
इस देश में अपनी बात कहने की पूर्ण आजादी है। संविधान इसकी अनुमति देता है पर फिर भी कोई न कोई मर्यादा होनी चाहिए। जिन्हें बुद्धिजीवी माना जाता है जिस कारण समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी है, उनका विशेष दायित्व बनता है कि वह मर्यादा और तमीज़ की लक्ष्मण रेखा पार न करें।
हाल ही में लेखक और प्रोफैसर पार्था चटर्जी ने भारतीय सेना तथा जनरल बिपिन रावत के बारे जो कुछ लिखा है वह न केवल मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार करता है बल्कि बेहूदा बकवास भी है। यह चाहे कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पढ़ाते हो पर वह बेदतमीज़ी की हर हद पार कर गए हैं।
एक लेख में चटर्जी ने कश्मीर में सेना द्वारा मानव ढाल के इस्तेमाल की घटना का जिक्र करते जलियांवाला बाग कांड तथा जनरल डायर की करतूत से इसकी तुलना की है।
एक न्यूज पोर्टल में लिखे लेख ‘कश्मीर में भारत अपना जनरल डायर क्षण देख रहा है,’ वह लिखते हैं, ‘‘कई बार इंसान शीशे में देखता है और सामने एक चेहरा होता है जिसे वह पहचानता नहीं… अधिकतर भारतीय इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि एक राष्ट्र के तौर पर हम अपने जनरल डायर वाले क्षण पर पहुंच गए हैं। लेकिन ध्यान से तथा निष्पक्ष तौर पर अगर देखा जाए तो ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने 1919 में पंजाब में अपनी कार्रवाई कर जो औचित्य दिया था तथा एक शताब्दी के बाद भारतीय सेना कश्मीर में अपनी कार्रवाई का जो औचित्य बता रही है, उसमें डरावनी समानता है।’’
गज़ब है कि मेजर लीतुल गोगोई द्वारा फारुख अहमद दार को जीप के आगे मानव ढाल की तरह बांधने तथा जनरल रावत द्वारा मेजर को प्रशंसा पत्र देने की एक घटना की तुलना वह जलियांवाला बाग के नरसंहार से कर बैठे जबकि खुद मानना है कि डायर ने निहत्थे लोगों पर 1650 राऊंड गोलियां चलाईं और लगभग एक हजार लोग मारे गए थे।
पर मेजर गोगोई ने तो कोई गोली नहीं चलाई। उलटा उनकी सोच से तो भारी खूनखराबा बच गया फिर चैटर्जी क्यों भड़क रहे हैं? ऐसी फिजूल तुलना क्यों कर रहे हैं? इस घटना के बारे भारतीय सेना के जनरल रावत ने जो स्पष्टीकरण दिया है उसकी चैटर्जी ने उस ब्रिटिश अफसर साथ तुलना करते हुए कहा कि ‘‘डायर ने भी समझा था कि उसे भड़की हुई जनता का सामना करना पड़ रहा है। उसकी मुख्य ड्यिूटी वहां व्यवस्था कायम करना और सरकार के दबदबे को कायम करना था।’’
क्या इस शख्स को जनरल डायर की डियूटी तथा जनरल रावत की डियूटी में अंतर नजऱ नहीं आया? डायर उस जगह व्यवस्था कायम कर रहा था जो उसका देश नहीं था। डायर ब्रिटिश सरकार के आदेश तथा हितों के अनुसार चल रहा था। भारत भूमि पर ब्रिटिश उपस्थिति नाजायज़ थी और ‘‘सरकार के दबदबे को कायम’’ करने के लिए उसने निहत्थे लोगों पर गोली चलवा दी।
अफसोस है कि इस देश के बुद्धिजीवी वर्ग में कुछ लोगों का दिमाग खराब हो गया है। कई मोदी नफरत में भड़क रहे हैं लेकिन जो भारतीय सेना कश्मीर में कर रही है जो ब्रिटिश सेना ने जलियांवाला बाग में किया उसकी तुलना कैसे हो सकती है? वह 1919 का पंजाब था यह 2017 का कश्मीर। हमारी सेना अपने घर सही करने में लगी हुई है जबकि ब्रिटिश सेना तो अपने उपनिवेश को संभालने के लिए क्रूर दमन का सहारा ले रही थी। ब्रिटिश लेखक माईकल एडवर्डस ने अपनी किताब ‘द लास्ट इयर्ज ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में डायर की करतूत के बारे लिखा, ‘‘बिना चेतावनी उसने भीड़ पर फायरिंग का आदेश दे दिया… डायर की बंदूकों की आवाज ने ब्रिटिश साम्राज्य के अंतिम दिनों की शुरूआत कर दी।’’
