सुप्रीम कोर्ट ने यह सुझाव दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद का हल अदालत से बाहर आपसी सहमति से निकाला जाए और जरूरत पड़ने पर खुद मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थता के लिए तैयार हैं। इससे यह आशा जगी है कि शताब्दियों से लटके, मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. खेहर की बैंच के मुताबिक ‘धर्म और आस्था से जुड़े मामले’, को अब सुलझाया जा सकता है।
देशभर में सबसे बड़ी अदालत के सुझाव का स्वागत किया गया है लेकिन दुख की बात है कि कई पक्षकार सहमत नहीं हैं। हिन्दू महासभा के वकील का कहना है कि समझौते का सवाल ही नहीं, जमीन रामलला विराजमान की है। दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी का कहना है कि उन्हें अदालत के बाहर कोई समझौता स्वीकार नहीं। उनके अनुसार मामला मालिकाना हक का है जिस पर अदालत फैसला दे। कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी का भी कहना है कि अदालत को राम मंदिर पर सलाह देने से पहले भूमि विवाद सुलझाना चाहिए था। अर्थात् एक ही आवाज़ में दोनों बोल रहे हैं। हैरानी नहीं कि कामरेड देश से उखड़ रहे हैं, लेकिन यह अलग बात है।
पर मामला जमीन का ही नहीं, असली मामला तो यह है कि क्या यह स्थल राम जन्मभूमि है या नहीं? अगर है तो फिर यहां मस्जिद कैसे बन सकती है? पुरातात्विक तथा ऐतिहासिक साक्ष्य विवादित स्थल पर मंदिर होने का प्रमाण दे रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट भी 30 सितम्बर, 2010 को यह मामला तय कर चुका है कि विवादित स्थल राम जन्मभूमि है। अदालत ने यह भी कहा था कि जिस गुबंद के नीचे रामलला की मूर्ति विराजमान है वह ही उनका जन्म स्थल है। अदालत ने 2.77 एकड़ जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया था जिसको लेकर अब झगड़ा है।
पहले यह कहा जाता रहा कि यह स्थल राम जन्मभूमि नहीं है पर जब अदालत ने इसे तय कर दिया तो दीवानी मामलों को लेकर झगड़ा शुरू कर दिया। मुसलमानों के हिस्से में एक एकड़ से कम जमीन आती है जिसके लिए इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा किया गया है। जो मामला करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का है उसे जमीन जायदाद का बना दिया गया। ऐसा कर जफरयाब जिलानी जैसे लोगों ने अपने समुदाय का भी क्या हित किया? दोनों समुदाय में जो तनाव रहता है उसका बड़ा कारण यह विवाद है। अल्पसंख्यक समुदाय के जो ठेकेदार हैं वह चाहते हैं कि उनका समुदाय अल्पसंख्यक मानसिकता से ग्रस्त रहे और मुख्यधारा में शामिल न हो। इसीलिए उन परम्पराओं का सहारा लिया जा रहा है जिन्हें इस्लामी देश भी रद्द कर चुके हैं।
क्या बेहतर नहीं होगा कि मुसलमान उदारता दिखाते हुए इस स्थल पर से अपना दावा वापिस ले लेते? आखिर जहां राम का जन्म हुआ है वह स्थल तो बदला नहीं जा सकता पर नमाज कहीं भी अता की जा सकती है। अगर वह इस जगह सेे हटने के लिए मान जाएं तो यह इनकी पराजय नहीं होगी। उलटा यह इस समुदाय की दरियादिली का प्रमाण होगा। नहीं तो यह विवाद उबलता रहेगा और तनाव का विषय बना रहेगा।
मैं मानता हूं कि जिस तरह 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई उससे मुसलमानों को चोट पहुंची है लेकिन 25 वर्ष बीत गए। अब आगे बढ़ने का समय है। बाबर मुसलमानों का धर्म पुरुष तो था नहीं, वह आक्रांता था जिसने राम जन्मभूमि समेत कई मंदिर गिराए थे। विध्वंस किया। मुस्लिम नेतृत्व उसकी याद से क्यों चिपका हुआ है जबकि हिन्दुओं के लिए इस जगह की वही आस्था है जो मुसलमानों के लिए मक्का की मस्जिद अल हरम की है। सऊदी अरब जैसे देश में सड़कें बनाने के लिए मस्जिदें हटाई गई हैं। मिस्र में डैम बनाने के लिए ऐसा हो चुका है। मस्जिद तो कहीं भी ले जाई जा सकती है पर राम जन्मभूमि तो बदली नहीं जा सकती।
जो लोग इस मामले के हल में रुकावटें डाल रहे हैं वह मुसलमानों का भारी अहित कर रहे हैं। उन्हें अलग-थलग रख रहे हैं जबकि मुसलमान खुद इसी संस्कृति की पैदायश हैं। इकबाल ने भी लिखा था,
है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज़!
