उत्तर प्रदेश में भाजपा की भारी जीत पर कथित सैक्युलरवादी बहुत तड़प रहे हैं। विशेषतौर पर पांच बार सांसद योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो विलाप हदों को पार कर रहा है। प्रभाव यह दिया जा रहा है कि जैसे गणतंत्र के अंत की शुरुआत हो रही है। वह योगी को कारगुजारी दिखाने का मौका भी नहीं देना चाहते। उनके लिए काफी है कि योगी ने भगवा पहना हुआ है इसलिए पहले से ही फैसला कर लिया है कि योगी के मुख्यमंत्री बनने से अनर्थ हो जाएगा। आखिर वह बाबा गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश को कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?
ऐसे लोगों को समर्थन देते हुए राजमोहन गांधी ने एक लेख लिखा है कि उनके जैसे कई लोगों ने समझा था कि अखिलेश यादव-राहुल गांधी गठबंधन यूपी में ‘भाजपा की मशीन’ पर काबू पा लेगा लेकिन नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की आंधी ने समाजवादी-कांग्रेस तम्बू को उखाड़ दिया। पर उन्होंने यूपी तथा भारत के बारे अपना विश्वास नहीं खोया है लेकिन शिकायत है कि भारत की सबको बराबर रखने की छवि पर आघात पहुंच रहा है।
इस सब में इस बुद्धिजीवी का दुख झलकता है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन की यूपी में सरकार नहीं बनी। लेकिन इस सज्जन से यह तो पूछा जाना चाहिए कि अगर वहां सपा-कांग्रेस की सरकार बन जाती तो उन्होंने कौन से सितारे तोड़ लाने थे? आज यूपी इतना पिछड़ा है कि कई विशेषज्ञ शिकायत करते हैं कि यह देश पर बोझ है तो क्या इसकी जिम्मेवारी इन्हीं पार्टियों पर नहीं जिन्होंने अधिकतर समय वहां शासन दिया है? देश के सबसे बड़े प्रदेश की विकास की दर सबसे कम है। उसकी प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से आधी है। देश की 17 प्रतिशत जनसंख्या यहां रहती है पर जीडीपी में यूपी का योगदान 7 प्रतिशत ही है। उसकी गरीबी की दर भयावह 30 प्रतिशत है। फिर राजमोहन गांधी उन्हीं का शासन क्यों चाहते हैं जिन्होंने यह स्थिति पैदा की है।
अगर सबको बराबर रखा तो भी बराबर गरीबी और पिछड़ापन ही बांटा। लोगों को विकास चाहिए, रोजी रोटी चाहिए, बिजली-पानी चाहिए, सुरक्षा चाहिए या यह कथित सैक्युलरवाद चाहिए? सबसे अधिक अपराध यूपी में है। प्रदेश बुरी तरह से धर्म और जातिवाद में बंटा हुआ है। मुजफ्फरनगर में दंगे हुए। शाहबानो मामले के समय पलटा किसने खाया था? अगर मुसलमान इतने पिछड़़े हैं जो बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट स्पष्ट करती है तो इसके लिए योगी आदित्यनाथ तो जिम्मेवार नहीं।
वहां एक मुल्ला-राजनेता गठबंधन है जिसने सैक्युलरवाद के नाम पर मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग और पिछड़ा रखा हुआ है। ये लोग ही राम जन्मभूमि विवाद का हल नहीं निकलने देते। मायावती तो खुला मुसलमानों को न्यौता देती रही हैं पर बहनजी ‘कम्युनल’ नहीं हैं? न ही तिहरे तलाक पर ही इन पार्टियों का स्पष्ट नजरिया है। फिर जो खुद को ‘प्रोग्रैसिव’ कहते हैं ऐसे लोगों की वकालत क्यों कर रहें हैं? उनका कल्याण नहीं किया सिर्फ दिखावा किया। मुसलमान कहते हैं कि वह उन्हें रात के अंधेरे में मिलना चाहते हैं, सुबह हमें पहचानते ही नहीं!
