीटमेंट के लिए जाना चाहिए। हालत सीरियस लगती है।
पंजाब में राहुल गांधी के नाम पर वोट नहीं पड़े यहां अमरेन्द्र सिंह के नाम पर कांग्रेस को समर्थन मिला। वास्तव में यहां यह अमरेन्द्र सिंह की कांग्रेस बन गई है। अमरेन्द्र सिंह कांग्रेस के उन एक-दो नेताओं में से हैं जिनमें प्रदेश जीतने की क्षमता है। लोगों को बहुत पहले यह एहसास था कि गांधी परिवार तथा अमरेन्द्र सिंह के बीच तनाव है। राहुल ने भी अंतिम समय मजबूरी में अमरेन्द्र सिंह को सीएम का उम्मीदवार घोषित किया था। अर्थात् अगर अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को इतना समर्थन मिला है तो यह गांधी परिवार के कारण नहीं बल्कि इनके बावजूद है। लोगों की जब अपनी जरूरत होती है तो वह खुद अपना विकल्प तैयार कर लेते हैं। अमरेन्द्र सिंह पंजाब की जरूरत बन गए, इसीलिए इतना समर्थन मिला।
अमरेन्द्र सिंह ने भी इस बार बहुत मेहनत की। अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर नेतृत्व प्रदर्शित किया। यह न्यू अमरेन्द्र सिंह थे। शोर सबसे अधिक आप ने मचाया। अकाली नेतृत्व को सबसे अधिक बदनाम आप के नेताओं ने किया। इस मामले में भगवंत मान बहुत लोकप्रिय रहे। वह तो कुर्सी पर खड़े हो होकर पूछते रहे, ‘मान सीएम चाहिए या नहीं?’, लेकिन फायदा अमरेन्द्र सिंह और कांग्रेस उठा गए जबकि भगवंत मान खुद जलालाबाद से बुरी तरह पिट गए।
आप बदला लेने की बात कहती रही। अकाली नेताओं, विशेषतौर पर बिक्रमजीत सिंह मजीठिया, को अप्रैल तक जेल में भेजने की बात कहती रही। लेकिन यह होता कैसे? देश में कानून का शासन है आप किसी को उठा कर जेल कैसे भेज सकते हो? केजरीवाल की नकारात्मक राजनीति को एक तरफ रखते हुए अमरेन्द्र सिंह का स्थिर सरकार तथा उद्देश्यपूर्ण शासन का वायदा लोगों को पसंद आया। हां, पंजाब में वीआईपी कल्चर खत्म करने के पहले कदम का श्रेय आप को जरूर जाता है क्योंकि उन्होंने ही यह मामला उठाया था। मैं ‘पहला कदम’ इसलिए कह रहा हूं क्योंकि देखना है कि कांग्रेसी नेता कितने दिन लाल बत्ती और वीआईपी तामझाम के बिना रहते हैं?
लेकिन चुनौतियां बहुत हैं। अकाली शासन के अवशेषों को खत्म करना है। सतलुज-यमुना लिंक नहर का मामला तलवार की तरह ऊपर लटक रहा है। पंजाब की आर्थिकता को फिर से सही रास्ते पर डालना है। चार सप्ताह में ‘चिट्टा’ खत्म करने का बड़ा वायदा पूरा करना है। अमरेन्द्र सिंह को यह भी याद रखना चाहिए कि उन्हें सीएम हिन्दू और शहरी वोटर ने बनाया है। मंत्रिमंडल में फिर हिन्दुओं को कम प्रतिनिधित्व देकर कांग्रेस ने एक बार फिर कृतघ्नता का परिचय दिया है। नवजोत सिंह सिद्धू मंत्री भी रहेंगे और कामेडी शो भी करेंगे पर राजनीति तो 24&7 व्यवसाय है। यह कोई कामेडी शो नहीं। उन्हें एक को चुनना चाहिए।
जहां तक अकाली दल का सवाल है, एक परिवार जिसके बराबर बिजनेस हित थे के हाथ में सत्ता का केन्द्रीयकरण पंजाब की जनता कितनी देर और बर्दाश्त कर सकती थी? परिवार ने भी शर्म उतार दी थी। पंजाब रोडवेज घाटे में और बादल रोडवेज तेज स्पीड में दौड़ती रही। कब तक ऐसा चलता रहता? नशे ने असंख्य परिवार चौपट कर दिए। हैरानी है कि इतने वरिष्ठ और अनुभवी प्रकाश सिंह बादल धृतराष्ट्र की तरह सब कुछ देखते रहे।
जिस तरह संघ भाजपा की कुर्बानी दे गया उसी तरह पंथ ने अकाली दल की कुर्बानी दे दी। जिन्हें टकसाली सिख कहा जाता है वह अकाली दल को छोड़ गए क्योंकि आम धारणा है कि इस लोभी परिवार को केवल अपने व्यापारिक हित तथा अपनी सत्ता की चिंता है, पंथ या पंजाब की नहीं। बार-बार श्री गुरूग्रंथ साहिब की होती बेअदबी और डेरा सच्चा सौदा के साथ अंतिम क्षण में गुप्त समझौता अकाली दल के ताबूत में अंतिम कील साबित हुए।
प्रकाश सिंह बादल की राजनीति का पतन अपयश और पराजय में हुआ है। अकाली दल तो मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन सका। लेकिन इसके जिम्मेवार भी वह खुद हैं। लोगों के बीच बादल परिवार तथा उनके हवलदारों के प्रति नफरत थी जो इस बार फूट पड़ी। भ्रष्टाचार तथा अहंकार का घातक मिश्रण अकाली दल को ले बैठा। चुनाव मैनेज करने की सुखबीर बादल की कथित दक्षता भी किसी काम नहीं आई। आप कुछ लोगों को मैनेज कर सकते हैं सारी जनता को सदा के लिए मैनेज नहीं कर सकते। जनता ने बादलों से अपना बदला ले लिया। आप को बुरी तरह से ठुकरा दिया। और पंजाब बच गया!
और पंजाब बच गया! ( And Punjab Was Saved! ),