चीन की वर्ल्ड ड्रीमज़चीन के बारे नैपोलियन ने कहा था कि इसे सोने दो क्योंकि जब वह जाग गया वह दुनिया को हिला कर रख देगा। दो शताब्दियों के बाद यह सोया ड्रैगन न केवल जाग उठा है बल्कि दहाड़ भी रहा है। चीन अब अगला सुपरपॉवर बनने के लिए बड़े कदम उठा रहा है। वह इस वक्त दुनिया का उत्पादन का केन्द्र है। अमेरिका का सबसे बड़ा लेनदार भी है। दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक देश है। उसका 4068 अरब डॉलर का व्यापार अमेरिका के 3724 अरब डॉलर से आगे निकल गया है। वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था है। उसकी सेना दुनिया की सबसे बड़ी सेना है। सैनिक बजट अमेरिका के बाद सबसे बड़ा है। भारत से उसकी अर्थ व्यवस्था पांच गुना है।
इस वक्त जब अमेरिका एक सुदाई राष्ट्रपति के कारण अपने में उलझ रहा है चीन ने बीजिंग में वन बैल्ट वन रोड शिखर सम्मेलन कर अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व हासिल करने के लिए बड़ा कदम उठाया। क्या यह कदम सफल रहेगा?
यह सवाल विशेषतौर पर हमारे लिए बहुत महत्व रखता है क्योंकि चीन पाकिस्तान की सांझेदारी को अब और आयाम दिया जा रहा है। अपनी योजना, चाहे इसे कोई भी नाम दिया जाए, के द्वारा चीन दक्षिण एशिया तथा मध्य एशिया के द्वारा योरुप, पूर्व ऐशिया तथा अफ्रीका तक अपना नैटवर्क बिछाना चाहता है। इस गलियारे के इर्दगिर्द रेल, हाईवे, तेल तथा गैस पाईपलाईन, पॉवर ग्रिड, इंटरनेट नैटवर्क तथा बंदरगाहें बनाई जाएंगी। चीन का अनुमान है कि इसके द्वारा 2.5 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार होगा। पीपल्स डेली के वरिष्ठ सम्पादक डिंग गैंग ने लिखा है ‘‘इतिहास के पहिए के 21वीं सदी में प्रवेश करने पर चीन ने खुद को वैश्विक आर्थिक केन्द्र पुनसर््थापित कर दिया है।’’
भारत ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया है। हमारी शिकायत है कि यह गलियारा भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है क्योंकि यह पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरता है। शिखर सम्मेलन में शी जिनपिंग ने जरूर कहा है कि सभी देशों को एक-दूसरे की संप्रभुता तथा मूल हितों का सम्मान करना चाहिए लेकिन यही चीन भारत के मामले में नहीं कर रहा है। जिस तरह पाकिस्तान को हमारे बराबर खड़े करने का वह बार-बार असफल प्रयास कर रहे हैं उसी से पता चलता है कि चीन इस क्षेत्र में भारत को सबसे बड़ी चुनौती समझता है। हमारे पड़ोस में भी वह अरबो डॉलर खर्च कर वफादारियां बदलने की कोशिश कर रहा है।
दलाई लामा के मामले में भी इस बार चीन जरूरत से अधिक भड़का है। उनकी अरुणाचल प्रदेश की यात्रा को रोकने के लिए असफल रहने के बाद हमें धमकी दी गई कि ‘‘इससे रिश्ते बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुए हैं।’’ लेकिन इस आवेश से यह आभास तो मिलता है कि यह महाशक्ति एक लामा से भयभीत है। भारत भी जानता है कि दलाई लामा के द्वारा चीन पर दबाव बनाया जा सकता है। अगर चीन हमारे खिलाफ पाकिस्तानी कार्ड खेल सकता है तो हम भी तिब्बत कार्ड खेल सकते हैं।
जहां तक चीन के विभिन्न आर्थिक गलियारों का सवाल है, निश्चित तौर पर इससे चीन का आर्थिक, राजनीतिक तथा व्यापारिक प्रभाव बढ़ेगा। हमारे पड़ोस में वह हमें अलग-थलग करने की कोशिश करेंगे। अब दौड़ कूटनीतिक नहीं, आर्थिक हो रही है। अपनी आर्थिक ताकत के द्वारा चीन दुनिया पर अपना प्रभाव जमाना चाहता है। हमें बहुत तेजी से अपने साधनों को इकट्ठा कर चीन की चुनौती का सामना करने की तैयारी करनी चाहिए। गिलगित-बालटीस्तान से गलियारा निकाल कर चीन ने बता दिया कि उन्हें हमारी आपत्ति की चिंता नहीं।
