रिटायर होने के अपने फैसले पर सचिन तेंदुलकर ने लिखा है कि पहली बार उन्होंने अक्तूबर 2013 में इसके बारे सोचा था। वह बताते हैं, ‘‘मेरी सुबह जिम में वर्कआउट से शुरू होती थी। ऐसा में पिछले 24 साल से करता आ रहा था लेकिन उस अक्तूबर की सुबह कुछ बदल गया था…मुझे एहसास हुआ कि सुबह उठने के लिए मुझे खुद पर जबरदस्ती करनी पड़ रही है…अनिच्छा थी, पर क्यों? मेरा दिमाग और मेरा शरीर मुझे बता रहा था कि बस कर।’’
सचिन तेंदुलकर 39 वर्ष के थे जब वह रिटायर हुए। मुझे 50 वर्ष हो गए काम करते। मेरा सचिन के साथ मुकाबला तो नहीं पर क्या मेरे रिटायर होने का वक्त आ गया?
मैंने 1967 में चेकोस्लोवाकिया से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद काम करना शुरू किया था। मैं 21 वर्ष का था। तब से लेकर अब तक निरंतर काम करता आ रहा हूं। पहले सिर्फ मैनेजमैंट संभालता था। फिर एक बार आदरणीय वीरेन्द्रजी आर्य समाज के सम्मेलन में हिस्सा लेने मॉरीशस गए थे। पंजाब में आतंकवाद का दौर था। भिंडरावाला का खूब आतंक था। प्रताप के स्टाफ में जो वरिष्ठ सदस्य थे उन्होंने घबरा कर संपादकीय लिखने से इन्कार कर दिया। उस वक्त पहली बार मैंने संपादकीय लिखा था, और वह भी भिंडरावाला पर। पिताजी जब मॉरीशस से लौटे तो नई दिल्ली के हवाई अड्डे पर ही किसी ने उन्हें बता दिया कि ‘काका अच्छा लिखता है।’ वह भी हैरान रह गए कि मैंने लिखना शुरू कर दिया।
तब से लेकर अब तक लगभग निरंतर लिखता आया हूं। मुझे खुशी है कि अधिकतर लोगों ने मेरी लेखनी को पसंद ही किया है। एक ब्लॉग जो मैं लिखता हूं और लिखता रहूंगा, वह 10 लाख हिट के नजदीक है, अर्थात् लगभग 10 लाख बार इसे पढ़ा जा चुका है।
इस लम्बे सफर में बहुत उतार चढ़ाव देखे। कई बार ऐसी सोच भी दिल में उठी कि,
ऐसा लगता है कि हर इम्तहां के लिए
जिन्दगी को हमारा पता याद आया!
दुनिया को मैंने बदलते देखा। पत्रकारिता का ही स्वरूप बदल गया। पहले पत्रकारिता विचारधारा और सिद्धांतों पर आधारित थी। अब यह पूरी तरह से व्यापारिक हो गई है। लोग बदल गए पर हम नहीं बदले इसलिए संघर्ष भी बहुत करना पड़ा जिसके बारे मैं पाकिस्तानी शायर अहमद फराज के साथ कह सकता हूं,
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंजिल
कोई हमारी तरह उम्रभर सफर में रहा!
लेकिन सफर का अपना लुत्फ होता है। चुनौती का सामना करने की आदत सी पड़ गई है। आखिर टैंशन के बिना भी जिन्दगी कैसी?