अर्थात घटना इतनी क्रूर थी कि यह ब्रिटिश लेखक भी मान रहा है कि यह ब्रिटिश ताबूत में कील साबित हुई थी। इतिहासकार राजमोहन गांधी भी लिखते हैं, ‘‘दस मिनट के लिए सैनिकों ने आदेश अनुसार अपने ट्रिगर दबा दिए और वह तब ही रुके जब उनकी गोलियां खत्म हो गईं… शहर (डायर शब्दों में) बिलकुल खामोश हो गया। एक शख्स भी नजऱ नहीं आ रहा था। जलियांवाला बाग में जो मारे गए और जो मर रहे थे उन्होंने 13 की रात कुत्तों तथा गिद्दों के बीच गुजारी।’’
यह वह घटना थी जिसके लिए ब्रिटेन को कभी माफ नहीं किया जा सकता। पर ब्रिटिश यही नहीं रुके। अगले दो दिन गुजरांवाला में विरोध कर रहे लोगों पर ब्रिटिश वायुसेना से बम बरसाए गए। यहां भी उल्लेखनीय है कि यह कार्रवाई प्रदर्शन के खत्म होने के बाद की गई। 14 और 15 अप्रैल के इस हमले में बारह लोग मारे गए।
ऐसी घटनाओं की कश्मीर में भारतीय सेना की कार्रवाई से तुलना करना किसी शरारत से कम नहीं है। यह संभव नहीं कि पार्था चैटर्जी को मालूम नहीं कि जलियांवाला बाग की हकीकत क्या है। यह भी मालूम होगा कि अंग्रेज यहां दमनकारी ताकत थे, उनका यह देश नहीं था। फिर ऐसी तुलना क्यों?
भारतीय सेना कश्मीर में बहुत विकट स्थिति में पाक प्रेरित आतंकवाद का सामना कर रही है। ऐसा वीडियो भी सामने आया है यहां सीआरपीएफ के जवानों ने भारी उत्तेजना और अपमान के बावजूद अत्यंत संयम का प्रदर्शन किया है। मेजर गोगोई के लिए भी आसान रास्ता गोली चलाने का हो सकता था। बार-बार भीड़ वहां सेना के रास्तेे में रुकावटें खड़ी कर रही है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने भी कहा है कि ‘‘हमारे भी तो मानवाधिकार हैं।’’ लेकिन ऐसी आवाजों की अनदेखी करते हुए चैटर्जी ने केवल एक लै. जनरल एचएस पनाग को उद्दत किया है कि मेजर गोगोई की कार्रवाई ‘‘गैर कानूनी और अमानवीय है।’’
जनरल पनाग को उनकी राय मुबारिक पर सेना के पूर्व अधिकारियों के भारी बहुमत ने जनरल रावत और मेजर गोगोई का समर्थन किया है। इन सब लोगों की राय की अनदेखी कर चैटर्जी ने केवल लै. जनरल पनाग की ही बात लिखी है जिससे लगता है कि उनका कोई निजी एजेंडा है। आपको सेना की कार्रवाई से मतभेद हो सकता है पर अपने सेनाध्यक्ष की तुलना जनरल डायर से करना तो बदतमीज़ी की हद है। अभिव्यक्ति की आजादी का यह घोर दुरुपयोग है। उन्हें भी मालूम होना चाहिए कि जनता इस बकवास से बिलकुल सहमत नहीं है। यह कथित लैफ्ट लिबरल कई बार बौद्धिक दिवालियपन प्रदर्शित करते हैं इसीलिए यह सब हाशिए में पहुंच गए हैं। ऐसे लोगों को तो कश्मीर में किसी आर्मी यूनिट के साथ 24 घंटे व्यतीत करने को कहा जाना चाहिए। सारे फिजूल कथित आदर्श छू मंतर हो जाएंगे।
मार्कसी पार्टी ने जनरल रावत को सेना के राजनीतिककरण का दोषी लिखा है। प्रकाश करात तथा ब्रिंदा करात दोनों जनरल रावत पर बरसे हैं। हैरानी नहीं कि वामपंथी भी हाशिए की तरफ सरक रहे हैं। कांग्रेस के पूर्व सांसद तथा शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित ने आर्मी चीफ को ‘सड़क का गुंंडा’ कहा है। बाद में जरूर माफी मांग ली लेकिन शर्मनाक है कि राजनीतिक तथा बौद्धिक हताशा में यह लोग इतने भटक रहे हैं कि बेहूदा बकवास करना शुरू कर दिया है।
बेहूदा बदतमीज़ बकवास (Rubbish Nonsense),