यह सब ठीक है जब तक आप मोदी/संघ/भाजपा को गालियां देते रहो? सारे खून माफ? चाहे आपने विकास न किया हो, चाहे आपने परिवारवाद लाद दिया हो, चाहे भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा कर दी हो, चाहे आपने मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार देने के लिए कोई प्रयास न किया हो, पर आप सैक्युलर उदारवादी हैं इसलिए श्रेष्ठ हैं?
योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना कर भाजपा के नेतृत्व ने भी बहुत बड़ा जुआ खेला है। अगर वह अच्छा प्रशासन दे गए और वास्तव में ‘सबका साथ, सबका विकास’ के वायदे पर खरे उतरे तो भाजपा के लिए 2019 में वापिसी आसान हो जाएगी पर अगर वह उग्र हिन्दुत्व की नीति पर ही चलते रहे तो 2019 के लिए मुश्किलें खड़ी करते जाएंगे। सारा देश पलट जाएगा। अतीत में वह बहुत कुछ ऐसा कह चुके हैं जो नहीं कहना चाहिए था। उनके पिताजी आनंद सिंह बशिष्ट ने बताया है कि वह अपने पुत्र को अपने भाषणों पर नियंत्रण करने की सलाह देते रहे हैं ‘‘पर वह अपनी मर्जी करता है।’’ ,
पर एहसास है कि लोग बदलते हैं। जब जिम्मेवारी सिर पर पड़ती है तो बदलना पड़ता है। योगी भी ‘जिम्मेवारी’ तथा ‘22 करोड़ लोगों’ की बात कर रहे हैं। लगता है कि वह अपने पिताजी की नेक सलाह मान रहे हैं। उन्हें अच्छा प्रशासन देने पर केन्द्रित होना चाहिए। निश्चित तौर पर किसी भी तरह की हिंसा बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए। पूर्वांचल में उनके चुनाव क्षेत्र में उनके कई बार भड़काऊ भाषणों के बावजूद मुस्लिम पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
पर अगर भाजपा को इतना समर्थन मिल रहा है और आज वह योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम उठाने को तैयार है तो इसका बड़ा कारण है कि कथित उदारवादी सैक्युलर जमात ने देश के बहुमत के साथ धक्का किया है। सैक्युलरिज्म के नाम पर उन्होंने हिन्दू भावना को कुचलने की कोशिश की और घटिया शासन दिया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में इन लोगों ने कथित धर्मनिरपेक्षता को तुष्टिकरण में परिवर्तित कर दिया और खुद को मुख्यधारा से अलग कर दिया। यही लोग हैं जो जेएनयू में देश विरोधी हरकतों को समर्थन और बढ़ावा देते रहे। इन्हें राष्ट्रवाद से भी नफरत है।
यह लोग भूलते हैं कि देश बदल गया है। प्रधानमंत्री ‘नए भारत’ की बात करते हैं। यह बनेगा या नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन हम नेहरूवादी सैक्युलरिज्म का अंत जरूर देख रहे हैं। नेहरू पश्चिम की विचारधारा का आयात कर लाए थे पर उनके जीवन में ही लोगों ने इसे रद्द करना शुरू कर दिया था।
आज नेहरू के सैक्युलर सिद्धांत की जगह हिन्दुत्व और विकास का संयुक्त सिद्धांत ले रहा है। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। नकली सैक्युलरवाद यहां से उखड़ चुका है। यह कपटपूर्ण बन चुका है क्योंकि इसकी आड़ में परिवारवाद, जातिवाद, भेदभाव, भ्रष्टाचार, कुशासन पनपते रहे। जो रोजगार की मांग करते थे उन्हें सैक्युलरिज्म का झुुनझुना पकड़ा दिया गया। उन्हें पिछड़ा रखा गया। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का भी बड़ा कारण है कि जिन्हें सैक्युलर कहा जाता है उन पार्टियों की कारगुजारी निम्न रही। अब एक नई विचारधारा बल पकड़ रही है। इसे खिलने का समय मिलना चाहिए, जिस तरह योगी आदित्यनाथ को भी अपना कौशल प्रदर्शन करने का समय मिलना चाहिए। इस पर विलाप कर रहे राजमोहन गांधी जैसे सैक्युलरवादियों से मुझे कहना है कि, और भी गम हैं ज़माने में टुंडा कबाब के सिवाय!
और भी गम हैं ज़माने में! (There Are Other Worries In The World),