प्रताप परिवार की जिन्दगी ही संघर्ष की जिन्दगी रही है। 1919 में प्रताप शुरू हुआ था। यह जलियांवाला बाग नरसंहार वाला साल था। आजादी की लड़ाई में वीरेन्द्र जी नौ बार जेल गए थे। लाहौर के हमारे घर में पुलिस निरंतर मेहमान रहती थी। अंग्रेज सरकार लगातार प्रताप के पीछे पड़ी रहती थी। एक बार तो घर के सभी पुरुष सदस्य जेल में थे।
फिर देश आजाद हो गया। हिन्दी आन्दोलन में प्रताप की प्रमुख भूमिका रही। वीरप्रताप शुरू हुआ जिसके बाद देश के इस हिस्से में हिन्दी पत्रकारिता का उदय हुआ। फिर आतंकवाद का दौर आया। 1983 में देश का पहला पार्सल बम हमें भेजा गया। बम कार्यालय में फट गया हमारे दो कर्मचारी मारे गए। घर में छत के ऊपर भी सीआरपीएफ की टुकड़ी तैनात रहती।
बहुत लोगों ने सलाह दी कि आप यहां से निकल जाओ। पर निकल किधर जाओ? परिवार ने फैसला किया कि एक बार लाहौर से उजड़ कर आए हैं फिर नहीं उजड़ेंगे। यह भी आभास था कि अगर निकल गए तो यहां लोगों के मनोबल पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इसलिए राष्ट्रीय धर्म निभाया और यहां ही डटे रहे।
यह दौर निकल गया तो अगला दौर कमर्शलाइजेशन का आ गया। अखबार अब बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है। यह अच्छी बात है या बुरी बात इस पर मैं टिप्पणी नहीं कर रहा, पर यह अब देश में पत्रकारिता की हकीकत है कि अगर करोड़ों रुपए नहीं हैं तो आप अखबार नहीं निकाल सकते।
स्वभाव भी बदल गए। हमारे दादाजी महाशय कृष्ण तो प्रताप में ऐसा विज्ञापन प्रकाशित नहीं होने देते थे जिसकी विश्वसनीयता के बारे उन्हें ज़रा भी शक हो। आज कौन परवाह करता है? सैद्धांतिक पत्रकारिता से हम पेड न्यूज़ तक पहुंच गए हैं। पत्रकारिता का मकसद ही बदल गया।
इस बीच आयु बढ़ती गई। सचिन तेंदुलकर की तरह मैं भी बहुत देर से सोच रहा हूं कि बस करूं। सुबह शाम वही जिन्दगी है। मशीनी बन गई है। सुबह होती है तो शाम की तैयारी, शाम होती है तो सुबह की तैयारी। न परिवार के लिए समय है न अध्ययन के लिए। न ही किसी और शौक के लिए ही समय मिलता है। जो कुछ इंसान करना चाहता है उसके लिए समय ही नहीं मिलता।
लेकिन सबसे अधिक शरीर की घड़ी कह रही है कि धीरे चलो। सुनील गावस्कर ने भी लिखा है कि उन्होंने गेम से हटने का तब निर्णय कर लिया था जब खेल के दौरान वह घड़ी देखने लग पड़े थे कि कब लंच होगा, कब टी इंटरवल होगा? और अब तो प्रधानमंत्री मोदी भी 70 वर्ष से ऊपर के लोगों को रिटायर करने में लगे हैं। मुझे राज भवन तो कोई नहीं भेजेगा पर अपना राज तो हम भी चला सकेंगे!
कुछ ऐसी ही थकावट अब मुझ में है। रोज़ का संपादकीय लिखना बहुत बड़ा काम है। बहुत सोच की जरूरत होती है। लोग एक-एक शब्द पढ़ते हैं। सारा दिन दिमाग पर बोझ रहता है। जो वफादारी से मेरा संपादकीय पढ़ते हैं उनसे कहना चाहूंगा,
जो तार से निकली है वह धुन सबने सुनी है
जो साज़ पे बीती है यह किसको खबर है!
आगे क्या है? हॉलीवुड अभिनेत्री सोफिया लोरेन ने कहा था कि ‘‘आपके अंदर एक युवा फुव्वारा है।’’ अब उसे निकालने की कोशिश करुंगा। पर सवाल जरूर खड़ा है कि किस तरह दिन की तैयारी करूंगा जबकि जिसने 50 साल व्यस्त रखा अब वह जिन्दगी का केन्द्रबिन्दु नहीं रहेगा, फोकस नहीं होगा? पर मेरा विश्वास है कि आपके विकास करने की क्षमता की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। इसलिए इस मौके पर मेरा संदेश है,
चाहे शाख हो सब्ज़ो वर्ग पे,
चाहे गुलची ग़ुलज़ार पर
मैं चमन में चाहे जहां रहूं,
मेरा हक है फसल-ए-बहार पर!
जिन्दगी चलती रहती है। आखिर जिन्दगी से कौन रिटायर होता है? उड़ने के लिए और भी तो आसमान हैं!
उड़ने के लिए और भी तो आसमान हैं (There Are Other Skies Also),