जिनके वजूद पर सबको नाज़ है उनकी जन्मभूमि पर मंदिर बनाने के रास्ते में रुकावटें क्यों खड़ी की जाएं सिर्फ इसलिए कि आपकी दुकानदारी का सवाल है? यह भी कहा जा रहा है कि आस्था सबूत नहीं होती और यह तो मात्र किंवदंतियों तथा पौराणिक मान्यताओं पर आधारित है। पर ठोस सबूत है किस धर्म के पास? क्या मुसलमानों के पास है? ईसाईयों की कई कथाओं पर तो विश्वास करना भी मुश्किल है लेकिन सब स्वीकार करते हैं क्योंकि आस्था का मामला है। फिर करोड़ों हिन्दुओं की आस्था से इस तरह खिलवाड़ क्यों?
कुछ नादान कथित उदारवादी यहां हस्पताल बनाने की बात कर रहे हैं। यह बकवास है। लोग चाहते हैं कि उसी जगह भव्य राम मंदिर बने। लेकिन कोई जोर जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए। एकतरफा फैसला नहीं होना चाहिए। हिंसा या दंगे नहीं होने चाहिए। हैदराबाद से भाजपा के विधायक का कहना है कि जो राम मंदिर के निर्माण का विरोध करेंगे उसका मैं सर कलम कर दूंगा। मंदिर निर्माण के लिए वह जान देने और लेने के लिए भी तैयार हैं। ऐसे बेवकूफ हिन्दुओं के सबसे बड़े दुश्मन हैं। यह हिन्दुओं को दुनिया भर में गलत छवि देते हैं कि जैसा यह समुदाय खून का प्यासा रहता है। ऐसे ही कथित गोरक्षक भी हैं जो हिंसा कर रहे हैं। हिंसा से मंदिर नहीं बनाना चाहिए, न बन सकता है। न ही हिंसा से गोरक्षा ही होनी चाहिए।
वहां पहले ही मंदिर कायम है। पूजा हो रही है। मस्जिद वहां बन नहीं सकती। फिर उदारता दिखाते हुए अपना दावा वापिस लेते हुए मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि सदा के लिए यह विवाद खत्म क्यों नहीं करवा देते? इससे उनकी तौहीन नहीं होगी, उलटा जो उदारता दिखाता है उसकी अधिक इज्जत होती है।
यह अच्छी बात है कि मुसलमानों में उदारवादी आवाज़ें उठ रही हैं। मुस्लिम महिलाएं पहले ही तीन तलाक के विरोध में लामबंद हो रही हैं। शिया पर्सनल लॉ बोर्ड का भी कहना है कि तीन तलाक हराम है। अजमेर शरीफ के दीवान ने अपने समुदाय को नेक सलाह दी है कि वह हिन्दुओं के लिए बीफ खाना छोड़ दें। गोहत्या के खिलाफ मुसलमानों में प्रमुख लोग आवाज़ उठा रहे हैं। याद रखिए कि अकबर समेत कई मुगल शासकों ने गौहत्या पर रोक लगा दी थी। ऐसी ही उदारता राम मंदिर के बारे भी दिखाई जानी चाहिए। मुसलमानों को अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर भव्य राम मंदिर बनाने में अपना सहयोग देना चाहिए। उन्हें इतिहास की धारा को समझना चाहिए। मंदिर का निर्माण अधिक देर रोका नहीं जा सकता। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम का मंदिर हिंसा या जबर से नहीं पूरी मर्यादा से बनाना चाहिए।
मुसलमान उदारता दिखाएं (Muslims Should Show Generosity),