लेकिन यह उनकी गलतफहमी हो सकती है। भारत एक मामूली ताकत नहीं जिसे चीन रौंद कर आगे बढ़ सकता है। दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थ व्यवस्था जहां 30 करोड़ मिडल क्लास है के बिना चीन के गलियारे सफल नहीं हो सकते। नरेंद्र मोदी में हमारे पास एक मज़बूत नेता है जिन्होंने दलाई लामा की अरूणाचल प्रदेश की यात्रा करवा तथा इस शिखर सम्मेलन का बहिष्कार करवा बता दिया कि वह दबाव में नहीं आएंगे।
चीन के विशेषज्ञ तड़प रहे हैं कि भारत हिस्सा नहीं ले रहा क्योंकि वह जानते हैं कि भारत के बहिष्कार ने रंग में भंग डाल दिया है। चर्चा केवल उन्हीं देशों की नहीं जो वहां मौजूद थे, बड़ी चर्चा उस देश की भी है जो वहां नहीं था। बिजिंग से चीनी विशेषज्ञ हू शीशेंग लिखते हैं ‘‘अगर भारत हिस्सा नहीं लेता तो पड़ोसी शिकायत करेंगे। इससे भारत का नुकसान होगा तथा उसका प्रभाव कम होगा।’’ भारत खुद को संभाल लेगा। वह यह भी जानते हैं कि भारत का उदार लोकतंत्र चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही से सदैव आकर्षक रहेगा। एक निजी चीनी थिंक टैक एनबाऊंड ने लिखा है, ‘‘चीन को भारत की स्पर्धा को गंभीरता से लेना चाहिए। … युवा जनसंख्या के साथ इस बात की प्रबल संभावना है कि भारत का उभरता मार्केट दूसरा चीन बन जाए।’’
चीन की यह भी समस्या है कि पाकिस्तान में इस गलियारे को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या यह दूसरी ईस्ट इंडिया कंपनी तो नहीं होगी? आखिर चीन का पैसा होगा, चीन की कंपनियां निवेश करेंगी, और लेबर तथा विशेषज्ञ भी चीनी ही होंगे। फिर पाकिस्तान को क्या मिला? यह सवाल पाकिस्तान की संसद में उठाया जा चुका है। कई जगह वहां प्रदर्शन हो चुके हैं। जेहादी चीनियों से नफरत करते हैं। चीनी वर्करों पर हमले हो चुके हैं। ब्लूचिस्तान के लोग समझते हैं कि चीनी और पंजाबी मिल कर उनके संसाधनों का और दोहन करने वाले हैं। बीजिंग शिखर सम्मेलन से एक दिन पहले ग्वाडर में 10 मजदूरों की हत्या अपना संदेश देती है।
चीन ने श्रीलंका की कोलम्बो तथा हमबनटोटा बंदरगाहों से विस्तार किया था अब श्रीलंका की सरकार चीनी कर्जे की भारी कीमत की शिकायत कर रही है। थाईलैंड चीन से तेज स्पीड की ट्रेन से इंकार कर चुका है। कई अफ्रीकी तथा दक्षिणी अमेरिकी देश चीन के निवेश की कीमत की शिकायत कर चुके हैं। जर्मनी का कहना है कि चीन की योजना के बारे और पारदर्शिता चाहिए। अर्थात चीन के लिए यह आसान नहीं होगा विशेषतौर पर जब उनके मित्र पाकिस्तान के अपने तीन पड़ोसी, भारत, अफगानिस्तान तथा ईरान के साथ वैरी रिश्ते हैं। ऐसे गलियारे वहां सफल होते हैं जहां अमन और भाईचारा हो, टकराव नहीं।
अपनी किताब ‘चाईनाज़ एशियन ड्रीम’ में टॉम मिलर ने लिखा है ‘‘आखिर में क्या बनता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि चीन की सरकार तथा कंपनियां दूसरे देशों के साथ क्या सौदेबाजी करती है…।’’ लेकिन चीन की ‘ड्रीम’ केवल एशिया तक ही सीमित नहीं है, उसकी वर्ल्ड ड्रीम है। इससे आगे चल कर उसका टकराव अमेरिका,जापान, योरुप तथा दूसरी ताकतों से होगा। अमेरिका भी सदैव सुरक्षात्मक नहीं रहेगा।
हमारे लिए यह नई चुनौती जरूरत है। पाकिस्तान अब खुद को चीन के पास गिरवी रखने जा रहा है। पर भारत के सहयोग के बिना चीन का एशिया पर भी वह प्रभाव नहीं हो सकता जो वह चाहते हैं। शंघाई से चीनी विशेषज्ञ शेन डिंगली लिखते हैं…, ‘‘चीन की एशिया में नेतृत्व की महत्वकांक्षा निर्बाध नहीं होगी।’’ चीन को आखिर में हमारी संवेदनाओं का ध्यान रखना पड़ेगा। चीन को प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फयूशस ने सही कहा था, ‘‘जो तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ हो, वैसा बर्ताव दूसरों के साथ मत करो।’’
चीन की वर्ल्ड ड्रीमज़ (China's World Dreams),